क्या एकजुट रह पाएंगे अन्ना व बाबा!

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तेजवानी गिरधर

कैसा अजब संयोग है कि आज जब कि देश में गठबंधन सरकारों का दौर चल रहा है, आंदोलन भी गठबंधन से चलाने की नौबत आ गई है। सामाजिक कार्यकर्ता अन्ना हजारे और बाबा रामदेव सरकार से अलग-अलग लड़ कर देख चुके, मगर जब कामयाबी हाथ लगती नजर आई तो दोनों ने गठबंधन कर लिया है। जाहिर तौर पर यह गठबंधन वैसा ही है, जैसा कि सरकार चलाने के लिए कभी एनडीए को तो कभी यूपीए का काम करता है। मजबूरी का गठबंधन। गठबंधन की मजबूरी पूरा देश देख चुका है, जिसके चलते मनमोहन सिंह पर मजबूरतम प्रधानमंत्री होने का ठप्पा लग चुका है। अब दो अलग-अलग आंदोलनों के प्रणेता एक-दूसरे के पूरक बन कर लडऩे को तैयार हुए हैं तो यह स्वाभाविक है कि दोनों को संयुक्त एजेंडे के खातिर अपने-अपने एजेंडे के साथ-साथ कुछ मौलिक बातों के साथ समझौते करने होंगे। यह गठबंधन कितनी दूर चलेगा, पूत के पांव पालने में ही नजर आने लगे हैं। टीम अन्ना के कुछ सदस्यों को बाबा रामदेव के तौर-तरीके पर ऐतराज है, जो कि उन्होंने जाहिर भी कर दिए हैं।

ऐसा नहीं है कि अन्ना और बाबा के एकजुट होने की बातें पहले नहीं हुई हों, मगर तब पूरी तरह से गैर राजनीतिक कहाने वाली टीम अन्ना को संघ व भाजपा की छाप लगे बाबा रामदेव के आंदोलन से परहेज करना पड़ रहा था। सच तो ये है कि दोनों ही भ्रष्टाचार के खिलाफ शुरू किए गए आंदोलन में नंबर वन रहने की होड़ में लगे हुए थे। बाबा को योग बेच कर कमाए हुए धन और अपने भक्तों व राष्ट्रव्यापी संगठन का गुमान था तो अन्ना को महात्मा गांधी के समकक्ष प्रोजेक्ट कर दिए जाने व कुछ प्रखर बुद्धिजीवियों के साथ होने का दंभ था। राष्ट्रीय क्षितिज पर यकायक उभरे दोनों ही दिग्गजों को दुर्भाग्य से राष्ट्रीय स्तर का आंदोलन करने का कोई पूर्व अनुभव नहीं था। बावजूद इसके वे अकेले दम पर ही जीत हासिल करने के दंभ से भरे हुए थे। जहां तक बाबा का सवाल है, उन्हें लगता था कि उनके शिविरों में आने वाले उनके लाखों भक्त सरकार का तख्ता पलटने की ताकत रखते हैं, जबकि सच्चाई ये थी कि भीतर ही भीतर हिंदूवादी ताकतें अपने मकसद से उनका साथ दे रही थीं। खुद बाबा राजनीतिक आंदोलन के मामले में कोरे थे। यही वजह रही कि सरकार की चालों के आगे टिक नहीं पाए और स्त्री वेष में भागने की नौबत आ गई। उधर अन्ना को हालांकि महाराष्ट्र में कई दिग्गज मंत्रियों को घर बैठाने का अनुभव तो था, मगर राष्ट्रीय स्तर पर पहली बार हाथ आजमाया। यह अन्ना का सौभाग्य ही रहा कि भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता ने उनको सिर माथे पर बैठाया। एक बारगी तो ऐसा लगा कि इस दूसरे गांधी की आंधी से वाकई दूसरी आजादी के दर्शन होंगे। मीडिया ने भी इतना चढ़ाया कि टीम अन्ना बौराने लगी। जहां तक कांग्रेसनीत सरकार का सवाल है तो, कोई भी सरकार हो, आंदोलन से निपटने में साम, दाम, दंड, भेद अपनाती है, उसने वही किया। सरकार ने अपना लोकपाल लोकसभा में पास करवा कर उसे राज्यसभा में फंसा दिया, उससे अन्ना आंदोलन की गाडी भी गेर में आ गई। इसे भले ही अन्ना को धोखा देना करार दिया जाए, मगर यह तो तय हो गया न कि अन्ना धोखा खा गए। मुंबई में फ्लाप शो के बाद तो टीम अन्ना को समझ में नहीं आ रहा था कि अब किया क्या जाए। हालांकि उसके लिए कुछ हद तक टीम अन्ना का बड़बोलापन भी जिम्मेदार है।

कुल मिला कर बाबा व अन्ना, दोनों को समझ में आ गया कि सरकार बहुत बड़ी चीज होती है और उसे परास्त करना इतना भी आसान नहीं है, जितना कि वे समझ रहे थे। चंद दिन के जन उभार के कारण दोनों भले ही दावा ये कर रहे थे कि वे देश की एक सौ बीस करोड़ जनता के प्रतिनिधि हैं, मगर उन्हें यह भी समझ में आ गया कि धरातल का सच कुछ और है। लब्बोलुआब दोनों यह साफ समझ में आ गया कि कुटिल बुद्धि से सरकार चलाने वालों से मुकाबला करना है तो एक मंच पर आना होगा। एक मंच पर आने की मजबूरी की और वजहें भी हैं। बाबा के पास भक्तों की ताकत व संगठनात्मक ढांचा तो है, मगर अब उनका चेहरा उतना पाक-साफ नहीं रहा, जिसके अकेले बूते पर जंग जीती जाए। उधर टीम अन्ना के पास अन्ना जैसा ब्रह्मास्त्र तो है, मगर संगठन नाम की कोई चीज नहीं। आपने बचपन में एक कहानी सुनी होगी, एक नेत्रहीन व एक विकलांग की। एक देख नहीं सकता था, दूसरा चल नहीं सकता था। दोनों ही अपने-अपने बूते गन्तव्य स्थान तक नहीं पहुुंच सकते थे, सो दोनों ने दोस्ती कर ली। विकलांग नेत्रहीन के कंधों पर सवार हो गया। फिर जैसा-जैसा विकलांग बताता गया, अंधा चलता गया। वे गन्तव्य तक पहुंच गए। लगभग वैसी ही दोस्ती है अन्ना व बाबा की, मगर वे पहुंचेंगे या नहीं, कुछ कहा नहीं जा सकता। वजह ये है कि दोनों का मिजाज अलग-अलग है। अन्ना ठहरे भोले-भाले और बाबा चतुर-चालाक। आज भले ही वे साथ-साथ चलने का दावा कर रहे हैं, मगर उनके साथ जो लोग हैं, उनमें भी तालमेल होगा, यह कहना कठिन है। दरअसल पूत के पग पालने में ही दिखाई दे रहे हैं। शुरुआत ही विवाद के साथ हो रही है। टीम अन्ना बाबा के रुख से इस कारण नाराज है क्योंकि वह मानती है कि अन्ना को भरोसे में लिए बिना रामदेव आगे बढ़ रहे हैं। असल में रामदेव और अन्ना हजारे की गुडगांव में हुई मुलाकात के बाद प्रेस कान्फ्रेंस हुई। टीम अन्ना का ऐतराज है कि उसे इसके बारे में पहले से नहीं बताया गया था। अन्ना ने मुद्दों पर बात करने के लिए मुलाकात की, लेकिन बैठक के बाद उन्हें जबरदस्ती मीडिया के सामने लाया गया। हमें इस पर गहरी आपत्ति है। टीम अन्ना के एक सदस्य ने कहा कि रामदेव खुद को ही सबसे महत्वपूर्ण दिखाना चाहते हैं। टीम अन्ना में कुछ लोगों को रामदेव को भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ाई में शामिल करने पर भी आपत्ति है। इनका कहना है कि रामदेव पर पतंजलि योग पीठ समेत कई संस्थानों को लेकर कई आरोप लगे हैं। इसलिए ऐसा करना सही नहीं होगा।

केवल बाबा को लेकर ही नहीं, टीम में अन्य कई कारणों से अंदर भी अंतर्विरोध है। इसी के चलते ताजा घटनाक्रम में मुफ्ती शमीम काजमी को जासूसी करने के आरोप में टीम से निकाल दिया गया। काजमी ने टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य अरविंद केजरीवाल पर मुंबई का अनशन नाकाम करने सहित मनमानी करने के आरोप लगाए। बकौल काजमी टीम अन्ना के कुछ सदस्य हिमाचल प्रदेश से चुनाव लडऩा चाहते हैं, जिस कारण टीम में मतभेद है। काजमी ने यह भी कहा कि टीम अन्ना मुसलमानों के साथ भेदभाव करती है। शमीम काजमी ने कहा कि अन्ना हजारे का भी इस टीम के साथ अब दम घुट रहा है और वो भी बहुत जल्द ही इससे अलग हो जाएंगे।

कुल मिला कर एक ओर टीम अन्ना को घाट-घाट के पानी पिये हुओं में तालमेल बैठाना है तो दूसरी ओर बाबा रामदेव के साथ तालमेल बनाए रखना है, जो कि आसान काम नहीं है। एक बड़ी कठिनाई ये है कि बाबा के साथ हिंदूवादी ताकतें हैं, जब कि अन्ना के साथ वामपंथी विचारधारा के लोग ज्यादा हैं। इनके बीच का गठजोड़ कितना चलेगा, इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है।

9 COMMENTS

  1. ” यही वजह रही कि सरकार की चालों के आगे टिक नहीं पाए और स्त्री वेष में भागने की नौबत आ गई।”
    ऐसा लगता है की आप स्त्री विरोधी मानसिकता के है और उन्हें तथा उनके वस्त्रों को पुरुषों से हीन समझते है
    नारी के बारे में तो आपके विचार सामने आ गए जाति व्यवस्था पर आपके क्या विचार है

  2. गिरधर जी लेख के लिए धन्यवाद.
    आप जानते होंगे ही, कि,==>
    भ्रष्टाचारी सत्ताएँ, भी संगठित होती है. उनका प्रबंधन स्वार्थ या/एवं सत्ता आधारित होता है.
    एक बडा चोर, टुकडे फ़ेंक कर कई कुत्तों को
    भौंकने के काम में लगा देता है.
    मन्नू (गया अब कभी इस जन्म में सुना नहीं जाएगा), कन्नू चन्नू ऐसे कामों में लग कर एक बहुत बड़ा स्वार्थ प्रेरित संगठन खडा(?) कर देते हैं.
    कुछ जयचंद भी घुस जाते हैं.
    और जनता अपेक्षा कर रही है, कि अकेला अन्ना अनशन करे? अकेला अन्ना मरे?
    हमें भगवान ने क्या तालियाँ बजाने के लिए भेजा है?
    शुद्ध समर्पित युवाओं का संगठन आवश्यक होता है, ऐसे आन्दोलन के लिए, जैसा जय प्रकाश जी ने आपातकाल समाप्ति के लिए जुटाया था.
    जनता कपडे संभाल ने के लिए और क्या अकेला अन्ना सब कुछ करें?
    अकर्मण्ये S वाधिकारास्ते
    पर सर्व फलेषु सदाचन ||
    (हम )जनता तो कुछ नहीं करेगी, पर सारे फल चाहिए?
    हर कोई रिश्वत दे देता है, लेनेवाले को ही दोषी ठहराता है. क्या लेनेवाला देनेवालों के बिना ले सकता है?
    अन्य भिन्न मत रखनेवाली टिप्पणियों को पढ़ना चाहूंगा. मेरा लिखा पत्थर पर की लकीर न मानें|

  3. सभ्य समाज में कार्यरत उन्नतिशील उद्योग द्वारा अपनी उदार-उपभोक्ता-नीतियों के अंतर्गत अपने ग्राहकों और उपभोक्ताओं को कुछ ऐसे बताते हुए देखा गया है, “यदि आप हमारी व्योपारी सेवाओं और हमारे पदार्थों से संतुष्ट हैं तो औरों को बताएं और यदि आप असंतुष्ट हैं तो कृपया हमें बताएं?” दूसरी ओर प्रतिद्वंदी उद्योग ऐसे उन्नतिशील उद्योग से निपटने के लिए साम, दाम, दंड, भेद अपनाती उसकी कमियों को सड़क के चौराहे पर नंगा करने में कोई कसर नहीं छोड़ते| मेरे स्वयं के अनुभव में कभी कभी शत्रु मित्र से अधिक हितकारी हो सकता है जोकि मेरी कमियों व त्रुटियों को साक्षात् कर मुझे ठीक मार्ग अपनाने का अवसर प्रदान करता है| क्योंकि समाज में उद्योग और उपभोक्ता परस्पर अन्योन्याश्रित हैं, उपभोक्ता में उन्नतिशील उद्योग को ठीक से परखने और उसमें विश्वास बनाए रखनी की क्षमता होनी आवश्यक है| एक प्रकार से दोनों एक दूसरे का मार्ग दर्शन करते अपने लक्ष्य की ऊँचाइयों पर पहुँच समाज और देश को उन्नतिशील बनाने में सहायक हो सकते हैं| यहाँ प्रस्तुत मेरे दृष्टान्त में उन्नतिशील उद्योग “भारत पुनर्निर्माण” है और उपभोक्ता साधारण नागरिक हैं| आज देश उस रोगी के समान है जिसके सभी महत्वपूर्ण अंग रोग ग्रस्त हैं और उसका अंतिम श्वास ही उसकी आत्मा और शरीर को जोड़े हुए हैं

    स्वामी विवेकानंद जी के अनुसार हर कार्य को इन चरणों से गुजरना होता है—-उपहास, विरोध, और फिर स्वीकृति| जो समय से आगे की सोचते हैं उन्हें गलत समझा जाना निश्चित है| यह देश का सौभाग्य है कि वर्षों से वशिष्ट के ब्रह्मदंड का आचरण निभाती भारत की मूक जनता एक जुट हो सर्वव्यापी भ्रष्टता और अनैतिकता के विरोध में कुशल नेतृत्व के आह्वान में खड़ी है| अब महत्वपूर्ण स्थिति यह है कि क्या आज भारत पुनर्निर्माण में जुटे अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, सुब्रमण्यम स्वामी व अन्य सभी राष्ट्रवादी इकाइयां उपहास व विरोध से विमुख हो जनता की स्वीकृति प्राप्त कर पायेंगे? व्यर्थ के वाद-विवाद से विमुक्त, जनता को संगठित हो राष्ट्रवादी तत्वों को बढावा देना ही होगा| इसी में उनकी भलाई है| इसी में देश की भलाई है|

  4. तेजवानी जी ,
    बहुत शानदार लेख है , बिना किसी भेदभाव या झुकाव के निक्ष्पक्ष रूप से वर्णन किया है …

  5. सब के अपना अपना स्वार्थ हैं ,बिना कुछ किये दूसरों के कन्धों पर चढ़ कर श्रेय लेने के लोगों में से ही कुछ लोग टीम अन्ना में शामिल हो गए हैं.अन्ना उनके दावपेंचों से परिचित नहीं है.कुछ ऐसे हैं जो खुद आगे रहकर दूसरों को पीछे ही रखना चाहते हैं.कुछ ऐसे हैं जो अपना महत्व बनते न देख पिछले दरवाजे से सरकार के हाथों बिक चुके हैं.बाबा तो खेर खाए खेलें हैं, पर उनका भी पूर्वानुमान गलत निकला ,और आगे भी यह सम्भावना है.सतान्शीनों से लोहा लेना बड़ा मुश्किल है,विशेषकर तब जब की उनके खुद का स्वार्थ निहित हो.सब राजनेता कुछ को छोड़कर भ्रस्त हैं ,काले धन के स्वामी हैं,कुछ प्रतिशत अपराधी भी हैं ही,अतएव इनका सामना तो स्वार्थों से उपर उठकर ही किया जा सकता है.अब जब इनमें ही फूट पद गयी हैं तो कुछ खास अपेक्षा नहीं रखनी चाहिए ,इधर जनता का भी भ्रम अब कुछ कम होने लगा है इसलिए उसे भी संभाले रखना जरूरी है.

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