जल्दी ही बनेगा अतिथि संख्या और भोजन-प्रकार नियंत्रण कानून

क्या भारत को पाकिस्तान से प्रेरित होकर कुछ करना चाहिए ,निशचय ही हम में से अधिकांश का उत्तर ना में होगा |लेकिन इस विषय में कुछ ऐसा ही है कि जो पाकिस्तान ने किया है और इस बार वह नापाक नहीं नेक है और हमे उसका अनुसरण करना चाहिए | विगत दिनों हमारे देश में भी इस परिपेक्ष्य में केंद्रीय स्तर पर विचार-विमर्श हुआ |चर्चा का केंद्र पाकिस्तान का वन –डिश कानून है, जो सार्वजनिक और व्यक्तिगत समरोह में भोजन-पानी की बर्बादी रोकने का एक सटीक उपाय है | इस नियम के तहत विवाह एवं अन्य समारोहों में अतिथि और भोजन-प्रकार की मात्र निर्धारित करने पर जोर है | अब इन आयोजनों में सिर्फ एक-एक प्रकार की रसेदार सब्जी ,रोटी ,चावल ,मिठाई के साथ गर्म और ठण्ड पेय दिया जायेगा|हमारे देश कि भांति ही पाकिस्तान में भी सुप्रीम कोर्ट ने सरकार पर दवाब डालकर इस नियम का पालन सुनिश्चित करने का आदेश दिया है |

यह सब भारत के लिए भी अति अवशक है जहाँ वैश्विक संस्थाओं के आंकलन के मुताबिक लगभग चौतीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करते है, ऐसे लोगों कीसबसे बड़ी चुनौती भरपेट भोजन प्राप्त करने की है ताकि अगले दिन मजदूरी पर श्रम करनेलायक शक्ती और नींद मिल सके |इस सब में पौष्टिकता क्या होती इस का भान भी नहीं होता है पहल उद्देशय भूख मिटाने के लिए दो जून की रोटी है |अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के सर्वेक्षणों में भोजन –पानी की उपलब्धता के मामले में हमारी स्तिथि बहुत अच्छी नहीं है ,हमसे सशक्त तो चीन है जहाँ भोजन –पानी की उपलब्धता भारत की तुलना में कई गुन बेहतर है,जबकि आज वो जनसँख्या के लिहाज से शीर्ष पर है |

आजादी के समय हम लगभग बत्त्तीस करोड़ थे और तब खेत ,किसान ,खलिहान सब समृद्ध थे और पर्याप्त मात्रा में भी थे |अब जबकि २०११ की जनगणना हमें एक सौ इक्कीस करोड़ के आंकडे पर ले आयी है इस संख्या में दिन दुनी रात चौगुनी तरक्क्की होना तय है |दो हजार पचीस में हम जनसँख्या के हिसाब से दुनिया में शीर्ष पर होंगे ,चीन को पीछे छोड़ कर | लेकिन चिंता इस बात की है कि अब हमरे भोजन-पानी के स्त्रोत उतने सशक्त नहीं बचे है ,कि हम आंख मूंदकर उनके भरोसे बैठे रहें | मानव शक्ती का तो विकल्प है पर मानव शक्तीस्त्रोत भोजन का कोई विकल्प नहीं है| इसलिए आज से ही हमें भोजन-पानी की बर्बादी रोकने पर ध्यान देना होगा नहीं तो हम जिस दशा में होंगे वो अति भयावह होगी |

गांव, शहर ,जिलों और राज्यों की मानसिकता में बटा यह भारत आज भी खेती किसानी और भोजन –पानी की उपलब्धता के संदर्भ में एक सर्वव्यापी एवं सर्व लाभकारी ,ऐसी नीति की खोज में है जो अखिल भारतीय स्तर पर सब को स्वीकार्य हो |अभी भी राज्यों में नदी और भूमि को लेकर इस हद तक वैमनस्यता है कि कई बार ऐसा लगता है कि दो कट्टर दुशमन देश भी ऐसे नहीं लड़ते होंगे ,जैसे हमारे राज्यों के राजनितिक दल और उनकी सरकारें लड़ती है |

इस भोजन-पानी की बर्बादी में हमारा आपका योगदान भी कम नहीं है ,पिछले पच्चीस –तीस वर्षों के दौरान हमने पंगत में बैठकर भोजन करने की भारतीय पध्दति को छोड़ कर स्वरुचि भोज के रूप में बुफे सिस्टम को अपना लिया है | यह पध्दति पंगत की तुलना में भोजन और पानी की बर्बादी ज्यादा करती है |हमें बुफे सिस्टम में पश्चिम की नक़ल तो कर ली लेकिन इस सिस्टम से होने वाली बर्बादी को रोकने की अकल नहीं जुटा पाये|

आज देश में हर आमो-खास शादी पार्टियों में लगभग बीस से तीस प्रतिशत भोजन और लगभग पैंतीस से चालीस प्रतिशत पानी बड़ी निर्लज्जता से जूठान और गंदगी के रूप में फ़ेंक दिया जाता है| इन मह्त्वपूर्ण एवं अवाशक वस्तुओं का अपव्यय करते समय हम गंभीर नहीं है और ना ही उनकी सोच रहें है जो भूखे पेट गुजर करने को मजबूर है |उनकी नियति के साथ हमारे लापरवाही और खान –पान का कुप्रबंधन इन हालातों के लिए जवाबदेह है |हम अपने धन वैभव का प्रदर्शन इतनी क्रूरता से कर रहें है कि हमें यह ध्यान भी नहीं आता कि हमारे ही कुछ देश वासी भूख से संघर्ष कर रहें किन्तु उन्हें सब प्रयासों के बाद भी रोटी नहीं मिल पा रही है| अंग्रेजी में इंसानों को मेनकाइंड कहते है पर ऐसा लगता है कि मेन अब काइंड अर्थात दयालु नहीं रहा गया है|सब को रोटी –पानी मिले यह सिर्फ सरकारों का ही जिम्मा नहीं है अपितु यह हम सब की नैतिक जिम्मेदारी है,जो शायद हम नहीं निभा पा रहें है |

मांग और आपूर्ति के बढ़ता अंतर इस लापरवाही और बर्बादी का ही नतीजा है और इस बढे अंतर ने महगाई की आग में और घी डाल दिया है |अभी तो इस आग से सिर्फ गरीब वर्ग जल –झुलस रहा है,किन्तु यदि खान-पान के हमारें तौर-तरीके और आदतें नहीं बदली तो अगला क्रम देश के बहुसंख्यक मध्यम वर्ग का ही होगा |

हाल ही में भारत की शीर्ष न्यायलय ने भी सरकार से कहा है कि देश में कुपोषण और भूख से होने वाली मौतों पर रोक लगाने के लिए सरकार को शीघ्र ही उचित प्रयास करने चाहिए |

इस सम्बन्ध में कानून बंनाने से ही भोजन -पानी का अपव्यय रोका जा सकता है|अतिथियों की नियंत्रित संख्या और भोजन प्रकार की निश्चित संख्या ही इस बीमारी का ठोस इलाज है | वैभव प्रदर्शन के दौरान भोजन की बर्बादी इस देश में एक कुरीति के रूप में जड़ जमा चुकी है और इससे भी अन्य कुरितियों की भांति कानूनी हथियार से ही लड़ना पड़ेगा| देश के कानून बनाने वालों ने सही दिशा में सार्थक प्रयास किये है ,प्रतीक्षा अब परिणाम पाने की है| लेकिन जब तक सरकार कानून निर्धारण करें तब तक सामाजिक स्तर पर तो शुरुआत की ही जा सकती है यदि ऐसी हमारी आदत और सोच बन गयी तो इस पर बने कानून का पालन भी सहजता से हो सकेगा|

 

2 COMMENTS

  1. इस भोजन-पानी की बर्बादी में हमारा आपका योगदान भी कम नहीं है ,पिछले पच्चीस –तीस वर्षों के दौरान हमने पंगत में बैठकर भोजन करने की भारतीय पध्दति को छोड़ कर स्वरुचि भोज के रूप में बुफे सिस्टम को अपना लिया है | यह पध्दति पंगत की तुलना में भोजन और पानी की बर्बादी ज्यादा करती है |हमें बुफे सिस्टम में पश्चिम की नक़ल तो कर ली लेकिन इस सिस्टम से होने वाली बर्बादी को रोकने की अकल नहीं जुटा पाये|

    आज देश में हर आमो-खास शादी पार्टियों में लगभग बीस से तीस प्रतिशत भोजन और लगभग पैंतीस से चालीस प्रतिशत पानी बड़ी निर्लज्जता से जूठान और गंदगी के रूप में फ़ेंक दिया जाता है|
    दावतों में विविधता भारत की बढाती सम्पन्नता को दर्शाता है.कोई भी कानून केवल भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा |यदि खान-पान के हमारें तौर-तरीके और आदतें नहीं बदली तो अगला क्रम देश के बहुसंख्यक मध्यम वर्ग का ही होगा |

  2. कृपया इस विषय को लोगों की निजी पसंद पर ही छोड़ दें.६० के दशक में जब खद्यान्न का संकट था तब यह कानून उचित लगता था लेकिन अब जब देश में किसी बात की कमी नहीं है और देश तेज़ आर्थिक विकास कर रहा है तब इस प्रकार के बेकार के कानून बनाकर क्या हासिल होगा ?दावतों में विविधता भारत की बढाती सम्पन्नता को दर्शाता है.कोई भी कानून केवल भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here