क्यों होंगे मध्यावधि चुनाव ?

up-electionअमिताभ त्रिपाठी

कांग्रेस नीत वर्तमान यूपीए सरकार को बाहर से समर्थन दे रही समाजवादी पार्टी के प्रमुख मुलायम सिंह यादव ने दावा किया है कि उनके पास खुफिया जानकारी है कि केंद्र सरकार इसी वर्ष नवम्बर तक आम चुनाव करा सकती है। इसी बीच दक्षिण अफ्रीका में ब्रिक्स समूह की बैठक से लौटते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आशा व्यक्त की कि एक बार फिर से केंद्र में यूपीए की वापसी हो सकती है।

इन दोनों ही बयानों का आपस में कोई सम्बंध  तो नहीं है परंतु इन दोनों ही बयानों के आधार पर भविष्य की राजनीति के संकेत अवश्य निकाले जा सकते हैं।

मैं पिछले एक वर्ष से यह कहता और लिखता आया हूँ कि वर्तमान केंद्र सरकार अपना कार्यकाल पूरा नहीं करेगी और मध्यावधि चुनाव होंगे । मध्यावधि चुनाव इस कारण नहीं होंगे कि सरकार संख्या बल के खेल में मात खा जायेगी वरन मध्यावधि चुनाव इसलिये होंगे क्योंकि कांग्रेस स्वयं मध्यावधि चुनाव चाहती है।

देश की वर्तमान राजनीतिक स्थिति को देखते हुए कांग्रेस के शीर्ष रणनीतिकारों की प्राथमिकता सरकार से पूरी तरह भिन्न है। एक ओर सरकार जहाँ आर्थिक सुधार और अन्य अधूरे काम पूरा करना चाहती है तो कांग्रेस की रणनीति तीन प्रमुख प्राथमिकताओं पर आधारित है।

कांग्रेस के “ प्रथम परिवार” की अक्षुण्ण्ता को सुरक्षित रखा जाये।

कांग्रेस के राजकुमार राहुल गाँधी  की राजनीतिक महत्ता को बचाकर रखा जाये

सरकार और कांग्रेस की अलोकप्रियता का लाभ किसी भी प्रकार भाजपा को प्राप्त करने से रोका जाये।

यदि इन तीनों प्राथमिकताओं के आधार पर वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों का आकलन किया जाये तो कांग्रेस की इस रणनीति की ओर ध्यान जाता है।

2जी घोटाले के बाद जिस प्रकार एक के बाद एक घोटाले सामने आ रहे हैं उन्होंने अत्यंत शीर्ष स्तर पर निर्णय लेने वाली शक्तियों को भी शक के दायरे में लाना आरम्भ कर दिया है। जैसे कि हाल में 2जी घोटाले के दोषी ए राजा ने संयुक्त संसदीय समिति को लिखा कि उनके निर्णयों से प्रधानमंत्री और तत्कालीन वित्त मंत्री परिचित थे। आने वाले दिनों में यह मामला और ऊपर तक भी जा सकता है।

इसी प्रकार बीते कुछ दिनों में यूपीए अध्यक्षा श्रीमती सोनिया गाँधी के दामाद राबर्ट बाड्रा का नाम भी अनेक मामलों में आया है और कुछ जमीन के घोटालों में उनके नाम पर इस कदर विवाद उठा कि संसद से विधानसभाओं तक इसकी गूँज गयी।

श्रीमती सोनिया गाँधी से बेहतर इस बात को कोई नहीं जानता कि देश में एक ऐसा वर्ग है जो उनके बारे में तरह तरह की कानाफूसी करता है और अनेक रहस्यमयी प्रश्न अब भी उनके इर्द गिर्द घूम रहे हैं। 2004 में प्रधानमंत्री पद को अस्वीकार कर श्रीमती सोनिया गाँधी ने ऐसे तत्वों को धराशायी कर दिया था पर अब यदि किसी भी मामले में उन तक आँच आयी तो इसके राजनीतिक परिणाम होंगे। वैसे भी हेलीकाप्टर घोटाले में कमीशन को लेकर किसी  परिवार की बात चल ही रही है।

कांग्रेस की दूसरी प्राथमिकता अपने युवराज की राजनीतिक महत्ता को बचाकर रखना है। बिहार और उत्तर प्रदेश के चुनावों में अपनी पूरी प्रतिष्ठा लगाने के बाद भी निराशाजनक परिणाम ने राहुल गाँधी की राजनीतिक कुशलता पर नयी बहस आरम्भ कर दी थी। वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों में कांग्रेस राहुल गाँधी पर दाँव लगाने से बचना चाहती है।

कांग्रेस की तीसरी प्राथमिकता भाजपा को सत्ता में आने से रोकना है। कम से कम यदि कांग्रेस सत्ता में वापसी न कर सके तो ऐसा गठबंधन सरकार बनाये जहाँ कि कांग्रेस के साथ काम चलाऊ सम्बंध बने रहें।

वैसे तो मीडिया में भाजपा के अंतर्कलह की चर्चा खूब होती है पर कांग्रेस की स्थिति पर अधिक चर्चा नहीं होती। कांग्रेस में अनेक वरिष्ठ नेता जिन्होंने कि राजीव गाँधी के साथ काम किया है वे राहुल गाँधी के नीचे काम करने में स्वयं को असहज पा रहे हैं ।साथ ही वे अपनी अगली पीढी के लिये पार्टी में ऐसी स्थिति बनाना चाहते हैं कि उनकी अगली पीढी पार्टी और सरकार में सर्वोच्च पद पर जाने का  स्वप्न देख सके। इसलिये कांग्रेस के अनेक वरिष्ठ नेता राहुल गाँधी को वर्तमान स्थिति में आगे करना चाहते हैं ताकि बिहार और उत्तर प्रदेश के बाद आम चुनाव में अपेक्षित परिणाम न मिलने पर कांग्रेस में नयी हलचल मचे।

परंतु इसके साथ ही जिस प्रकार प्रधानमंत्री ने तीसरी बार यूपीए की वापसी की सम्भावना जताई वह कांग्रेस की रणनीति की ओर संकेत करता है। कांग्रेस विपक्षी दल विशेषकर भाजपा को आश्चर्चकित करना चाहती है। भाजपा पूरी तरह मान बैठी है कि वर्तमान केंद्र सरकार अपना कार्यकाल पूरा करेगी क्योंकि कोई भी पहले चुनाव नहीं चाहता । परंतु कांग्रेस भाजपा की संशयपूर्ण स्थिति का लाभ उठाना चाहती है। उसे लगता है कि यदि भाजपा बिना नेता के जनता के मध्य चुनावों में जाती है तो उसके मुकाबले मनमोहन सिंह के 10 वर्षों के कार्यकाल की बात कांग्रेस करेगी और यदि भाजपा गुजरात के मुख्यमत्री नरेंद्र मोदी को आगे करती है तो यह प्रक्रिया ही भाजपा और सहयोगी दलों में मतभेद का कारण बनेगी और चुनाव के समय भाजपा एकजुट होकर कांग्रेस का विकल्प नहीं बन सकेगी। साथ ही  मोदी के सामने आने से मुस्लिम मतों के ध्रुवीकरण का लाभ भी कांग्रेस को मिलेगा और अपनी अलोकप्रियता के बाद भी कांग्रेस  और भाजपा की सीटों की संख्या में अधिक अंतर नहीं होगा और सेक्युलरिज्म के नाम पर फिर से गठबन्धन बनाने में कांग्रेस को सफलता मिल जायेगी|

परंतु गुजरात में लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद से जिस प्रकार दिनों दिन नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ बढ रहा है उसने कांग्रेस के रणनीतिकारों के माथे पर बल ला दिया है। अब अंदरखाने में कांग्रेसी भी स्वीकार करने लगे हैं कि यदि नरेंद्र मोदी को तैयारी का अधिक समय दिया गया तो कांग्रेस के आकलन धरे के धरे रह जायेंगे और मुकाबला एकतरफा हो जायेगा और भारत तथा बांग्लादेश के मध्य एकदिवसीय क्रिकेट जैसी हालत होगी जहाँ उत्सुकता केवल यह रहेगी कि विजय का अंतर क्या रहता है?

कांग्रेस इन्हीं बिंदुओं पर अपनी रणनीति बना रही है और इसे देखते हुए यह सम्भव दिखता है कि देश में मध्यावधि चुनाव हो जायें।

परंतु एक बात सदैव ध्यान रखने की है कि राजनीति सम्भावनाओं और अनिश्चितताओं का खेल है। कांग्रेस को लगता है कि इतिहास स्वयं को दुहरायेगा और 2013 के मोदी में 1996 के अटल बिहारी वाजपेयी की पुनरावृत्ति होगी। परंतु दोनों स्थितियों में कुछ मूलभूत अन्तर है। नरेंद्र मोदी के पास एक दशक से अधिक का प्रशासन का अनुभव है। यह 2013 का भारत है और नरेंद्र मोदी के पक्ष में विश्व भर के दक्षिण पंथी लामबन्द  होने लगे हैं।

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