विकास के नाम पर विस्थापन झेलती आदिवासी महिलाएं

अशोक सिंह

आदिवासी विद्रोहों के इतिहास में भले ही स्वर्णिम अक्षरों में लिखा जाता है लेकिन आदिवासी औरतों के बलिदान की गाथाएं अब भी इतिहास की वस्तु नहीं बन पायी। पहले की तरह आज भी उनके सवाल, उनके मुद्दे हाशिए पर धकेले जाते रहे हैं। विकास विस्थापन और महिलाएँ एक ऐसा ही ज्वलंत और बुनियादी सवाल है। बात 1766 के पहाडि़या विद्रोह की करें या संताल हूल की, बिरसा उलगुलान की या कोल विद्रोह, सरदारी लड़ाई या फिर जतरा टाना भगत के सत्याग्रह आंदोलन की महिलाओं ने पारंपारिक हथियारों से लैस हो आदिवासी मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेजों के होश ठिकाने लगाये और समाज के लिए अपने को न्योछावर तक किया। परंतु लौंगिक पूर्वाग्रहों से ग्रसित इतिहास ने उनके बलिदानों को बिसारने का काम किया। नतीजा यह हुआ कि महिलाओं के गरिमापूर्ण संघर्ष की गाथा कहीं दर्ज नहीं हो सकी। फूलो झानो, मकी देवमानी इतिहास में जगह नहीं पा सकी। यह नाइंसाफी स्त्रियों के लिए खतरनाक सिद्ध हुई और उनके हिस्से का सवाल अनुत्ररित रह गया। बात करें वर्तमान समय की तो विकास के नाम पर विस्थापन की समस्या महिलाओं और बच्चों के लिए जीवन की एक ऐसी अंधेरी सुरंग साबित हुई है जिससे उबरने के रास्ते उसके पास नहीं हंै। देष में विकास की कीमत चुकाने वाले लगभग तीन करोड़ लोगों में आधी आबादी स्त्रियों की है। झारखंड में यह संख्या 15 लाख से अधिक है। देश को समृद्धि के पथ पर अग्रसर करने की गर्जना करने वाले राष्ट्र निर्माताओं ने विकास के नाम पर खुशहाल, संपन्न्ाता और अमीरी का वायदा तो खूब किया। लेकिन इन 60 सालों में विकास ने बदहाली, विपन्न्ाता और गरीबी ही पैदा किया, रोटी और जीने का अधिकार तक छीन लिया। इसका सर्वाधिक प्रभाव महिलओं पर ही पड़ा।

समाज में दोयम दर्जे के नागरिक के तौर पर जी रही महिलाओं की पीड़ा गहरी हुई है। उनकी पहचान मिटती गयी और बेबसी बढ़ती गयी। खेत जब खदान बने तो फगुनी मांझी के साथ बलात्कार कर हत्या कर दी गयीं। पता चला कोलयरी इलाकों में यह आम घटना है। अनेक फगुनी मांझी बलात्कार की शिकार हुई और मार दी गयीं। अलबत्ता विकास की बात करनेवालों के लिए यह कोई शर्म बात नहीं थी। विस्थापन के समय जो महिलाएं विधवा और लाचार हैं उन्हें इसलिए मुआवजा नहीं दिया गया क्योंकि उन्हें इंसान ही नहीं माना गया। कोल इंडिया लिमिटेड के पास बहुत सहज जबाव है कि उनके नाम पर जमीन का पट्ठा ही नहीं है और वे जमीन की मालिक नहीं हंै तो फिर मुआवजा किस बात की। मुआवजे के दृष्टिकोण से महिलाएं विस्थपित ही नहीं मानी गयी। जिनके नाम पर जमीन का पट्ठा होता है मुआवजा या नौकरी के लिए उनका ही नाम दर्ज होता है। सामान्यता पुरूष ही पट्ठे में मालिक होते हैं। गुजरात के सरदार सरोवर बांध से विस्थापितों को मुआवजा देने के दरम्यान 5 एकड़ जमीन केवल 18 साल के उपर के युवकों और पुरूषों को मिली। महिलाएं इस लाभ से वंचित रही।

बच्चों की स्थिति ज्यादा दयनीय होती है। उनके व्यत्तित्व विकास की गति तथाकथित विकास की आंधी में छितरा जाते हैं। शिक्षा की जगह अशिक्षा और भूख कुपोषण उनके जीवन का अंग बन जाता है। जीवन में असुरक्षा की गारंटी छाया की तरह उनके साथ होती है। पारंपरिक भोजन के अभाव में उनका शारीरिक और मानसिक ह्रास होता है। भूख और कुपोषण बच्चों के स्वास्थ्य पर दीर्घकालीन असर डालते हैं। एक अध्ययन में पाया गया कि विश्व बैंक की परियोजनाओं में कई कॉलोनियो में औसत भोजन की कमी से हर उम्र के बच्चे कुपोषित हैं। उनका वजन उम्र के हिसाब से कम है। पेयजल और हवादार कमरों की कमी से शारीरिक रूग्नता उनके हिस्से में बना रहता है। मनोरंजन की कमी और नये परिवेश से उनके स्वाभाविक विकास पर रोक लग जाती है। खेल का मैदान, जंगल और खुले स्थान की कमी उनके लिए घुटन पैदा करती है। बच्चों की पढाई पर इससे ज्यादा असर पडता है।

विस्थापन एक ऐसी त्रासदी है जो औरतों और बच्चों के जीवन में अंधेरा बना देती है। वे घरविहीन हो जाती हैं। इतना ही नही विस्थापन का प्रभाव महिलाओं के जीवन में और भी कई स्तर पर पड़ता है। जिसमें एक जमीन से बेदखली और कानूनी अधिकार से वंचित होना भी षामिल है। आश्चर्य तो यह है कि भूमि अधिग्रहण के समय उन्हें पता नहीं होता है कि परियोजना के लिए उनकी जमीन ली जायेगी अथवा नहीं। गांव वालों को इसकी खबर तक नहीं दी जाती है। जहाँ उन्हें बसाया जता हैं उस स्थान में रहने के लिए अस्थायी बैरक और एक-एक कमरे का मकान ही दिया जाता है। यहां से भी उनके उजड़ा जाना तय है लेकिन वह कहाँ जायेंगे खुद उन्हें नहीं मालूम होता है। विस्थापित होते ही वह अपने बुनियादी हक से भी वंचित हो जाते हैं। अशोक और पिपरवार प्रोजक्ट से विस्थापित की गयी महिलाओं का कहना है कि उन्हें पता नहीं कि उनकी कितनी जमीन परियोजना में ली गयी है और बदले में कितनी जमीन दी गई है। क्योंकि जमीन पर दखल का कोई कागज पुनर्वास के समय उन्हें दिया नहीं गया। कहीं दो एकड़ सिंचित जमीन तो कहीं 3 एकड़ असिंचित जमीन। नौकरी के लिए भी कई शत्र्तें लगाई जाती हैं जिन्हें पूरा करना इनके लिए कठिन होता है।

विस्थापितों को कई प्रकार की समस्याओं का सामना करना पड़ता है। पेयजल की गंभीर समस्या भी इन्हीं में से है। सदियों से रह रहे गांवों में पानी के कई स्त्रोंत होते हंै। कुंआ, तालाब, दाडी, झरना, नदी, हैंडपंप, पाइप या अन्य स्रोंतों से पानी उन्हें मिलता है। लेकिन विस्थापित या प्रभावित होने के बाद ये सारी चीजें खत्म हो जाती हैं। पीने का पानी लाने के लिए महिलाओं को पांच से दस किलो मीटर दूर जाना पड़ता है। गर्मी के दिनों में उससे भी ज्यादा दूर जाकर पानी लाना पड़ता है। पीने के स्वच्छ पानी के अभाव में वे कई तरह की छोटी-बड़ी बीमारियों के शिकार हो जाते हैं। टीबी, मलेरिया, डारिया, उनका पीछा नहीं छोड़ती है। शौच के लिए स्थान की कमी उनकी बीमारी को बढाती है।कुल मिलाकर देखा जाए तो विस्थापन से महिलाएं न सिर्फ समाजिक, आर्थिक और संास्कृतिक बल्कि षारीरिक व मानसिक रूप से भी इस तरह प्रभावित होती हैं कि लाख कोषिषों के बावजूद वह सामान्य जीवन नही जी पाती हैं और धीरे-धीरे एक ऐसी अंधेरी सुरंग में खोती जाती है जहां दूर-दूर तक रौषनी की कोई किरण दिखाई नही देती है। (चरखा फीचर्स)

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  1. समाज को टुकडों में बांटना, टुकडों में बांटकर देखना इसाईयों द्वारा शुरु की गयी, समाज को तोडने वाली कुटिल नीति है. लेखक ने उचित लगने वाली समस्यायें को उसी विभाजनकारी द्रिष्टी से विश्लेशित करने का प्रयास जाने या अनजाने में किया है. पुरुषों और महिलाओं मे भारत का समाज कहां बंटा हुआ है, विशेषकर वनवासी समाज में तो महिलायें अधिक सक्रीय भूमिका निभाती हैं. अनेक स्थानों पर अनेक प्रसंगों में महिलायें पुरुषों पर हावी होती हैं. नेपाली और किन्नौरी समाज में तो यह वातावरण काफी अधिक और स्पष्ट नजर आता है. अतः वनवासियों के महिला वर्ग की समस्याओं को विभाजनकारी द्रिष्टी से देखना और प्रस्तुत करना सही व स्वस्थ सोच का परिचायक नहीं माना जा सकता.

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