चिर विजय की कामना ही राष्ट्र का आधार है

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जीवन का हर काम वस्तुतः एक युद्धक्षेत्र ही है। पढ़ना हो या पढ़ाना; व्यापार हो या नौकरी; खेती हो या उद्योग का संचालन। सफल होने के लिए मन में विजय प्राप्ति की प्रबल कामना होना आवश्यक है। अन्यथा पर्याप्त साधन और अनुकूल वातावरण होने पर भी सफलता पास आते-आते दूर चली जाती है। इस बारे में कुछ कहानियों और कुछ वास्तविक घटनाओं की चर्चा करना उचित रहेगा।

कहते हैं कि एक राजा का पड़ोसी राजा से किसी बात पर भारी विवाद हो गया। उन दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं तो थी नहीं। अतः दोनों ने युद्ध के मैदान में विवाद निबटाने का निर्णय किया। पहले राजा की शक्ति कम थी और दूसरे की अधिक। अतः पहले राजा के सैनिकों के मन में सफलता के लिए संशय था। राजा ने यह भांपकर एक युक्ति अपनायी।

जब उसने युद्ध के लिए प्रस्थान किया, तो सबसे पहले वह सेना सहित अपनी कुलदेवी के मंदिर में गया। वहां उसने अपनी जेब से धातु का एक सिक्का निकालकर सैनिकों को दिखाया। उसमें एक ओर राजमुद्रा बनी थी तथा दूसरी ओर कुछ नहीं। उसने सैनिकों को सम्बोधित करते हुए कहा कि मैं कुलदेवी की पूजा करने के बाद यह सिक्का उछालूंगा। यदि राजमुद्रा का निशान ऊपर हुआ, तो हमारी विजय सुनिश्चित है। यदि ऐसा न हुआ, तो हम युद्ध में नहीं जाएंगे।

सब सैनिक चुप रहे। राजा ने मंदिर में जाकर पूजा की। फिर बाहर आकर सबके सामने उसने सिक्का उछाला। सब सैनिकों ने उत्सुकता से देखा, राजमुद्रा ऊपर की ओर थी। बस, फिर क्या था। सब उत्साह से लबालब हो उठे। उन्होंने उच्च मनोबल के साथ युद्ध किया और संख्या में कम होने के बावजूद शत्रु को पराजित कर दिया।

कहानी सामान्य सी है; पर इसका दूसरा पक्ष यह है कि राजा की जेब में वस्तुतः दो सिक्के थे। पहला सिक्का तो वही था, जो उसने सैनिकों को दिखाया था; पर दूसरे सिक्के के दोनों ओर राजमुद्रा बनी थी, और उसने मंदिर से बाहर आकर सैनिकों के सम्मुख उस दूसरे सिक्के को ही उछाला था। यह रहस्य केवल राजा को ही पता था; पर इस छोटी सी चाल से सैनिकों का मनोबल बढ़ गया और वे युद्ध में जीत गये।

दूसरी कहानी भी कुछ-कुछ ऐसी ही है। उसमें एक राजा  ने अपनी सीमाओं के विस्तार के लिए पड़ोसी राजा पर आक्रमण करने की ठानी। उसके प्रधानमंत्री और सेनापति इस पक्ष में नहीं थी, क्योंकि पड़ोसी की शक्ति अधिक थी; पर अपने राजा की जिद के आगे वे मजबूर थे। जब यह राजा पड़ोसी की सीमा में घुस कर घोड़े से उतरा, तो वहां की कीचड़युक्त चिकनी धरती पर पैर रखते ही वह लड़खड़ा गया। उसने अपने दाहिने हाथ को धरती पर टिकाया और उसका सहारा लेकर खड़ा हो गया।

सभी सैनिकों ने राजा के गिरने को अपशकुन माना। उनके चेहरे की घबराहट देखकर राजा उठा और बोला, ‘‘यहां पैर रखते ही मेरे हाथ की राजमुद्रा की छाप इस धरती पर लग गयी है। अर्थात यह क्षेत्र तो हमारा हो ही गया। अब युद्ध तो एक औपचारिकता मात्र है। इसलिए हिम्मत से आगे बढ़ो। विजय सुनिश्चित है।’’

सैनिकों ने ध्यान से देखा तो पाया कि सचमुच धरती पर राजमुद्रा की छाप लगी है। वस्तुतः राजा जब हाथ का सहारा लेकर खड़ा हुआ, तब यह छाप उस कीचड़युक्त धरती पर लग गयी थी। राजा ने इस घटना की जो व्याख्या की, उससे सैनिकों का मनोबल बढ़ गया और कम संख्या होने पर भी वे युद्ध जीत गये।

पर ऐसी घटनाएं केवल कहानियां ही नहीं हैं। शिवाजी के वीर सेनानी तानाजी मालसुरे को याद करें। जब वे कोंडाणा दुर्ग को जीतने के लिए गये, तो अपने वीर सैनिकों के साथ मोटे रस्सों की सहायता से पीेछे की ओर से दुर्ग पर चढ़े। यह मार्ग बहुत दुर्गम था। इससे कोई आ सकता है, इसकी कल्पना तक मुगलों को नहीं थी। अतः यहां पर सुरक्षा का भी कुछ खास प्रबंध नहीं था। इसीलिए तानाजी ने यह मार्ग चुना।

जब युद्ध होने लगा, तो उसकी भीषणता देखकर कुछ सैनिक घबरा गये। वे उन रस्सों से ही वापस लौटने पर विचार करने लगे। यह देखकर तानाजी के साथी सूर्याजी ने वे सब रस्से काट दिये। फिर वे गरज कर बोले कि यदि दुर्ग से कूदे, तो मृत्यु निश्चित है। इसलिए अब लड़ते हुए जीतकर अपने घर पहुंचना या वीरगति पाना ही एकमात्र विकल्प है।

उनकी यह गर्जना सुनकर सैनिकों में वीरता का संचार हुआ और वे जीवन का मोह छोड़कर लड़ने लगे। यद्यपि इस युद्ध में सेनापति तानाजी मालसुरे का बलिदान हुआ, पर कोंडाणा दुर्ग शिवाजी को मिल गया। शिवाजी ने कहा – गढ़ आया, पर सिंह गया। तब से वह दुर्ग ‘सिंहगढ़’ के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

ऐसी कई कथाएं हमने पढ़ी और सुनी हैं, जो बताती हैं कि किसी भी युद्ध में सेनापति और सैनिकों के मनोबल अर्थात ‘विजय वृत्ति’ का बड़ा भारी महत्व है। इस वृत्ति के कारण ही मुगलों के अधीन एक छोटे जागीरदार के पुत्र होते हुए भी छत्रपति शिवाजी ने हिन्दू पद पादशाही की स्थापना की और बाजीराव पेशवा ने अपने जीवन में हर युद्ध को जीता।

वीर सावरकर को जब दो आजीवन कारावास (50 साल की जेल) का दंड दिया गया, तो अंग्रेज अधिकारी ने हंसकर कहा कि अब तुम्हारा पूरा जीवन अंदमान में ही बीतेगा। इस पर सावरकर ने विश्वासपूर्वक कहा कि तुम मेरी नहीं, अपने साम्राज्य की चिंता करो, चूंकि यह अगले 50 साल तक भारत में टिकने वाला नहीं है।

इस ‘विजय वृत्ति’ के चलते पिछले लोकसभा (और अभी सम्पन्न हुए महाराष्ट्र तथा हरियाणा के विधानसभा चुनाव) में नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भा.ज.पा. को भारी सफलता मिली और सभी विरोधी चारों खाने चित हो गये। नरेन्द्र मोदी ने अपनी ओर फेंके गये हर पत्थर को कुशलतापूर्वक लपक कर उससे विरोधियों का ही सिर फोड़ दिया।

1947 में जब पाकिस्तान ने कश्मीर पर हमला बोला, तो हमारे वीर सैनिक मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे; पर कायर नेतृत्व के कारण हम जीती हुई बाजी हार गये। ऐसा ही 1962 में हुआ। साधनों का अभाव होते हुए भी हमारे सैनिकों का मनोबल ऊंचा था; पर प्रधानमंत्री नेहरू में ‘विजय वृत्ति’ न होने के कारण हमें चीन के विरुद्ध पराजय का मुख देखना पड़ा।

लेकिन 1965, 1971 और 1999 में ऐसा नहीं हुआ। इस दौरान श्री लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी और अटल बिहारी वाजपेयी का मनोबल ऊंचा था। इसलिए पाकिस्तान को धूल चाटनी पड़ी। इस पराजय के बाद पाकिस्तान समझ गया कि वह भारत को सीधे युद्ध में नहीं जीत सकता। अतः उसने छद्म युद्ध का रास्ता पकड़ लिया है। बांगलादेश भी लगातार घुसपैठिये भेजकर इसमें सहयोग कर रहा है। इस युद्ध से और देश भर में व्याप्त मजहबी आतंकवाद से इसी विजय वृत्ति के साथ लड़ना होगा।

नरेन्द्र मोदी का अब तक का हर काम उनके उच्च मनोबल का दिग्दर्शक है। संयुक्त राष्ट्र संघ में प्रवास के समय अमरीकी राष्ट्रपति की आंख में आंख डालकर उन्होंने जैसे बात की है, उसे पूरा विश्व आश्चर्य से देख रहा है। भारतवासी और दुनिया भर में बसे भारतवंशी तो इससे गद्गद हैं ही।

भारतीय राजा प्रतिवर्ष विजयादशमी के पर्व पर सीमोल्लंघन करते थे। भले ही वह एक औपचारिकता मात्र होती थी; पर अब हमें इसकी वास्तविक आवश्यकता है। आशा है पाकिस्तान द्वारा चलाये जा रहे इस छद्म युद्ध के मोर्चे पर भी नरेन्द्र मोदी देश को निराश नहीं करेंगे।

1 COMMENT

  1. अच्छा आलेख स्पिरिट में .लेकिन सुधार दें मोगलाई नहीं आदिलशाही का अंग था कोंडाना .

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