नारी तुम केवल श्रद्घा थी…….!

20
244

nari asmitaनयनतारा सहगल की योरोप यात्रा के दौरान उनके पहनावे (साड़ी) को देखकर आश्चर्य व्यक्त करते हुए एक अंग्रेज ने उनसे पूछा था, आपके इस ड्रेस में न कहीं बटन है, न आप बेल्ट से इसे बांधती हैं, क्या यह कभी खुल नहीं जाता? गिर नहीं जाता यह? सहगल का जवाब था…… यह पिछले हजारों-हजार साल से नहीं गिरा है। उनकी हाजिरजवाबी से भौंचक रह जाता है अंग्रेज़, साथ ही श्रद्घावनत भी होता है भारतीय ललनाओं का परिचय पाकर। सहगल की वह साड़ी प्रतीक है न केवल भारतीय तहज़ीब का, संस्कृति का, वरन भारतीय नारियों द्वारा सहस्त्राब्दियों के शौर्य, पराक्रम, त्याग, सेवा, तप, संघर्ष का भी।

हालाकि अगर यह साड़ी देश के सम्मान का प्रतीक रहा है तो साथ ही चीर-हरण करने वाले दुश्‍शासन भी अलग-अलग रूपों में रहे हैं. मीडिया और महिलाओं के संबंधों पर विचार करते हुए यह मजबूरी है कि हमें दुश्‍शासन की भूमिका आज के समाचार चैनल समेत एवं सभी अन्य प्रसार माध्यमों को ही देनी होगी. बस यहाँ पर किसी कृष्ण की ज़रूरत इसलिए नहीं है क्युकि आज कोई द्रोपदी आर्तनाद नहीं कर रही हैं, इस्तेमाल होने वाली यौवनाएं ना केवल अपनी कथित विशेष स्थिति से खुश हैं अपितु जम कर इंजॉय भी कर रही हैं. अतः कम से कम केवल प्रसार माध्यमों को ही दोष देना निश्चय ही उनके साथ ज्यादती होगी. जो दिखता है वही टिकता और बिकता है वाले इस दौर में आप कूद कर किसी नतीजे पर नहीं पहुच सकते. जिम्मेदार भले ही कोई हो लेकिन यह आज की सच्चाई है कि फिक्शन और नॉन-फिक्शन सभी माध्यमों में आज नारी केवल भोग की वस्तु ही रह गयी है. और इस मामले में कोई उदाहरण देने की भी ज़रूरत नहीं है. लेकिन सवाल कैरियर के दौर में आगे निकल गयी लड़कियों का है भी नहीं. अफ़सोस तो ये है कि जब तक कोई नकारात्मक कारण नहीं हो तब तक गाँव-देहात की,छोटे कस्बे और शहरों की महिलाएं और लडकियां इन माध्यमों की नज़र से कोसों दूर हैं. आज आप किसी भी चैनल पर गाँव में अपने घर के आगे रंगोली बनाती हुई, खेतों में काम कर अपने घर को समृद्ध करती हुई या कल-कारखानों में छोटे-छोटे कार्यालयों में काम कर अपने घर को आधार प्रदान करती हुई महिलाओं,युवतियों का अस्तित्व कही नहीं दिखेगा. यानी आज की महिलाओं का मीडिया की नज़र में अस्तित्व तभी है जब वे छोटे-छोटे शहरों से,भारी बोर दोपहरों से झोला उठा कर महानगरों तक की राह ना तय कर ले.मीडिया का हर मामले में शहर केन्द्रित हो जाना सबसे ज्यादा महिलाओं के वास्तविक सरोकारों पर ही भारी पड़ा है. आज भी दूर-दराज़ में दहेज़ के लिए प्रताडित होती महिलाएं,यूं शोषण की शिकार बनती बच्चियाँ,टोनही (डायन) कहकर सारे-राह अपमानित होती वृद्धायें या कोख में ही मार दी जाती भ्रूण के बारे में मुख्य धारा के मीडिया ने कोई सरोकार दिखाया हो ऐसा शायद ही कही देखने में मिला होगा. यदि दिल्ली में किसी लड़की ने प्रेमी के विछोह में आत्महत्या कर ली हो,या किसी आरुशी की हत्या हो गयी हो तो भले ही उस खबर को राष्ट्रीय महत्व का विषय बना दिया जाये लेकिन आप वैसी ही घटना रोज़ अपने आस-पास घटते हुए देखेंगे,लेकिन किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगेंगी. आप गौर करेंगे कि केवल वही खबरें या कथा-कहानियां आज जगह पाती हैं जिसके बिकने की संभावना हो या जो टीआरपी बटोर सके. बात चाहे लाखों के आभूषण शयन कक्ष में भी पहनी हुई टेसुए बहाती बालाजी की महिलायें हो,या ट्रक के टायर और इंजीन आयल का भी विज्ञापन करती हुई सेक्सी दिखती मॉडलें,सभी जगह सामाजिक सरोकार जैसे सिरे से ही गायब हो गया है. यदि पुनः समाचारों की ही बात करें तो का से कम उन्हें ज़रूर गौर करना होगा कि केवल बिकने वाली वस्तु ही समाचार नहीं हुआ करती.क्या केवल सनसनी बेचना ही समाचार है?

महिलाओं से ही जुड़े हुए कुछ ख़बरों के सन्दर्भ पर गौर करें. अभी हाल ही में पटना से एक खबर आई थी कि वहां पर एक लड़की को सड़क पर सरेआम नग्न कर दिया गया। वास्तव में खबर दुर्भाग्यजनक थी। लेकिन जिस तरह उसको दिन भर परोसा गया, जिस तरह से उसके विडियो को (ब्लर करके ही सही लेकिन) कई दिन तक दिखाया गया क्या वो ऐसा नहीं लग रहा था कि जबरन खबर को बेचा जा रहा है? आपको ताज्जुब होगा कि उसके दुसरे ही दिन पटना में ही एक साहसी लड़की ने एक गुंडे की सड़क पर ही पिटाई कर उसको पुलिस के हवाले कर दिया। वो गुंडा छेडख़ानी के ही आरोप में कुछ दिन पहले ही जेल हो आया था। क्या ऐसी घटना को नारी सशक्तिकरण का रूप दे कर दिन भर नहीं दिखाया जा सकता था? एक खबर और आपने कई दिनों तक देखी होगी। मध्य प्रदेश के किसी स्कूल में कपड़े का नाप लेने के बहाने एक शिक्षक द्वारा छात्राओं के साथ बदसलूकी की गयी थी। ज़रूर ऐसे कुंठित लोगों का पर्दाफाश किया जाना चाहिए। लेकिन उस घटना के चार दिन बाद छत्तीसगढ़ के कांकेर का एक नज़ीर श्रद्धा से भर देने वाला था। वहाँ के एक गाँव माकडीखुना में पदस्थ एक शिक्षक की विदाई पर सारा गाँव रो पडा था। प्रदेश के एक अखबार में छपी एक कोलम की खबर के अनुसार आशीष ठाकुर नामक उस गुरूजी की बिदाई के लिये बाकायदा एक आयोजन समिति का गठन कर जुलुस नारे एवं गाजे-वाजे के साथ उनकी विदाई की गयी। श्री ठाकुर ने अपने समर्पण भाव एवं गाँव के सुख-दु:ख में शामिल होकर अपनी एक अलग ही छवि बनायी थी। क्या ऐसी खबर को प्रेरणास्पद मानकर मीडिया उसको नहीं दिखा सकता था,यह एक उदाहरण नहीं होता देश के लिये? ऐसे ही जब राज ठाकरे नाम का गुंडा समूचे महाराष्ट्र में मां भारती को कलंकित करने का काम कर रहा था और बार-बार दुत्कारे जाने पर भी राष्ट्रीय मीडिया उस “क्रांतिकारी” का झलक बेचने को बेताब थे। हिंदी मीडिया को अपमानित कर निकाल देने के बावजूद जब वे लोग मराठी चैनलों से फीड ले के उसका अनुवाद कर दिखाने मे व्यस्त थे, उसी दौरान छत्तीसगढ़ के धमतरी के राजू ठाकरे नामक सपूत ने एक अनाथ महिला की मृत्यु हो जाने पर उन्हें अपनी मां समझ उसके अंतिम संस्कार की पूरी व्यवस्था की। तो क्या बजाय दिन भर एक पदलोलुप नेता को कवरेज देने के, राज ठाकरे और राजू ठाकरे के इस फर्क को केन्द्रविंदु नहीं बनाया जा सकता था ? उपरोक्त कोई भी घटना ना ही केवल तुकबंदी के लिये वर्णित है और ना ही काल्पनिक। इन छोटी-छोटी घटनाओं को तरजीह दे कर आप समाज में एक सकारात्मक सन्देश देने की जिम्म्मेदारी का पालन तो कर ही सकते हैं। लेकिन जैसा की शुरू में वर्णित है आखिरकार आप दोष केवल प्रसार कम्पनियों को ही नहीं दे सकते. ना केवल माध्यमों से समाज प्रभावित होता है बल्कि समाज से भी प्रसार माध्यमों को प्रभावित होना पर रहा है. आखिर वैश्वीकरण के कोख से निकले उपयोगितावाद से किसी का भी पल्ला छुड़ाना इतना आसान थोड़े है.जब स्वयं समाज की लड़किया-बच्चियाँ और उनके अभिभावक ही सफलता के लिए कोई भी कीमत चुकाने को तैयार हो तो आखिर किसी एक अनुषंग से हम आत्मसंयमित होने की अपेक्षा कैसे पाल सकते हैं ?

बहरहाल…एक सकारात्मक एवं संदेशात्मक खबर के साथ ही कलम को विराम दूंगा. छत्तीसगढ़ के राजनांदगांव की “रोशनी रामटेके” नाम की पोलिटेक्निक की छात्रा एक दिन चुपचाप घर चली जाती है कक्षा में कभी नहीं आने के लिए. रोशनी के सहपाठियों को काफी खोजबीन करने पर पता चलता है कि आर्थिक कठिनाइयों के कारण वो फीस देने में समर्थ नहीं थी सो उसे पढाई छोड़नी पड़ गयी है. दीपावली के पूर्व संध्या की बात है. सभी छात्राओं ने अपने-अपने जेब खर्च मे से जमा कर उसकी फीस अदा की और सस्नेह उस बालिका को उसके गाँव से वापस बुलाया गया. आपने कही देखी या पढी ये खबर ? उपरोक्त पूरे आलेख का आशय यही है कि ऐसी “रोशनी” बिखेड़े मीडिया भी या ऐसे बिखड़े हुई रोशनी को प्रकाशित होने दें तो कोई बात बने. ऐसे परस्पर सहकार एवं सरोकार के द्वारा ही हम उपरोक्त वर्णित साड़ी की मर्यादा और सम्मान भी कायम रख सकते हैं.

-पंकज झा

20 COMMENTS

  1. सच्चाई को प्रभावशाली रूप में प्रस्तुत किया है . काश लोगो में थोडा सा भी परिवर्तन आ पाता.

  2. झा जी अनंत धन्यवाद |पढ़इत मोंन गदगद भगेल |अहिना गंगोत्री एकदिन गंगा हएतइ |एक दोसराके उत्साह हम सब
    दइत रही |
    — वैनतेय,लन्दन_

  3. A good piece of journaism with the factual reality of life. a good attempt. But then what is the remedy and who will take the lead., a great question mark for the whole indian humanity. I think a strong emotional revolution is required by an able group of youngesters whose only aim will be to go to the very end before taking rest. Till then all and sundry will keep thinking and languashing in this beaten path.

  4. हमारा समाज हजारो सालोसे पुरुष-प्रधानही रहा है ! और हर दौरमे महिला के साथ न इंसाफी ही हुयी है ! पहले राजे महाराजे अपने
    जनान खानेमे ५०-१०० दासिया रखते थे ,जो राजा लोगोंकी शैतानी भूख मिटा सके ! आज तक हम औरत को सिर्फ भोग वस्तु ही समझ रहे है ! हर-रोज ३ महीने के मासूम लड़की से लेकर ७० साल की बूढी औरतें भी अत्याचार का शिकार हो रही है ! माता, बहन लड़की इनका
    लिहाज नहीं हो रहा ! सबको लड़का चाहिए ,जिसे लड़कियां होती है उस औरत को तलक देनेकी धमकी दी जाती है और कही तलाक भी दिए जाते है ! हमारा मिडिया , सिनेमा , पत्रिकाएं , सब में अर्ध नग्न लडकियोंकी तस्वीरे , अश्लील कहानियां , सिनेमायें की तो भरमार है !
    जिसकी वजहसे जवान बच्चे बिघड रहे है ! हर-रोज महिलाये यातना सह रही है ! सरेआम लड़की को रास्तेपर जलाया जाता है !
    रही बात राज ठाकरे की उसके लिए मराठी लोगो के लिए प्राथमिकता देना उसका मकसद है और वो सही है ! मुंबई में पर प्रान्तियोंकी
    भरमार है और जिसके वजह मुंबई की पानी की समस्या , ट्राफिक की समस्या उग्र रूप ले रही है ! महाराष्ट्र चाहे भारतमे है लेकिन सभी राज्य
    के बेकार लोगोंको नौकरी -धंदा देनेका ठेका महाराष्ट्र ने लिया है क्या ?? दुसरे निकम्मे राज्य अपने लोगोंको रोजगार क्यों नहीं दे सकते ?
    रेलवे की भर्ती होनी है तो उसके लिए जाहिरात दुसरे राज्य में आती है ,यहाँ के लोगोंको पता ही नहीं चलता ! और दूसरी बात हिंदी भाषा की
    तो हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है , लेकिन हमारे राष्ट्रपति ,जैसे अब्दुल कलम , वेंकट रमण हिंदी नहीं जानते ! भाई वा क्या हिन्दीके लिए
    अभिमान है ! सोनिया दुसरे देश से आकर हिंदी बोलना सिख रही है ,बोल रही है, और यहाँ अनगिनत नेता है जो ४० साल से भारतमे RAHATE है UNHE हिंदी नहीं आती ! UNKE KHILAF KOI EK LAFJ नहीं NIKAL रहा !
    YAHI है राष्ट्र PREM ??

  5. अच्छी बातें खबर नही बन पाती और बेहुदी बाते बडे चाव से देखी जाती है . यह हमारी मानसिकता का परिचायक है . हम जो पसन्द कर रहे है वही तो छ्पता और दिखता है

  6. बहूत बेहतर, सबसे प्रभावी और सकारात्‍मक पक्ष का प्रदर्शन लेख के अंतिम हिस्‍से में मौजूद है, उन सभी नन्‍हे सहपाठियों को नमन

  7. शानदार लेख. मीडिया जब खुद बेहया और व्याभिचारिणी हो गयी है तो वह नारी का क्या सम्मान करेगी?? वह तो खुद ‘पिंक चड्डी’ जैसे कुत्सित और नंगई के बाजारू अभियानों को प्रायोजित और महिमामंडित कर रही है. और खुद को आधुनिक, प्रगतीशील, सेकुलर साबित करने के लिए नारी अस्मिता का चीरहरण कर रही है. खैर आपका लेख पढ़कर सुकून मिलता है कि देश में अभी भी ऐसे मीडियाकर्मी (दुर्लभ ही सही) बचे हुए हैं, जो भारतीय संस्कृति और नारी अस्मिता की चिंता करते हैं, और बिना लाग-लपेट के लिखते हैं. साहस के साथ हमें अपने गौरव की याद दिलाते हैं. साधुवाद.

  8. नारी तुम केवल श्रध्दा थी…….पढ़कर आज के चैनलों की trp की लालसा को जानने का मौक़ा
    मिला……..यूँ देखकर जाना भी है……..’नारी श्रध्धा थी,है- तब भी विरोधात्मक व्यक्ति थे,परिस्थितियाँ थीं,
    नज़रिया था…….नारी विगत में भी शक्तिशाली थी, छुईमुई थी, समाज तब भी सम्मान करनेवाला था और
    दुत्कारने वाला …….. नारी को समझने की आवश्यकता है – उस समाज के द्वारा,जहाँ स्त्री – पुरुष दोनों हैं !

  9. पंकज जी, संक्षेपमे कहता हूं। (१) रामकृष्ण परमहंस उक्त:” सत से सत को जगाया जाता है, और असत जगाने से, असत जागता है।” और महर्षि पतंजलि “स्मृतिको ही संस्कार” मानते हैं। (२) जिस प्रकार व्यक्ति की बार बार जगायी हुयी स्मृतियोंके बलपर उसकी अपनी पहचान और उसका व्यक्तित्व बनते हैं, उसी प्रकार बार बार प्रसृत और पठित, कामुकता समाजको भी गुण दोषात्मक चरित्र (चिति–उक्त दीन दयालजी) प्रदान करनेकी क्षमता रखती है। (३) समाज फैला हुआ होता है, अतः नियमन करना कठिन, पर प्रसार माध्यम उसकी अपेक्षा कुछ सीमित और केंद्रित (मेरी समझमे), इस लिए नियमन करने मे कम कठिन है। (४) सत्व जगाने वाले समाचार को भी एक चुनौति के रुपमे स्वीकार करके उसे सफल ढंगसे प्रसृत करने का काम कठिन निश्चित है। पर, फिर भी,वह प्रस्तोता को भी प्रसन्नता ही देता है।पछ्तावेसे बचाता है।(५)इस कठिन चुनौति स्वीकार करने वाले ही “युगांतरकारी इतिहासकी दिशा” बदल देनेकी क्षमता, (संभावना) रखते हैं। (६) अपना योगदान किस पलडेमें डाला जा रहा है, उसपर निर्भर करता है,इतिहासके तराजुका झुकना। कुछ अधिकही कह दिया, लगता है।पंकज जी, आपको मनःपूर्वक धन्यवाद, साधुवाद, और सफलता की कामना। आप ने मेरे अंतरमनको आज सबेरे प्रसन्नता से झंकृत कर दीया।

  10. श्रद्धेय सम्पादक जी नमस्कार ,
    आपकी ईमेल देखी और मेरी आँखों ने कवि जयशंकर प्रसाद की कामायनी की प्रसिद्ध पंक्ति ” नारी तुम केवल श्रद्धा थी ‘ पढ़ी . फिर आगे बढ़ा और पंडित विजयलक्ष्मी की सुपुत्री नयनतारा सहगल की समर्थता और चतुर वादिता को पढकर मन बहुत ही खुश हुआ . संयोगवश मेरे सामने लेखिका नयनतारा की पुस्तक ‘फ्रॉम फियर सेट फ्री ‘ मेरे हाथ में है और जो घटना आपने प्रस्तुत की है , इस छोटी सी पुस्तक में बहुत सी बातें उनकी समझदारी का प्रमाण है. खैर जो भी हो , आपके लिए ‘ नारी तुम केवल श्रद्धा हो, चाहे तुम युवती हो या वृधा हो ‘ तुम से ही मानव जग में है , तुमसे ही ममता और शैशव है . तुम हर युग की धारा हो , और इस जग का उजियारा हो . नव वर्ष शुभ हो ! हिंदी के प्रेमियों .
    श्याम त्रिपाठी (कनाडा)

  11. आपका आलेख बहुत सार्थक है | बुराई का प्रसार अच्छाई से अधिक होता | मेडिया को केवल अपनी टी आर पी तक और पैसा कमाने तक मतलव है। लोग भी इस के लिये बराबर के भागी दार हैं। पैसे और ख्याति के लिये कैसी भी हद तक जाने को तैयार। अपनी संस्कृति सभ्यता से कितनी दूर जा रहे हैं ऐसे बेशक कम लोग हैं मगर उनके प्रचार प्रसार से लगता है कि देश मे कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। इस तरफ मिडिया को ध्यान देने की जरूरत है नहीं तोिआने वाले दिनों मे मीडिया का नाम देश की संस्कृति को बिगाडने मे काले अक्षरों मे लिखा जायेगा। बहुत अच्छा आलेख है बधाई।

  12. आपका लेख बहुत अच्छा है लेकिन, इसमें मीडिया की सबसे अहम चीज़ टीआरपी को आपने अनदेखा कर दिया हैं। आपके प्रोफ़ाइल के मुताबिक़ आप संपादक हैं उम्मीद है कि आपकी पत्रिका में ऐसी ख़बरों को पूरी तवज्जों मिलती होगी।

  13. नयन तारा जी अच्‍छा लिखा आपने, मुझे लगता है सबको मेरे जैसा लगेगा जैसे यह उसके ही शब्‍द हों, बस लिख आपने दिये हों, उम्‍मीद है बात उनके कानों में पहुंचेगी जिनको आपने आखिरी पंक्तियों में याद किया है, परन्‍तु हैडिंग से आपने नारी को बहुत छोटा कर दिया नारी केवल श्रद्धा नहीं बहुत कुछ है उतनी जितना के मर्द अपने को समझते हैं कमसे कम मुझे तो शिक्षा मिली है कि तुम्‍हारी धार्मिक पुस्‍तक में उतनी ही बार महिला का चिक्र है जितनी बार मर्दों का,
    धन्‍यवाद,

  14. बहुत अच्‍छा लिखा आपने, मुझे लगता है सबको मेरे जैसा लगेगा जैसे यह उसके ही शब्‍द हों, बस लिख आपने दिये हों, उम्‍मीद है बात उनके कानों में पहुंचेगी जिनको आपने आखिरी पंक्तियों में याद किया है, धन्‍यवाद,

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here