दीनदयाल उपाध्याय : जन्मशती के संकल्प 

0
166

-विजय कुमार-

deen dayal upadhyay

 

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ प्रचारक तथा भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष श्री दीनदयाल उपाध्याय का जन्मशती वर्ष 25 सितम्बर, 2015 से प्रारम्भ हो रहा है। उनका जन्म 25 सितम्बर, 1916 को राजस्थान में जयपुर-अजमेर मार्ग पर स्थित धनकिया गांव में हुआ था। जयपुर जिले में स्थित धनकिया रेलवे स्टेशन पर उनके नाना चुन्नीलाल जी स्टेशन मास्टर थे। दीनदयाल जी का पैतृक गांव नगला चंद्रभान उ.प्र. में मथुरा जिले के फरह विकास खंड में है।

गत 25 मई को अपनी सरकार की पहली वर्षगांठ पर नरेन्द्र मोदी ने नगला में एक विशाल रैली की। इसमें उन्होंने सरकार की एक वर्ष की उपलब्धियां बतायीं। रैली से पहले कुछ समाचार माध्यमों ने यह विषय उठाया कि नगला दीनदयाल जी का जन्मस्थान नहीं है; फिर मोदी ने रैली के लिए इसे क्यों चुना ? यद्यपि यह विषय दब गया और मोदी का भाषण ही सब तरफ छाया रहा।

पिछले 40-45 साल से नगला में दीनदयाल जी की जन्मतिथि (आश्विन कृष्ण 13) पर उनकी स्मृति में एक विशाल मेला होता है। इसका इतिहास भी बड़ा रोचक है। दीनदयाल जी के निधन के समय मथुरा में श्री शरद मेहरोत्रा संघ के जिला प्रचारक थे। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अनेक दायित्वों पर रहते हुए वे 1981 में मध्यभारत भेजे गये। 1985 में वे वहां प्रांत प्रचारक बने। दुर्भाग्यवश वे कैंसर से ग्रस्त हो गये और इसी के चलते 1993 में उनका निधन हुआ।

शरद जी बहुत कल्पनाशील व्यक्ति थे। उनके मन में यह विचार आया कि दीनदयाल जी की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए नगला में कुछ काम किया जाए। इसकी शुरुआत एक दिवसीय मेले से हुई। प्रारम्भ में मथुरा के लोग ही वहां जाते थे। जब शरद जी आगरा चले गये, तो उन्होंने आगरा वालों को भी इसमें जोड़ लिया। इससे मेले का स्वरूप बढ़ने लगा और अब तो वह एक सप्ताह तक फैल गया है।

मेले में खानपान, नाटक, तमाशा, दैनिक जरूरत की चीजों की बिक्री आदि के साथ ही कुश्ती और रसिया के दंगल, पशु प्रदर्शिनी, स्वस्थ बच्चों की प्रतियोगिता, कवि सम्मेलन तथा किसानों के लिए उपयोगी प्रदर्शिनियां आदि लगती हैं। बड़ी संख्या में राजनेता और मंत्री आदि वहां जाते हैं। अब तो मेले का संचालन मुख्यतः शासन की देखरेख में ही होता है; पर प्रारम्भ में पूरी व्यवस्था ‘दीनदयाल उपाध्याय जन्मभूमि स्मारक समिति’ के लोग ही करते थे।

समिति ने क्रमशः दीनदयाल जी की पैतृक झोपड़ी तथा आसपास की भूमि खरीदकर उसे एक स्मारक का रूप दे दिया; पर वह स्थान सड़क से काफी अंदर और छोटा है। अतः मथुरा-आगरा मार्ग पर भूमि खरीद कर वहां विद्यालय, चिकित्सालय तथा ग्राम्य विकास के अनेक प्रकल्प खोले गये। उसकी संचालन समिति में कई बड़े लोगों को  जोड़ा गया। अटल बिहारी वाजपेयी भी कई वर्ष तक उस समिति के अध्यक्ष रहे हैं। शताब्दी वर्ष में इस योजना में अनेक नये आयाम जुड़ेंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है।

मैंने कई प्रमुख लोगों से यह सुना है कि जब ये सब काम प्रारम्भ हुए, तो लोगों ने शरद जी से कहा कि दीनदयाल जी का जन्मस्थान तो धनकिया है ? इस पर शरद जी कहते थे कि तुम तो काम किये जाओे। धीरे-धीरे नगला का इतना प्रचार हो जाएगा कि लोग इसे ही उनका जन्मस्थान मान लेंगे। और सचमुच ऐसा ही हुआ। सुना है कि अब यह मथुरा जिले के सरकारी गजट में भी लिखा गया है। अब प्रधानमंत्री मोदी के आने से इस पर मुहर भी लग गयी है।

कहते हैं कि अधिकांश महान लोगों की महानता का पता उनके जाने के बहुत बाद लगता है। ऐसे लोगों के जन्म और मृत्यु के स्थान तथा तिथियों पर प्रायः कुछ मतभेद बने रहते हैं। सूरदास, तुलसीदास, चैतन्य महाप्रभु आदि के बारे में कई बातें प्रचलित हैं। दीनदयाल जी का प्रसंग तो बहुत ताजा है। उनकी मृत्यु 11 फरवरी, 1968 को मुगलसराय में हुई, इसमें कुछ संदेह नहीं है; पर उनका जन्मस्थान धनकिया है या नगला, इस असमंजस को जन्मशती वर्ष में दूर कर दिया जाना चाहिए। दीनदयाल जी के साथ रहे कई लोग अभी जीवित और सक्रिय हैं। वे भी इस बारे में बता सकते हैं। दीनदयाल जी की प्रारम्भिक शिक्षा राजस्थान में और फिर आगरा तथा कानपुर में हुई है। सभी स्थानों पर वे प्रथम श्रेणी में भी प्रथम आते थे। वहां के विद्यालयों से प्रमाण पत्र निकलवाये जा सकते हैं; पर जो भी हो, सही बात सामने आनी ही चाहिए।

उ.प्र. के प्रांत प्रचारक श्री भाऊराव देवरस की प्रेरणा से 31 अगस्त, 1947 (रक्षाबंधन) को लखनऊ में ‘राष्ट्रधर्म’ पत्रिका की स्थापना हुई थी। उसके पहले सम्पादक अटल जी थे। उसमें दीनदयाल जी के लेख प्रायः छपते थे। वह मासिक पत्रिका आज भी प्रकाशित हो रही है। वहां से दीनदयाल जी के सामने ही उनकी दो पुस्तकें ‘सम्राट चंद्रगुप्त’ तथा ‘जगद्गुरु श्री शंकराचार्य’ छपी थीं। अब वहां पुस्तक प्रकाशन का केन्द्र ‘लोकहित प्रकाशन’ भी है। उसने दीनदयाल जी के विचारों पर केन्द्रित कई पुस्तकें छापी हैं। उनमें से कई का सम्पादन भानुप्रताप शुक्ल तथा रामशंकर अग्निहोत्री ने किया है। ये दोनों मासिक ‘राष्ट्रधर्म’ तथा साप्ताहिक ‘पांचजन्य’ के सम्पादक रह चुके हैं। उन सबमें तथा राष्ट्रधर्म के पूर्व सम्पादक वीरेश्वर द्विवेदी द्वारा लिखित पुस्तक ‘संघ नींव में विसर्जित’ में भी दीनदयाल जी का जन्मस्थान धनकिया ही लिखा है।

एक बात और भी विचारणीय है। क्या धनकिया जन्मस्थान सिद्ध होने से दीनदयाल जी की महत्ता कुछ कम हो जाएगी; या इससे मथुरा और उत्तर प्रदेश का सम्मान कुछ घट जाएगा ? लगता तो ऐसा है कि यदि दीनदयाल जी के निधन के समय शरद जी जैसा कोई योजनाकार जयपुर में होता, तो धनकिया में भी कुछ गतिविधि शुरू हो जाती। पर अभी बहुत देर नहीं हुई है। जन्मशती वर्ष में राजस्थान में संघ और भा.ज.पा. के लोग मिलकर यदि विचार करें, तो धनकिया में भी कई काम प्रारम्भ हो सकते हैं। वहां रेलवे स्टेशन के परिसर में वह मकान विद्यमान है। पिछले दिनों राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे वहां गयी भी थीं।

कुछ समय पूर्व नगला प्रकल्प से जुड़े कुछ लोगों से मेरी भेंट हुई। मैंने कहा कि अब तो राजस्थान में तथा केन्द्र में भी भा.ज.पा. की सरकार है। अतः धनकिया में भी कुछ काम शुरू होने चाहिए। इस पर एक पदाधिकारी ने कहा कि बड़ी मुश्किल से लोगों के दिमाग में यह बात बैठी है कि दीनदयाल जी का जन्मस्थान नगला है। ऐसे में धनकिया की बात करना ठीक नहीं होगा। कुछ लोगों का मत है कि शायद मोदी सरकार दीनदयाल स्मारक के लिए अच्छा पैसा खर्च करना चाहती है। नगला वालों को भय है कि यदि धनकिया की बात चली, तो कुछ धन कहीं उधर न खिसक जाए। इसलिए वे धनकिया की बात करना नहीं चाहते।

गांधी जी और नेहरू परिवार के नाम पर देश भर में सरकारी धन से हजारों स्मारक, सड़क, अस्पताल आदि बने हैं। दीनदयाल जी के नाम पर भी ऐसे कई संस्थान लोगों ने शासकीय और जन सहयोग से बनाये हैं। जन्मशती वर्ष में इनकी संख्या और भी बढ़ेगी; पर क्या हम नगला, धनकिया और मुगलसराय में तीन अच्छे विश्वविद्यालय नहीं बना सकते ? वामपंथियों की फसल तैयार करने में जवाहर लाल नेहरू वि.वि. का प्रमुख योगदान है। अलीगढ़, देवबंद, जामिया मिलिया आदि से मुस्लिम अलगाववाद को खादपानी मिल रहा है। ऐसे में दीनदयाल वि.वि. देशप्रेमी युवाओं की निर्माणस्थली बन सकते हैं। इस बारे में संसद में प्रस्ताव लाने से भविष्य में कोई सरकार इनके मूल स्वरूप से छेड़छाड़ भी नहीं कर सकेगी।

जहां तक नगला की बात है, वहां के लोग स्वाभाविक रूप से चाहेंगे कि दीनदयाल जी के साथ मुख्यतः वहीं का नाम लिया जाए; पर संघ दायित्वों के चलते इस प्रकल्प में समय-समय पर सक्रिय रहे कई लोग अब अनेक संस्थाओं और संगठनों में शीर्ष स्थानों पर हैं। उन्हें अपना दिल बड़ा करना होगा। दीनदयाल जी का जन्म कहीं भी हुआ हो; पर उनके विचार और कार्य किसी एक जिले या राज्य की नहीं, पूरे देश और विश्व की विरासत है। जन्मशती वर्ष में इस संकल्प को ही समग्रता से समझना आवश्यक है।

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here