औरत, औरत की दुश्मन..

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हर शाम की तरह आज भी ऑफिस से आने के बाद घर का वही माहौल था। सब बैठ कर, एक टीम बना कर इधर उधर की बातें कम और चुगलियां ज्यादा कर रहे थे, और मम्मी हमेशा की तरह टीम की कप्तान थी। शायद वो सही कहता है, कि तुम्हारी माँ सब को अपने उंगली पर नचाना चाहती है, अपना वर्चस्व बना कर रखना चाहती है।

मुझे शुरू से घर में सब पागल ही समझते है, क्योंकि इनकी तरह मैं दुनिया को नही समझना चाहती। इनकी तरह अमीर-गरीब, ऊँच-नीच, बड़ा-छोटा, में दुनिया को बांट कर नही देखना चाहती।

 

बात चल रही थी दादी माँ के बारे में। दादा जी कह रहे थे कि दादी के पिताजी के पास बहुत जमीनें थी। मैं ऑफिस से आई ही थी, थकी हुई थी, और मेरा इन लोगों के बीच बैठने का कोई इरादा नही था, क्योंकि इनकी नज़रों में मेरी बातें इन्हें तीर की तरह चुभती है, क्योंकि मैं इनकी तरह हमारे समाज में शुरू से जो दकियानूसी बातें चली आ रही है, वो नही चाहती। मैं परिवर्तन चाहती हूँ, और परिवर्तन इन्हें पसंद नही।

 

फिर भी बात ऐसी थी कि मुझसे रहा नही गया। मैं बैठ कर दादा जी की बात सुनने लगी। मैंने मौका देखते ही कहा कि जब दादी के पापा के पास इतनी जमीनें थी, तो शादी के बाद तो वो जमीनें अभी होगी ही ना आपके पास..?? मैंने दादा जी से कहा.. दादा जी हँसने लगे और कहे कि अरे नहीं बेटा.. मैंने दहेज नही ली थी। मैंने कहा कि दादा जी मैं दहेज की बात नही कर रही हूँ, मैं दादी के हक़ की बात कर रही हूँ कि उनके पापा के प्रॉपर्टी में उनका भी तो हिस्सा था।

 

मेरा बस इतना ही कहना था कि सब एक स्वर में हँस कर मेरा मज़ाक उड़ाने लग गए। मैंने कहा क्यों भाई.. मैंने ऐसा कौन सा जोक क्रैक कर दिया कि आप लोग हँसे जा रहे हो.. तो मम्मी हँसते हुए कहती है कि तू बात ही ऐसा कर रही है। लड़कियों का शादी के बाद उसके पति का सबकुछ उसका ही होता है, तो फिर माँ बाप से क्यों मांगना.. सब हँसे जा रहे थे, और मुझे रोना आ रहा था। मैंने कहा कि क्यों नही..?? जब पैदा करते हो तो संतान में सबकुछ बराबर ही बंटना चाहिए। ये भेदभाव क्यों..?? धीरे धीरे सब के चेहरे से हँसी ऐसे गायब हो रही थी, जैसे चन्द्र ग्रहण पर चाँद की चांदनी गायब हो जाती है। हमेशा की तरह पापा चुप ही थे, शायद वो सही पूछता है कि तुम्हारे पापा गुलामों की तरह मम्मी की हर बात पर हाँ में हाँ क्यों मिलाते है.. फिर से मम्मी ने कहा कि ऐसा नही होता। बस फिर क्या था, मैं अपनी आदत के अनुसार लग गयी अपनी बात को सही करने में, और मैं सही थी भी। मैंने कहा कि क्यों ऐसा नही होता.. अब तो कानून भी इस बात की इज़ाज़त देता है कि पिता के प्रॉपर्टी में बेटियों का उतना ही हक़ है, जितना बेटों का..

 

मेरे इतने कहने की देरी थी, कि तभी एक जोरदार थप्पड़ मेरे गालों पर पड़ता है, और मुझे अपनी सही औकात बताने की कोशिश करता है। वो थप्पड़ किसी और का नही, बल्कि मेरी माँ का था, वही माँ जो ऐसे तो सब के सामने बड़े बड़े बोल बोलती है कि हम लड़की लड़के में फ़र्क नही करते, हम तो भइया एक बराबर मानते है। माँ बाप नही सोचेंगे अपने बच्चों का तो कौन सोचेगा.. यही सोच रहे हो आप मेरे लिए..??, कि हक़ की सिर्फ बात करने पर मुझे गले लगाने की बजाय थप्पड़ जड़ दिया..

 

मम्मी का कुतर्क शुरू हो चुका था। पहला कुतर्क वही घिसा पिटा कि लड़कियों को अपने पति से मांगना चाहिए, हम अच्छे घर में शादी कर दे तेरी बस.. मम्मी ने कहा कि ऐसे में तो तेरी बुआ लोग को भी हमारे पुराने घर पे धावा बोल देना चाहिए.. मैंने चिल्ला कर कहा, हाँ क्यों नही.. पुराने घर पर सिर्फ पापा चाचा को हक़ किसने दे दिया.. घर दादा जी का है, और दादा जी का ही खून बुआ लोग में भी दौड़ रहा है, उनका पूरा हक़ बनता है अपना हक़ मांगने का..

 

ये बात सुनते ही मम्मी का चेहरा देखने वाला था। ऐसे भाव जैसे उनसे उनकी कोई विरासत छीनने की बात कर रहा हो, मगर मम्मी शायद भूल गयी थी, कि वो भी एक औरत ही है, और औरत से पहले किसी की बेटी..

 

मम्मी ने अपना कुतर्क जारी रखा। कहने लगी कि क्यों भाई.. तेरी बुआ के पति लोग भीख मांग रहे है क्या.. अच्छा कमा खा रहे है, रख सकते है अपने परिवार को अच्छे से.. शादी के बाद तेरी बुआ ही तो राज कर रही है..

 

राज..?? कैसा राज..?? किसी के अधीन होकर कैसा राज..??

 

शादी शादी शादी..
हमारे माध्यम वर्गीय परिवार की यही हालत है। बेटियों के पैदा होते ही उनके सुनहरे भविष्य की चिंता कम, और शादी, दहेज़, दिखावे की चिंता ज्यादा होने लगती है। हमें कलम से पहले करछी पकड़ना सिखाया जाता है, हमें गाड़ी की स्टीयरिंग संभालने से पहले, घर के सभी घरेलू जिम्मेदारियों को संभालना सिखाया जाता है। निरंतर यही चलता जाता है। हम अपनी माँ से सीखते है, फिर हम माँ बन कर अपनी बेटियों को सिखाते है, फिर उनकी बेटी, फिर उनकी बेटी करते करते, ये गुलामी मानसिकता कब हमारे परिवार का अहम हिस्सा बन जाती है, पता ही नही चलता..

 

शुरू से मर्दों ने अपनी सत्ता बरक़रार रखने के लिए, समाज में कई ऐसे कुतर्कों को गढ़ा है, जो आज हमारे पिछड़े, गुलामी समाज का एक अभिन्न अंग हो चुका है। उन्ही में से एक कुतर्क है कि बेटी तो पराया धन होती है। क्यों..?? किसने बनाया ये नियम और क्यों माने हम..?? हम अपनी मर्ज़ी से तो इस दुनिया में आये नही..

 

एक बात और कही जाती है कि औरत त्याग की मूर्ति होती है। दरअसल ये बात कह कर पितृसत्ता के पक्षधर, हम औरतों से बेहिसाब त्याग चाहते है। शादी से पहले भाई के लिए त्याग, और शादी के बाद पति के आराम के लिए अपने सुख चैन का त्याग.. और जरूरी नही कि पितृसत्ता के पक्षधर मर्द ही हो। मेरी माँ इस बात की उत्तम उदाहरण है। पक्षधर ना होती तो दो प्यारी बेटियों के बाद, बेटे की चाह में मंदिर मस्जिद के धक्के ना खाती.. ज्यादा तर घरों में बेटों की चाह महज सिर्फ़ इसलिए होती है कि घर को उसका वारिस मिल जाये, घर का पैसा घर में ही रह जाए.. हमारे कपटी समाज ने बहुत सोच समझ कर इन वारिस, उत्तराधिकारी, जैसे भारी भारी शब्दों को समाज में फैलाया है.. क्यों..?? लडकिया वारिस क्यों नही हो सकती..?? आज ऐसा क्या है जो लडकिया नही कर पा रही है.. करोड़ों का व्यापार हो, या फिर पुलिस की वर्दी में समाज के दुश्मनों को सबक सिखाने की बात हो, लडकिया हर जगह बेहतर कर रही है,  और तो और इतिहास भी इस बात की साक्षी है कि लड़कियों में वो सब बातें कूट कूट कर भरी हुई है, जिससे वो उत्तराधिकारी बनने के योग्य है। रजिया सुल्तान और रानी लक्ष्मी के बारे में बात तो सब करेंगे मगर जब बात बेटियों को उनका हक़ देने की हो, तो फिर कपटी समाज का कुतर्क चालू हो जाता है।

 

लड़की चुप चाप सब की बातें सुन ले, उसके शादी का फैसला वो ना ले, कलम किताब से पहले चूल्हा चौका को तरजीह दे, अपना हक़ ना मांगे, घर में भले ही लड़का चाँद की चांदनी के साथ पूरी रात बिता कर क्यों ना आये, लडकिया शाम होते ही घर में आ जाये, तो हमारे कपटी समाज की नज़रों में ऐसी लडकिया परफेक्ट मैरिज मटेरियल होती है। जी हाँ, सही सुना आपने हम मटेरियल ही होते है, एक बेहद ही अलग प्रकार के मटेरियल, जिसमें इन्वेस्टमेंट बचपन से होता है, और शादी के वक़्त कीमत लेकर नही, कीमत देकर हमें बेच दिया जाता है, एक पितृसत्ता से दूसरे पितृसत्ता के राज में.. और फिर ये कुतर्क दिया जाता है कि हम शादी के बाद राज करेंगे.. भला कैसे करेंगे.. और राज नही, एक बराबर अधिकार चाहिए बस.. हमें मैरिज मटेरियल नही, सोशल वारियर बनना है बस। क्योंकि हमारा समाज ही तो किताबों में यह बात कहता है कि जिस घर की महिलाएं सशक्त हो, पूरा घर अपने आप सशक्त हो जाता है।

 

अब वक्त आ गया है कि हम निर्बल नही, प्रबल बने और छीन के ले अपना हक़..

 

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