करोड़पति जनसेवक भला क्यों चाहेंगे लोकपाल का दायरा!

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लिमटी खरे

समाजसेवी अण्णा हजारे की जिद है कि देश में लोकपाल विधेयक लाया जाए और उसके दायरे में प्रधानमंत्री और सांसदों को भी लाया जाए। वहीं दूसरी और इक्कीसवीं सदी के स्वयंभू योग गुरू रामकिशन यादव उर्फ बाबा रामदेव ने विदेशों मंे जमा काला धन वापस लाने और भ्रष्टाचार के समूल खात्मे का बीड़ा उठाया। बाबा रामदेव के मन मंदिर में राजनैतिक महात्वाकांक्षाएं हिलोरे मार रही थीं, जिसे ताड़कर भाजपा और कांग्रेस ने उन्हें उखाड़ फंेका। अब अण्णा की बारी है। कहते हैं अण्णा ने जैसे ही पुनः हुंकार भरी वैसे ही आयकर विभाग का दल उनके घर पहुंच गया। सवाल यह उठता है कि जब बाबा रामदेव महीने दर महीने अपनी अकूत दौलत जोड़ रहे थे, तब क्या कांग्रेसनीत केंद्र सरकार या आयकर विभाग की तंद्रा नहीं टूटी। अब जब रामदेव ने सरकार की नींद हराम की तब आयकर का कोड़ा फटकारकर उन्हें डराया जा रहा है। लालू जब सरकार से बारगेनिंग करते हैं तब सीबीआई का शिकंजा कस जाता है, जब समर्थन की बारी आती है तो उन्ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे लालू का आलिंगन कर उन्हें रेल मंत्री बनाने से कांग्रेस को परहेज नहीं होता है।

देश का लगभग एक चौथाई आबादी का हिस्सा आज भी भुखमरी की कगार पर है, पर लोकसभा में उनकी आवाज उठाने वाले तथाकथित ‘गरीब जनसेवकों‘ की संपत्ति में विस्फोटक बढ़ोत्तरी दर्ज हो रही है। 2004 में लोकसभा में आमद देने वाले करोड़पति जनसेवकों की तादाद 2009 में दोगुनी तो उनकी संपत्ति तीन गुना हो गई। गैर सरकारी संस्था एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2004 में 543 में से लोकसभा पहुंचने वाले संसद सदस्यों की तादाद 156 थी, जो वर्ष 2009 के चुनावों मंे बढकर 315 हो गई। पांच साल पहले इनकी औसत संपत्ति एक करोड़ 46 लाख रूपए थी जो बढ़कर पांच करोड़ तेंतीस लाख हो गई। यह प्रतिवेदन लोकसभा पहुंचने वाले सांसदों द्वारा चुनाव पूर्व पेश हलफनामे के आधार पर तैयार की गई है।

प्रतिवेदन कहता है कि 2004 की लोकसभा में 304 सांसदांे ने 2009 में भी चुनाव लड़ा था। इसके अनुसार इन सांसदों की औसत संपत्ति में दो करोड़ नौ लाख रूपए का इजाफा हुआ है। वर्तमान में बीस लोकसभा सदस्यों में से बीस फीसदी अर्थात सवा सौ से अधिक सांसदों की संपत्ति पांच करोड़ रूपए से अधिक है। पचास लाख से पांच करोड़ रूपए की संपत्ति वाले सांसदों की संख्या 294 है, जो लोकसभा में कुल सांसदों की संख्या के आधे से अधिक है। दस लाख से कम संपत्ति वाले सांसदों की संख्या महज 17 है।

एडीआर की रिपोर्ट कहती है कि करोड़पति सांसदों के मामले में सवा सौ साल पुरानी और भारत गणराज्य पर आधी सदी से ज्यादा राज करने वाली अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस बेहद भाग्यशाली है, क्योंकि इसके 146 सांसद करोड़पति हैं। दूसरे नंबर पर प्रमुख विपक्षी दल भाजपा है जिसके सांसदों की तादाद 59 है। समाजवादी के 14, तो बीएसपी और डीएमके 13 – 13 सांसद करोड़ति हैं।

सबसे अधिक करोड़पति सांसद उत्तर प्रदेश से हैं जहां इसकी तादाद 52, महाराष्ट्र में 38, आंध्र प्रदेश में 32, तमिल नाडू और कर्नाटक में 25 – 25, बिहार में 17, मध्य प्रदेश में 15, राजस्थान में 14, पंजाब के 13, गुजरात के 12, पश्चिम बंगाल के 11, हरियाणा के 9 तो दिल्ली के महज सात सांसद करोड़ों से अधिक की दौलत के मालिक हैं। आंध्र प्रदेश के खम्मम लोकसभा क्षेत्र से चुने गए तेलगूदेशम के सांसद नागेश्वर राव की संपत्ति सबसे अधिक 173 करोड़ रूपए है, तो दूसरे नंबर पर कांग्रेस के नवीन जिंदल हैं, जिनकी कुल संपत्ति 131 करोड़ रूपए है।

तो यह था देश की सबसे बड़ी पंचायत के पंचों अर्थात सांसदों की जेब का घोषित हाल। वास्तव में इनकी संपत्ति कितनी होगी इसका अंदाजा सहजता से नहीं लगाया जा सकता है। इनकी बेनामी संपत्तियों के बारे में तो कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं। योग गुरू बाबा रामदेव ने दो तीन साल से जनसेवकों की इस दुखती रग पर हाथ रखना आरंभ किया था। बाबा के भ्रष्टाचार विरोधी अभियान को काफी हद तक सफलता मिली। तीन साल पूर्व बाबा रामदेव ने काला धन वापस लाने के लिए सड़कों पर उतरने की हुंकार भरी थी। बाबा का यह अभियान जब एक साल तक आरंभ नहीं हुआ तब 2009 में हमने अपने ‘‘देश की सड़कें आपकी राह देख रहीं हैं बाबा‘‘ शीर्षक से एक आलेख लिखा था, जिस पर बाबा समर्थकों ने तबियत से बाबा की हिमायत की थी। बहरहाल बाबा रामदेव ने देश की सड़कों को 2011 में नापना आरंभ किया।

बाबा रामदेव के इस अभियान को देशव्यापी सफलता मिलती देख समाज सेवी अण्णा हजारे के नेतृत्व में कुछ लोगों ने जिन पर खुद कथित तौर पर आरोप लगे हैं ने अनशन आरंभ कर दिया। अण्णा के अनशन को आशातीत सफलता मिली। इस अनशन ने कांग्रेस की बांछे खिला दीं, क्योंकि इससे बाबा रामदेव पार्श्व की ओर जाते दिख रहे थे। उधर बाबा रामदेव के मन में राजनैतिक महात्वाकांक्षाएं जोर मार रही थीं। उन्होंने भारत स्वाभिमान के बेनर तले एक सियासी दल बनाने की घोषणा कर दी थी। बाबा अगर राजनैतिक दल बनाते तो इससे सीधे सीधे भाजपा के वोट बैंक में सेंध लगती। बाबा के तेवरों से कांग्रेस और भाजपा दोनों ही घबरा गए थे।

बाबा रामदेव के टीवी चेनल्स पर साक्षात्कार देख सियासी महारथियों ने बाबा की तासीर को पहचाना और जैसे ही बाबा उज्जैन से अपनी यात्रा समाप्त कर दिल्ली को उड़े बाबा की अगवानी के लिए केंद्र सरकार के चार मंत्री जा पहुंचे। इस बात को इलेक्ट्रानिक मीडिया में प्रायोजित तरीके हवा दिलवाई गई कि एसा स्वागत तो दुनिया के चौधरी बराक ओबामा का नहीं हुआ। फिर क्या था बाबा रामदेव फूक कर कुप्पा हो गए और उन्होंने सरकार से समझौता कर अनशन प्रारंभ होने के पहले ही अनशन समाप्ति का पत्र सौंप दिया। अमूमन किसी को मंत्री या निगम का अध्यक्ष बनाने के पहले उससे त्यागपत्र लिखवा लिया जाता है, ताकि वक्त बेवक्त काम आ सके। सियासी समीकरणबाजों ने तो अपना सही दांव खेला, पर भोले भाले बाबा रामदेव इसमें उलझ गए। शाम को फिर बाबा को अनशन समाप्त करने कहा गया किन्तु बाबा नहीं माने तो कुटिल राजनेता कपिल सिब्बल ने बाबा के सहयोगी आचार्य बाल किसन की लिखी चिट्ठी सार्वजनिक कर दी। फिर क्या था, बाबा भड़क गए। देर रात बाबा को बलात उठाने का प्रयास हुआ। चेनल्स पर सभी ने देखा कि बाबा रामदेव किस तरह मंच से कूदे और स्त्रियों के भेष में वहां से भागने का प्रयास करते पकड़े गए। कल तक के हीरो बाबा रामदेव का यह कदम उन्हें हीरो से जीरो तक पहुंचाने के लिए पर्याप्त था। मीडिया ने बाबा को ‘रणछोड़दास‘ की उपाधि से नवाज दिया।

बाबा अपनी मांद पतांजली योग पीठ पहुंचे और अनशन आरंभ कर दिया। चौथे दिन ही बाबा की तबियत बिगड़ गई। कांग्रेस ने इसे फिर भुनाया और मीडिया में खबर चल गई कि स्वयंभू योग गुरू बाबा रामदेव योगी नहीं वरन् योग का ‘मदारी‘ है। बाबा रामदेव भूल गए कि योग के बल पर उन्होंने न जाने कितने दावे अपने राईट हेण्ड आचार्य बाल किसन के स्वामित्व वाले ‘आस्था‘ चेनल पर किए थे। बाबा को स्मरण करना होगा कि हमारे ऋषि मुनी योग के बल पर ही निराहार रहकर महीने तप में लगे रहते थे। पब्लिसिटी के भूखे बाबा रामदेव ने मीडिया के सामने से हटना ही नहीं चाहा।

बाबा के अनशन को तोड़ने के बाद कांग्रेस की नजर अब अण्णा हाजरे पर है। अण्णा के साथियों को दागदार बताकर उन्हें भी भरमाने का प्रयास किया गया। अण्णा के हठ के बाद उनके घर पर आयकर अधिकारी भेज दिए गए। यक्ष प्रश्न तो यह है कि क्या भारत में प्रजातंत्र बचा है? हालात देखकर लगता है मानो देश में हिटलरशाही हावी हो चुकी है। जिसने सरकार के खिलाफ आवाज उठाई उसे बलात नेस्तनाबूत कर दिया जाएगा। लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका निभाने वाली भाजपा द्वारा कांग्रेस के साथ नूरा कुश्ती खेली जा रही है। पूंजीपतियों की रखैल बन चुका मीडिया सच्चाई के बजाए कांग्रेस भाजपा के सुर में सुर मिला राग मल्हार गा रहा है। कांग्रेस आरोप लगाती है कि बाबा रामदेव के पीछे संघ और भाजपा है, मीडिया यह पूछने की जुर्रत नहीं कर पाता कि बाबा के पीछे कौन है इससे क्या लेना देना, मुद्दा तो यह है कि बाबा द्वारा उठाया गया मुद्दा सही या नहीं?

आदिमत्थू राजा और सुरेश कलमाड़ी दोनों हाथों से देश को लूटते रहे और प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह तथा कांग्रेस की राजमाता श्रीमति सोनिया गांधी युवराज राहुल गांधी सब इसे किसी जादूगर के कारनामा समझकर सम्मोहित बैठे देखते रहे। क्या यह संभव है। जब करूणानिधि सत्ता से बाहर होते हैं तब सरकार उनकी पुत्री को जेल भेजने का साहस जुटा पाती है। लालू यादव जब सरकार को आंख दिखाते हैं तब सीबीआई उन पर शिकंजा कसती है, बाद में सरकार बचाने के लिए उन्हीं भ्रष्टों के शहंशाह लालू यादव को गले लगा लिया जाता है। आखिर हो क्या रहा है इस देश में? विपक्ष भी सत्ता की मलाई चखने के साथ ही साथ आम जनता के प्रति अपनी जवाबदेही से बचने का प्रयास कर रहा है।

बाबा रामदेव और अण्णा हजारे के मुद्दे संसद में ही पारित होने हैं। जिस संसद के दो तिहाई से ज्यादा सदस्य सड़कपति से करोड़पति हों क्या वे सिविल सोसायटी के लोकपाल बिल का स्वरूप स्वीकार कर पाएंगे? जिनकी अकूत दौलत विदेशों के बैंक में जमा हो क्या वे काला धन वापस लाने वाले विधेयक का समर्थन करेंगे? बाबा रामदेव का आंदोलन तो उनकी राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं की बली चढ़ चुका है। अब अण्णा को बेहद संभल कर चलना होगा। अण्णा ने अपने साथ भूषण बंधुओं को लिया है, जिन पर अनेग संगीन आरोप हैं। अण्णा ने फिर से अनशन की बात कही है। अण्णा को चाहिए कि वे दिल्ली के बजाए साबरमती या सेवाग्राम में जाकर अपना अनशन करें। वे इस बात की कतई चिंता न करें कि मीडिया उनके पास वहां नहीं पहुंचेगा तो उनका आंदोलन परवान नहीं चढ़ पाएगा। महात्मा गांधी ने जब आंदोलन किया तब मीडिया कितना ताकतवर था, पर क्या मीडिया के बिना उन्हें अपने पवित्र और पावन उद्देश्य में सफलता नहीं मिली। आंदोलन के लिए मीडिया का सहारा लेना खुद की कमजोरी ही प्रदर्शित करता है। मीडिया में बैठे कुछ दलाल और दुकानदारों द्वारा रसूखदारों के फंेके टुकड़ों के एवज में उनके सामने दुम हिलाने से हालात काफी हद तक चिंताजनक हो चुके हैं। करोड़पति सांसदों द्वारा बाबा रामदेव और अण्णा की राय से इत्तेफाक तो कतई नहीं रखा जाएगा। डर है कि कहीं अण्णा हजारे का हश्र भी बाबा रामदेव सरीखा न हो जाए।

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लिमटी खरे
हमने मध्य प्रदेश के सिवनी जैसे छोटे जिले से निकलकर न जाने कितने शहरो की खाक छानने के बाद दिल्ली जैसे समंदर में गोते लगाने आरंभ किए हैं। हमने पत्रकारिता 1983 से आरंभ की, न जाने कितने पड़ाव देखने के उपरांत आज दिल्ली को अपना बसेरा बनाए हुए हैं। देश भर के न जाने कितने अखबारों, पत्रिकाओं, राजनेताओं की नौकरी करने के बाद अब फ्री लांसर पत्रकार के तौर पर जीवन यापन कर रहे हैं। हमारा अब तक का जीवन यायावर की भांति ही बीता है। पत्रकारिता को हमने पेशा बनाया है, किन्तु वर्तमान समय में पत्रकारिता के हालात पर रोना ही आता है। आज पत्रकारिता सेठ साहूकारों की लौंडी बनकर रह गई है। हमें इसे मुक्त कराना ही होगा, वरना आजाद हिन्दुस्तान में प्रजातंत्र का यह चौथा स्तंभ धराशायी होने में वक्त नहीं लगेगा. . . .

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