प्रसिद्द अधिवक्ता व टीम अन्ना के सदस्य प्रशांत भूषण पर उनके सर्वोच्च न्यायालय के परिसर के कार्यालय में हुआ दुर्व्यवहार और हाथापाई के समाचार से सारा देश स्तब्ध सा रह गया. अचानक हुए इस हमले कि किसी को भी आशा तक नहीं थी. देश का संविधान, विधि-विधान और भारतीय सभ्यता इस प्रकार के कृत की कतई भी अनुमति नहीं देतें हैं, इसीलिये सभी ने इसकी पुरजोर भर्त्सना की है. कानून को अपने हाथ में लेने की किसी भी नागरिक को इजाजत नहीं है. परन्तु इस प्रकार के कृत हमारे समक्ष अनेक प्रश्न खड़े करता है जिनके उत्तर हमें इस सारे घटनाक्रम और इसकी पृष्ठभूमि से ही तलाशने होंगे.
सारे देश ने समाचार चैनलों पर पहले प्रशांत भूषण से हाथापाई के दृश्य देखे जिसकी हम भी कड़े शब्दों में निंदा करते हैं परन्तु पकडे गए एक नवयुवक के साथ जिस प्रकार से मारपीट की गई जिसके कारण उसके चेहरे पर अनेक घाव और उनसे बहता रक्त भी सभी ने देखा. अब प्रश्न उठता है कि क्या हिंसा के पश्चात् किसी भी प्रकार की प्रतिहिंसा को हमारा सभ्य समाज और इस देश का कानून इजाजत देता है ? यदि नहीं तो उस पकडे गए नवयुवक के साथ मारपीट करनेवालों के विरुद्ध दिल्ली पुलिस ने क्यूँ नहीं कोई कारवाई की ? इस सारे वृतांत पर देश की जागरूक और तथाकथित सेकुलर मीडिया चुप क्यूँ है ? देशद्रोहीयों, आतंकवादियों, नक्सलवादियों, माओवादियों, माफिया और नाना प्रकार के गैरकानूनी कार्यों में लिप्त अपराधियों और समाज के अन्य वर्गों के मानव अधिकारों के लिए आवाज उठानेवाले विभिन्न संगठनों और पैरवीकारों, जिसमें स्वयं प्रशांत भूषण भी शामिल हैं, से इस देश का हर एक जागरूक नागरिक जानना चाहता है कि क्या हिंसा करनेवाले उस नवयुवक के साथ बाद में होने वाली प्रतिहिंसा से क्या उसके मानव अधिकारों का उल्लंघन नहीं हुआ है ?
उस नवयुवक द्वारा प्रशांत भूषण से की गई हाथापाई या इस प्रकार के विधि के विरूद्ध किये गए किसी भी कार्य का मैं समर्थन नहीं करता परन्तु इतना तो स्पष्ट है कि समाचार चैनलों पर दिखाए गए उस नवयुवक की पिटाई के दृश्यों को अपने बचाव में की गई कारवाई भी तो कतई नहीं कहा जा सकता. तो क्या देश का कानून और मानव अधिकार इस प्रकार से उस नवयुवक कि की गई पिटाई कि अनुमति देता है ? जिस प्रकार आस्था और भावना में बहकर कानून कोई निर्णय नहीं करता उसी प्रकार आस्था और भावना के सामने कानून कोई महत्व नहीं रखता और इसका जीता-जागता उदाहरण स्वयं प्रशांत ने पेश किया जब गिरफ्त में आये उस नवयुवक के साथ प्रतिहिंसा की गई. न तो उन नवयुवकों का प्रशांत से और न ही प्रशांत का उस नवयुवक से किसी भी प्रकार का कोई व्यक्तिगत बैर या वैमनस्य था. दोनों ने ही भावावेश हो गलत कार्य किया और कानून को अपने हाथ में लिया. मानवाधिकार के मुकद्दमों की पैरवी करनेवाले प्रशांत भूषण से तो ऐसा आशा नहीं की जा सकती. इतना ही नहीं कुछ लोगों ने तो प्रशांत पर देश द्रोह का मुकदमा चलाये जाने की मांग तक की है.
चलिए अब इस घटना की पृष्ठभूमि में चलते हैं और यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि इस सारे प्रकरण का बीजारोपण कहाँ से हुआ ? प्रशांत भूषण जनमत-संग्रह के बहुत बड़े पक्षधर हैं और रामलीला मैदान में जन-लोकपाल के लिए अन्ना के अनशन और नौ दिन चले देशव्यापी जनआन्दोलन के दौरान दिए गए एक साक्षात्कार में भी उन्होंने जन-लोकपाल बिल के लिए जनमत-संग्रह (Referendum) कराये जाने की मांग की थी. देश के संविधान में जनमत संग्रह कराने का कोई प्रावधान नहीं है तो इस पर प्रशांत का कहना था कि ठीक है, पर जनमत संग्रह नहीं करवाया जा सकता..ऐसा भी तो नहीं लिखा है संविधान में. उनका यह तर्क बहुत ही हास्यास्पद है. किसी भी चौराहे के मध्य में No Parking या वाहन खड़ा करना मना है जैसा कोई सन्देश नहीं लिखा रहता है तो क्या इसका अर्थ यह हुआ कि हम अपना वाहन वहाँ खड़ा कर सकते हैं ? हर मसले को किसी मुक़दमे की पैरवी समझ जिरह करना और कानूनी तर्क देना अदालत से बाहर नहीं चलता.
वाराणसी में बीते सितंबर में पराड़कर स्मृति भवन में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान टीम अन्ना के प्रमुख सदस्य और वकील प्रशांत भूषण ने कहा था कि सेना के दम पर कश्मीरियों को बहुत दिनों तक दबाव में रखना सही नहीं है. कश्मीर से सैना हटाने और कश्मीरियों को उनका भविष्य तय करने के लिए उन्होंने जनमत संग्रह करने का मशवरा भी दिया था ताकि यदि वह देश के साथ रहना चाहें तो रहें अन्यथा अलग होने को स्वतंत्र हों. उन्होंने यह भी कहा कि भारतीय सेना वहां पर अत्याचार कर रही है तथा AFSPA का भी विरोध किया था. देश की अखंडता, जाति, धर्मं या समुदाय जैसे संवेदनशील या अन्य ऐसे ही मुद्दे जो आस्था, विश्वास और भावना के कारण ही आपसी झगडे का कारण बनते हैं. इन विषयों पर तो सार्वजनिक तौर से कुछ भी कहने से बचना चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार हमें हमारे संविधान ने दिया है परन्तु वैचारिक स्वतंत्रता के साथ-साथ अभिव्यक्ति में सतर्कता परमावश्यक है.
कश्मीर को किसी भी शर्त पर विवादित कहना, समस्या कहना या अलग पहचान देने की बात कहना आज के समय में कूटनीतिक, राजनितिक और सामरिक दृष्टि से भारत की आत्मा को चोट पंहुचाने वाला है. कश्मीर का मसला इतना उलझा हुआ है कि इसपर किसी भी तरह की टीका-टिप्पणी से बाज आना चाहिए. प्रशांत भूषण को यह पता होना चाहिए कि कश्मीर के वर्तमान निवासियों की सोच के आधार पर कश्मीर का भविष्य तय नहीं किया जा सकता क्योंकि वर्तमान समय में कश्मीर रह रहे लोग ही कश्मीर की पहचान नहीं है. वर्तमान आबादी में तीस-पैंतीस वर्ष पूर्व कश्मीर घाटी से प्राण बचा कर देश के तमाम भागों में विस्थापित रूप से रह रहे कश्मीरी पंडितों की गिनती नहीं है. देश के किसी भी भाग से धर्म विशेष को मानने वालों की इस प्रकार की उठने वाली आवाज पर जनमत संग्रह करवाने की अनुमति दी जाने लगे तो देश की अखंडता का क्या होगा ? संघीय संरचना वाले लोकतान्त्रिक देश में जहाँ विभिन्न धर्मावलम्बी और विभिन्न भाषा वाले लोग रहते हैं वहाँ इस प्रकार की मांग बहुत ही खतरनाक है. विशेष धर्मावलम्बियों के अनुयाईयों की बहुलता वाले सीमान्त व तटीय प्रदेशों के लिए तो यह और गलत सन्देश होगा. क्या किसी राष्ट्र की भागौलिक और राष्ट्रीयता की पहचान उसके कुछ निवासियों की मर्जी से तय की जायेगी ? यदि इसी का नाम लोकतंत्र है तो शायद ऐसा लोकतंत्र राष्ट्र के लिए घातक सिद्ध होगा.
बनारस में बयान देने से पूर्व क्या प्रशांत ने इस सब विषयों पर गहराई से सोचा था ? कश्मीर की रक्षा के लिए देश के लाखों वीर सिपाही अपने प्राणों को न्योछावर कर चुके हैं. हजारों कश्मीरी पंडित वहाँ मारे भी गए और लाखों अपने प्राण बचा कर अपने ही देश में विस्थापित बन कर तम्बुओं में नारकीय जीवन गुजर-बसर कर रहे हैं. प्रशांत के इस विवादित वक्तव्य को जहाँ एक ओर अन्ना हजारे ने प्रशांत का व्यक्तिगत वक्तव्य माना है वहीँ दूसरी ओर भारत सरकार ने भी प्रशांत के इस विवादित वक्तव्य को गलत करार दिया है. देश हित और कश्मीरी पंडितों के कश्मीर में सम्मान व अधिकारपूर्वक पुनर्वास की राह तलाशने वाली शक्तिओं को प्रशांत के इस बयान से निसंदेह आघात पहुंचा है और राष्ट्रविरोधी शक्तियों को ताकत. देश की अखंडता को बचाए रखने के लिए विवादित विषयों पर अभिव्यक्ति की सतर्कता नितांत आवश्यक है.
प्रशांत भूषण के व्यान के इस भाग से मैं पूर्ण सहमत हूँ कि
“सेना के दम पर कश्मीरियों को बहुत दिनों तक दबाव में रखना सही नहीं है”
यह कहाँ का न्याय है और यह कौन सा प्रजातंत्रहै कि स्वतंत्र देश के एक या अधिक भूभाग के नागरिकों की एक नहीं अनेक पीढ़ियाँ अपने मौलिक अधिकारों से भी वंचित राखी जाएँ.मैं नहीं कहता कि जन मत संग्रह कराया जाए,पर इस समस्या का जल्द से जल्द समाधान ढूंढना भी आवश्यक है.