मानवाधिकार वास्तव में एक जटिल विषय है । जटिल इसलिए क्योंकि इन्ही का लाभ लेकर ही अक्सर तथाकथित सेक्यूलर लोग आतंकियों के हित संवर्धन का रोना रोते हैं । हांलाकि भारत के अलावा अन्य देशों में हालात दूसरे हैं । जहां तक भारत का प्रश्न है तो हमारे यहां सदैव से आतंकियों के मानवाधिकारों की पैरवी की विशिष्ट व्यवस्था है । यहां विशिष्ट शब्द का प्रयोग इसलिए किया गया है क्योंकि ये कुत्सित कार्य भारत के गणमान्य जनों एवं विद्वान जनों द्वारा किया जाता है । ऐसे में इसके दुरूपयोग की संभावना का बढ़ना लाजिमी ही है । इस विषय को हम कई परिप्रेक्ष्यों एवं घटनाओं के माध्यम से समझ सकते हैं । यथा अजमल कसाब हो अफजल गुरू हमारी न्याय प्रणाली में इनके मानवाधिकरों को पूरी तरह संरक्षित रखा गया। कहने का आशय है कि कसाब जैसा दुर्दांत आतंकी जिसने सैकड़ों मासूमों को मौत के घाट उतार दिया उसे भी हमारे शासन ने कई वर्षों तक जेल में सारी सुविधाएं उपलब्ध कराई । इन सुविधाओं में बिरयानी तक शामिल थी । बावजूद इसके कई बार हमारे मानवाधिकारवादियों को उसके साथ ज्यादती होती दिखी । संक्षेप में कहें तो सरकार ने कसाब के ऐशो आराम के लिए करोड़ों रूपये फूंक डाले । चूंकि प्रश्न उसके मानवाधिकरों का था सरकार पीछे कैसे हटती । यहां कई लोग उसकी फांसी का तर्क देकर सरकार का बचाव कर सकते हैं । क्या कोई ये बताएगा कि उसकी कथित फांसी दिये जाने का कोई साक्ष्य छायाचित्रों के रूप में किसी ने देखा है ? अगर नहीं देखा तो क्यों नहीं देखा ?
सीधी सी बात है सरकार ने ऐसा कोई छायाचित्र जारी ही नहीं किया, इस आधार पर कैसे मान लिया जाए कि वाकई उसे भारतीय न्याय व्यवस्था के तहत फांसी दी गई है ? अथवा सामूहिक नरसंहार के आरोपी की गुपचुप फांसी क्या सरकार की कायरता प्रमाणित नहीं करती ? यहां कई बार ये तर्क दिया जाता है कि इससे कुछ लोगों की भावनाएं आहत होती । अब प्रश्न ये उठता है कि आखिर वे लोग कौन हैं जिन्हे आतंकियों के साथ इतनी हमदर्दी है ? इस प्रकार की हमदर्दी क्या राष्ट्रद्रोह नहीं है ? यदि है तो इस प्रकार की घटनाओं की पुनरावृत्ति क्या साबित करती है ? वास्तव में ऐसे सभी विद्वत एवं विदुषियों के ये सारे कृत्य राष्ट्रद्रोह ही हैं । गौर करीयेगा ये सभी माननीय हमारे लोकतंत्र में विशिष्ट दर्जा प्राप्त करने वाले लोग हैं । इनमें से एक सज्जन तो न्यायमर्ति भी रह चुके हैं । मीडिया को अक्सर उसकी औकात बताने वाले ये महोदय कुछ ही दिनों पूर्व संजय दत्त को सजा होने का मातम बता रहे थे तथा निशुल्क वैधानिक परामर्श भी दे रहे थे । वजह थी संजय दत्त के मानवाधिकार और उनका सम्मानित परिवार । ऐसे ही कुछ दुराग्रही विद्वान और भी हैं । यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि आतंकियों की पैरवी करने वाले इन सभी निकृष्ट प्रजाति के प्राणियों ने सबरजीत के मामले पर एक भी शब्द कभी नहीं कहा । हद तो तब हुई जब उसकी मौत के बाद भी इनमें से किसी के मुंह से एक भी शब्द नहीं निकला ।
अब विचारणीय प्रश्न है किन मानवाधिकारों की बात करते हैं ये घृणित लोग ? क्या मानवाधिकारों पर उन्मादी एवं चरमपंथियों का कॉपीराइट अधिकार है ? क्या आतंकी घटना अथवा नक्सल हिंसा में मारे गए जवानों के मानवाधिकार नहीं होते ? सैन्य कार्रवाई पर प्रश्न चिन्ह लगाना क्या सेना का मनोबल गिराने वाला कृत्य नहीं है ? अथवा आतंकी घटनाओं में मृत आम आदमी के मानवाधिकार नहीं होते? यदि होते हैं तो इन माननीयों का ये कृत्य आम आदमी के मानवाधिकारों के उल्लंघन की श्रेणी में नहीं आता ? अनेकों प्रश्न और भी हैं जो आज भी लोगों के दिलों में कैद हैं । जहां तक प्रश्न है मानवाधिकरों का तो वो निश्चित तौर पर मानवीय अवधारण के अंतर्गत आने वाले मनुष्यों पर लागू होता है न कि जेहादी शैतानों पर । जेहाद के नाम पर मासूमों का बेरहमी से कत्ल करने वालों को मानव कहलाने का अधिकार ही नहीं होता । ऐसे में इन लोगों के मानवाधिकारों का कोई प्रश्न ही नहीं उठता । अब वक्त आ गया है आतंक एवं चरमपंथियों की पैरवी करने वाले इन श्रृगालों को सबक सिखाने का । आखिर ये कब तक मासूमों की चिताओं पर अपनी महत्वाकांक्षाओं की रोटियां सेकेंगे ।
विगत शुक्रवार को पाकिस्तान की कोट लखपत जेल में मजहबी उन्मादियों की साजिश का शिकार हुए सरबजीत की मौत ने मानवाधिकारों के विषय में दोबारा सोचने पर मजबूर कर दिया है । सबसे हास्यास्पद बात ये है कि सरबजीतके जीते जी उसके बारे में बात करने से भी कतराने वाले हमारे प्रधानमंत्री ने उसकी मौत को हत्या बताया । बहरहाल पाक में इस तरह की घटना कोई नयी बात नहीं है कुछ माह पूर्व भी पाक सैनिकों ने सुरक्षा चौकी पर तैनात भारतीय जवानों के सिर काटकर मानवता को शर्मसार कर दिया था। देखने वाली बात है भारत सरकार इस शर्मनाक घटना पर क्या कार्रवाई करती है ? शायद पाकिस्तान के साथ क्रिकेट कुछ वर्षों के लिए प्रतिबंधित कर दीए जाएं क्योंकि मनमोहन जी के विधान में इससे बढ़कर कोई दूसरी सजा हैं ही नहीं । खैर हम इस निकम्मी सरकार से इससे ज्याद आशा रख भी नहीं सकते । इस पूरे मामले में मानवाधिकार वादियों की कुटिल चुप्पी बुरी तरह खल रही है । इन विषम परिस्थितियों में ये प्रश्न विचारणीय है,अब खामोश क्यों हैं मानवाधिकारों के पैरोकार ?
1962 मे चीन ने भारत को जगाया था , कि हम पर भरोसा ना करो, इस तरह एक हमरे लिए आगह था
कि हम भविश्य के लिए हथि यारो आदि से ब्यवस्थित और सुसज्जित रहे, उस्का लाभ यह प्राप्त हुआ कि
हम १९६५ कि पाक और १९७१ मे पुनह पाक से विजैइ रहे ! उप्रोक्त घतन क्रम मे हमरे अनेक सैनिक बीर् गति को प्राप्त हुए परन्तु देश के लिए एक ऐसि ब्यवस्था का जन्म हो गया कि हम हथियारो कि ओर सोचने लगे , नाहि तो नेहरु जी पन्च शील के सिद्ध्आन्त को आगे रख आज कि परिस्थित मे देश की लुतिया दुबो दे३ते !
आज की विशम स्थिति यह है कि कन्ग्रेश कि बिदुशि भद्र महिला सोनिया जी कि मत देखो मत
सुनो मत बोलो,, गन्धिवाद मे चल रहेन है !! देश घोतालो पर घ्प्तालो से त्रस्त है ! आज सन्सार कि सब्से आगे और भ्र्स्तम सरकार कन्ग्रेशिओ कि देन है ! देश को सोचना होगा की देश मे वर्त्मान ब्य्वथा से भि बेहतर कोइ अन्य ब्यवस्था है क्या……..
सही बात है,इन मानवाधिकारियों को भारत में ही सब सूझता है,पाकिस्तान ,चीन में जा कर यह बात करें,पाक में क्या हुआ,बरनी जैसे लोगो को भी कुछ करने को नहीं मिला,कोई सुनवाई नहीं हुई,कश्मीर में,गुजरात में जरा सा पटाखा फूटने पर हल्ला मचने वाले आज अभी तक मुह ढक कर सोये हुए है.उन्हें जगाना है तो भारत में कोई ऐसी घटना होगी,तब जागेंगे,जम्मू जेल के कैदी की मरत्यु हो जाने पर वह आयेंगे,या तिहार जेल के जावेद के लिए भी निद्रा त्याग सकते हें.