महिलाओं की FOP Leave: फेमिनिस्‍ट की इतनी हायतौबा क्‍यों ?

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डिजिटल प्रगति अब हमारे समय का सच है इसलिए अब इसके बिना सामाजिक या आर्थिक प्रगति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता।
नित नए प्रयोग हो रहे हैं, नया क्षेत्र होने के कारण इसके साथ आने वाली बाधाओं से निपटा भी जा रहा है, यथासंभव बदलाव भी किए जा रहे हैं।
फिलहाल ये बाधा एक बहस के रूप में हमारे सामने है, जिसे डिजिटल मैग्‍जीन Culture Machine ने शुरू किया है। अभी अभी खबर मिली है  कि मलयाली समाचार पत्र Mathrubhumi News ने भी महिला कर्मचारियों के लिए फर्स्ट डे लीव देने की घोषणा कर दी है ।
जी हां, मैग्‍जीन ने अपनी महिला कर्मचारियों के लिए उनकी माहवारी के पहले दिन पेड लीव #FOPLeave देने का फैसला किया है, मैग्‍जीन ने अपनी First Day of Period Policy (FOP) के तहत इस योजना को लागू करते हुए कहा कि इस एक दिन के ब्रेक से महिला कर्मचारियों की आफिस में कार्यक्षमता पर सकारात्‍मक प्रभाव पड़ेगा।
ज़ाहिर है कि इस एक अनोखे बदलाव को बहस का केंद्रबिंदु होना ही था।
मैं पत्रकार बरखा दत्‍त के कल लिखे गए उस लेख से असहमत हूं कि इस तरह महिलाओं को ‘और कमजोर’ दिखाकर मैग्‍जीन उनके लिए सहानुभूति बटोर रही है। बरखा दत्‍त का कहना है कि आजकल जब महिलाएं अपने दम पर उच्‍चस्‍थान हासिल कर रही हैं, तब मैग्‍जीन का यह कदम बेहद निराशा करता है।
बरखा ने अपना हवाला देते हुए लिखा है कि मैंने करगिल वार की रिपोर्टिंग अपने इसी ”पहले दिन” के चलते पूरी की थी और बखूबी की थी। निश्‍चित ही बरखा का कहना सही है कि काम में पहला दिन बाधा नहीं बनता और ना ही कमजोर बनाता है मगर एक बात तो सर्वथा सिद्ध है कि सभी महिलाओं का शरीर माहवारी के पहले दिन एक जैसा रिस्‍पांड नहीं करता, कुछ को असहनीय कष्‍ट होता है और कुछ को कम।
यहां बात पहले दिन होने वाले कष्‍ट को लेकर किसी तुलनात्‍मक अध्‍ययन की नहीं हो रही, यहां तो Culture Machine नामक मैग्‍जीन ने इस कष्‍ट पर सिर्फ अपना स्‍टैंड रखा है। इस स्‍टैंड के तहत वो महिलाएं जिन्‍हें पहले दिन असहनीय कष्‍ट होता है, वह पेड लीव ले सकती हैं और जिनके लिए उसे झेलना संभव है, वह काम पर आ सकती हैं। यह सुविधा है, न कि कोई शर्त। अब तक जो होता आया है, उसके अनुसार पहले दिन भी काम पर आना उनकी मजबूरी थी जिससे न केवल कार्यक्षमता पर असर पड़ना स्‍वाभाविक है बल्‍कि दर्द सहते हुए दबाववश काम करना अमानवीय भी है। मानवीयता तो यही कहती है कि किसी का कष्‍ट हम कम कर सकें तो जरूर करना चाहिए, और मैग्‍जीन ने वही किया है।
ऑफिस में काम करने वाली हर महिला जानती है कि उसने पहले दिन अगर कष्‍ट के कारण छुट्टी ली तो शारीरिक कष्‍ट के साथ-साथ उसे आर्थिक हानि भी उठानी पड़ेगी।
Culture Machine द्वारा महिलाओं के लिए शुरू की गई इस दोहरे लाभ वाली मानवीय सोच की योजना को कथित आधुनिक महिलाओं अथवा कथित महिला अधिकारवादियों द्वारा महिलाओं की क्षमता पर सवालिया निशान लगाने अथवा इसे उनकी कमजोरी बताने के रूप में ना देखकर बेहतर स्‍वास्‍थ्‍य की संभावना के रूप में देखना चाहिए।
हार्डकोर फेमिनिस्‍ट्स इस तरह महिलाओं की नैसर्गिक प्रक्रिया को जबरन उनके सम्‍मान से तो जोड़ ही रही हैं, साथ ही उन्‍हें अमानवीय स्‍थितियों में काम करते रहने पर विवश करने की वकालत भी कर रही हैं।
हार्डकोर फेमिनिस्‍ट्स के ऐसे थोथे और निरर्थक विरोध से तो मैग्‍जीन अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर हो सकती है और दूसरे संस्‍थान भी अपने यहां ऐसा कोई प्राविधान लागू करने का विचार त्‍याग सकते हैं क्‍योंकि व्‍यावसायिक मजबूरियों और कार्य की जरूरतों को देखते हुए बहुत सी प्राइवेट कंपनियों तो ऐसा कोई विचार यूं भी नहीं करतीं।
बेशक हमें मालूम है कि रास्‍ते अब भी पुरख़तर हैं, महिलाओं को अपने अपने अधिकारों व कर्तव्‍यों के लिए हर स्‍तर पर लड़ना पड़ रहा है। पारिवारिक व सामाजिक मानदंडों के जितने चक्रव्‍यूहों को आए-दिन महिलाऐं चुनौती दे रही हैं, बाध्‍यताओं को अपने हौसले और ज़िद से हरा रही हैं, मर्यादाओं के नाम पर हो रहे शोषण के सामने खड़ी हो रही हैं, यह उस बदलाव का संकेत है जिसमें हार्डकोर फेमिनिस्‍ट्स के कुतर्क आड़े नहीं आने वाले।
महिलाओं को अच्‍छी तरह मालूम है कि उनके लिए बदलाव का यह जटिल समय है, ऐसा समय जिसमें उन्‍हें संभलना भी है और बहुत-कुछ संभालना भी है।

सेल्‍फ प्रूविंग के इस दौर में सभी महिलाओं को पता है कि माहवारी के पहले दिन का कष्‍ट कितने स्‍तर पर झेलना होता है। यदि महिला विवाहित और कामकाजी है तो उसे इस कष्‍ट को कई गुना अधिक झेलना होता है, वह भी सेल्‍फप्रूविंग के साथ।

ऐसे कष्‍ट के बीच मैग्‍जीन का एक दिनी सहयोग भी काफी हो सकता है अत: किसी संस्‍थान के सर्वथा मानवीय स्‍तर पर पहली बार उठाए गए इस कदम की सिर्फ और सिर्फ सराहना की जानी चाहिए, न कि उसे महिलाओं की किसी कमजोरी के रूप में प्रदर्शित करके सस्‍ती लोकप्रियता का हथियार बनाना चाहिए।

रहा सवाल बरखा दत्त के लेख का, तो वह किसी भी ऐसे मुद्दे को भुनाने में कभी पीछे नहीं रहतीं जिससे वह लाइम लाइट में आ सकें और यह भी बता सकें कि उन्‍होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कितने कथित झंडे गाढ़े हैं।
यह बात अलग है कि अपनी उपलब्‍धियों से वह वही जाहिर कराती हैं, जिसके विरोध का आडंबर करती हैं।
मसलन यहां वह ”महिला पत्रकार” होने का पूरा अहसास कराए बिना नहीं चूकतीं।

जैसा कि अपने लेख में भी उन्‍होंने यह लिखकर कराया है कि करगिल वार की रिपोर्टिंग उन्‍होंने अपने उस ”पहले दिन” ही की थी। अब पता नहीं, यह उनका दंभ है अथवा कमजोरी।

–  अलकनंदा सिंह

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