हारी जीत या जीती हार

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 जावेद उस्मानी

अन्ना हजारे का हालिया फैसला जेरे बहस है। अब उनकी तैयारी सियासी मैदान में भ्रष्टाचार विरोधी जंग लड़ने की हैं। इसकी रणनीति पर्दे के पीछे है फिलहाल तो केवल अटकले हैं। लेकिन टीम अन्ना का चोला बदलने का निर्णय समान्यतौर पर हैरत अंगेज माना जा रहा है। अचानक ऐसा क्या हुआ जो उन्होने अपना पूरा रुख बदल दिया? जब लोग कम आ रहे थे तो अनशन था जब भीड़ हुर्इ तो सियासत से तौबा तोड़, खुद मैदान खाली दिया। यहां तक कि, लोगो को जिस तरह से पता चला था कि एक टीम अन्ना है, जो भ्रष्टाचार से निर्णायक लड़ार्इ के लिए संकलिपत हैं। उसी तरह से मालूम हुआ की इस टीम को अन्ना ने भंग दिया है। अब वे अपने बूते देशव्यापी अलख जागने का इरादा रखते है। लेकिन मजे हुए नेता की तरह उन्होने भी दरवाजा पूरी तरह से बंद नही किया है। उनके आंदोलन के साथी कोर्इ बेहतर फार्मूला लाते है तो वे नयी टीम के साथ रहनुमार्इ के लिए तैयार हैं। यह एक तरह से दोनो हाथो मे लडडू वाली सुविचारित योजना है। जिसका लक्ष्य किसी न किसी बहाने अपने वजूद को चर्चा में बनाये रखना है। पर इसके लिए जो रास्ता अखितयार किया गया है। वह अपने आप में पहेली से कम नही हैं। दिल्ली के रामलीला मैदान हुए हालिया अनशन और उसका हश्र सबके सामने है। यह मैदान अनेक ऐतेहासिक राजनैतिक गतिविधियो का गवाह रहा है। लेकिन अन्ना के आंदोलन को मिले समर्थन और हुर्इ आलोचना अपने में अजीब घटना है। जिस पर न हसा जा सकता है न रोया जा सकता हैं।

आम तौर पर माना जाता है कि सुविधानुसार रंग बदलना सियासी फितरत है। पर यहां तो नाविक ही मझधार में मुसाफिरो को पतवार थमा कर जिस तरह रुखसत हुए है उसे लोग अपने अपने हिसाब से देख रहे हैं। राजनैतिक लोगो की बांछे खिली हुर्इ है। उनके मन मांगी मुराद पूरी हो गयी है। कुछ देर से ही सही उन्हे गैर राजनीतिवाद का तिया-पांचा करने सुनहरा अवसर मिल गया है। उनकी सलतनत में दखल देने वाले खुद उनकी बिरादरी में शामिल होने का एलान करते हुए मैदान से हट चुके है। अब लोकपाल पर जो होगा, उनकी मर्जी से हुआ माना जायेगा। इसको लेकर हुर्इ गैर राजनैतिक गोलबंदी सदमे में है। राजनैतिक विकल्प देने के ऐलान से सियासत को कोसने का एक बेहतरीन मौका उनके हाथो से निकल गया है। अन्ना समर्थक युवाओ में दूख भरा गुस्सा है। उनका गम वाजिब है क्योकि निस्वार्थ भाव से जिसकी टोपी पहनकर वे मजबूती के साथ, पीछे खडे़ थे। उस टोपी को बिना उनकी सहमति लिए सियासत को सौप कर एक तरह से उन्हे विकल्पहीन बना दिया गया है। वर्तमान राजनीति के हथकंडो से उबकर गैरराजनीति की ओर आकृष्ट इस समर्थक वर्ग के पास फिलहाल,अन्ना आंदोलन के नाम पर ताने सुनने से ज्यादा कुछ नही है। अत: उनकी हताशा स्वाभविक हैं। अफसोस तो अन्ना को राजनिति का कसीदा पढ़ाने वालो को भी है। हजारे की राजनीति व पार्टी को लेकर उधेड़बुन ने इन लोगो के चुनावी सौदागिरी का ख्वाव का गला घोट दिया है। इस आंदोलन को जो प्रचार मिला, वह दुलर्भ है। परिवर्तन की प्रत्याशा या सियासतदानो को सबक सिखाने के प्रयास में, इस टीम को काफी हद तक तवज्जह देने वाला मिडिया भी हतप्रभ है। उनके सच्चे सहयोग को भी टीम अन्ना ने वह मान नही दिया जिसके वे हकदार थे। एक नजरिये से इस दशक का सबसे चर्चित नाकामयाब आन्दोलन है क्योकि इस आंदोलन को हर वह समर्थन मिला जो कामयाबी के लिए जरुरी था। लेकिन ‘हमारे सिवा कोर्इ नही’ की समझ ने इसे ऐसे मुकाम पर पहुचा दिया है कि जहां बहुत कम समय में शुन्य से शिखर तक का सफर तय करना हैं। जो तत्कालिक प्रतिकि्रयाओ को देखकर संभव नही लगता हैं। लोग जिस तेजी के साथ इस मुहिम के साथ जुटे थे उसी गति से उनका मोह भंग हुआ है।

इस ताजे सियासी कारनामें से लड़ने वाली जमात को कम धक्का नही पहुचा है। पिछले साल पुलिस ज्यदती से बचाने के लिए अनशनरत बाबा रामदेव की छुपने की कोशिश पर उनके विरोधी जमकर हसे थे। उस समय लोगो को इतनी निराशा ने नही घेरा था क्योकि तब अन्ना विकल्प था। इस बार खुद अन्ना शांतिपूर्ण आंदोलनो पर सवालिया निशान लगा गये है। उनके अनुसार जब सुनवार्इ नही है तो संघर्ष से फायदा क्या है? सरकार के झूकने तक अपनी लड़ार्इ जारी रखने का दावा करते रहने के बाद इस इलहाम का औचित्य लोगो की समझ से परे है। अपनी डगर या हठ छोड़कर, राजनैतिक विकल्प देने की धोषणा करने वाली टीम ने रामलीला मैदान से विदा होने के पहले जाने अनजाने बाबा रामदेव के लिए परेशानी पैदा कर दी हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को लेकर दोनो आंदोलन समूह में मतभेद पहले से देखने में आ रहा था। अन्ना दल की कारस्तानी से अन्य आंदोलन के रहनुमाओ के प्रति आम लोगो के मन में अविश्वास बढ़ा है। इसका असर रामलीला मैदान में, 9 अगस्त से आरंभ होने बाबा के अभियान पर पड़ना स्वाभविक हैं। हालात भांपकर उन्होने भी प्रस्तावित आंदोलन की रुप रेखा में काफी बदलाव कर दिया हैं। अनशन के साथ धरना- प्रदर्शन का कार्यक्रम हैं। गौरतलब है कि उनकी मुहिम भी बहुप्रचारित हैं। हर नकलो हरकत पर लोगो की नजर रहेगी। इससे उनकी जिम्मेदारी भी बढ़ी है क्योकि इस बार तुलना का मानक सरकार नही टीम अन्ना है। जिसके हालिया कारनामे ने आंदोलनो को कटघरे में खड़ा कर दिया है।

शायद अन्ना के सलाहकारो की समझ यह है कि उन लोगो ने अनशन का त्याग करके, उन्हे नही सुनने वाली सत्ता और संसद को नंगा कर दिया है और इसी बहाने वे राजनीति के नाम पर जनतांत्रिक प्रणाली व निर्वाचित जन प्रतिनिधियो के खिलाफ समूचे देश में विषवमन करेगे तो वे एकबार फिर लोकतांत्रिक मूल्यो को कमजोर करने का काम करेगे। क्योकि लोकतांत्रिक प्रकि्रया एक अस्था है। जिसके प्रति निराशा हमेशा नुकसानदेह रही है। हल्ला बोलने से भले ही तत्कालिक लाभ दिखे लेकिन ऐसी हरकतो से अप्रत्यक्ष रुप में लोकतंत्र कुठित होता है। सठ के साथ सठ की भाषा, भ्रष्टाचार के विरुद्ध लड़ार्इ का औजार नही हो सकती है। क्योकि इसके भी तार वही जुड़े है जिससे उब कर लोग विकल्प की तलाश में हैं। चाकू खरबूजे पर गिरे या खरबूजा चाकू पर बात एक ही होती है। निर्वाचित जन प्रतिनिधि स्वार्थ की रोटी सेकने के लिए भ्रष्टाचार का इस्तेमाल करे या गैर राजनीति इसे रोकने के नाम पर लोकतांत्रिक प्रकि्रया को खोखला बताये, दोनो अवाम को कमजोर बनाते है। बुरार्इ के अंत के लिए अच्छार्इ ही सर्वोतम विकल्प है। नेकी के लिए भी बदी का सूत्र मर्यादित अस्त्र नही है।

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