सामाजिक ढाँचे पर भी गौर करे महिला आयोग

हाल ही में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने प्राथमिक स्तर पर प्रस्ताव पेश कर कहा था कि घरेलू महिलाओं को उनके पतियों की कमाई में १० से २० फ़ीसदी की तय रकम मिलना चाहिए| मंत्रालय अपने इस प्रस्ताव को कानूनी अमलीजामा पहनाने का विचार भी कर रहा है| यह तय रकम एक तरह से पत्नियों के लिए महीने भर की तनख्वाह जैसी होगी जिसे वह अपनी सुविधानुसार खर्च कर सकती है| हालांकि देश में यह प्रस्ताव अपनी तरह का अनोखा प्रस्ताव है किन्तु मलेशिया जैसे देश के कई प्रान्तों में यह कानूनी बाध्यता है कि पति अपने महीने भर की तनख्वाह को पत्नी के हाथ में देता है| देखा जाए तो भारत में भले ही इस प्रस्ताव को कानूनी स्वीकृति प्राप्त हो जाए किन्तु आज भी कामकाजी पति अपनी तनख्वाह पत्नियों को ही देते हैं| मंत्रालय के इस प्रस्ताव पर मिली-जुली प्रतिक्रियाएं प्राप्त हो रही हैं| कोई इसे पत्नियों के आर्थिक पक्ष को मजबूत करने हेतु अवश्यंभावी बता रहा है तो कोई इसे महिलाओं के स्वाभिमान से जोड़कर देख रहा है| खैर इस विषय पर मतभिन्नता है और रहेगी ही किन्तु इतना ज़रूर है कि इस कानून से पुरुषवादी समाज में पत्नियों के प्रति हीन भावना का आना तय है| वैसे पड़े-लिखे समाज में शायद ही कोई ऐसी पत्नी हो जो अपने पति से माह भर की तनख्वाह की मांग करती हो| दरअसल हमारा सामाजिक ढांचा सदियों से ही ऐसा है कि पुरुष काम कर परिवार की आर्थिक जरूरतों की पूर्ति करता है और महिला घर-परिवार को चलाने में अपना योगदान देती है| दोनों के सामंजस्य से परिवार नामक संस्था चलती है| हाँ, बदलते वक़्त के साथ अब महिलाएं भी कामकाजी हो गई हैं किन्तु उनका प्रतिशत पुरुषों के मुकाबले कम ही है| फिर भी परिवार नामक संस्था का वजूद ही आपसी समझबूझ और सामंजस्य पर टिका है और महिला एवं बाल विकास मंत्रालय का प्रस्ताव काफी हद तक उस विश्वास में सेंध लगाने का कार्य करेगा| जब पति के लिए यह कानूनी बाध्यता होगी कि वह अपनी पत्नी को माह में एक तय निश्चित रकम दे तो घरेलू सुख-शान्ति का भंग होना तय है|

 

ऐसा नहीं है कि यह प्रस्ताव विसंगतियों से ही भरा हो किन्तु वर्तमान दौर में इसकी प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लगाए जा सकते हैं| फिर अभी तो यह मात्र प्रस्ताव है, कानून बनने तक इसकी क्या गत होती है यह देखना भी दिलचस्प होगा| हो सकता है कि महिला संगठनों की ओर से ही प्रस्ताव को नकारते हुए उसका विरोध शुरू हो जाए| पुरुषवादी संगठन तो पहले ही इस प्रस्ताव के विरोध में उतर चुके हैं और अब यह प्रस्ताव राष्ट्रीय बहस का मुद्दा बनने जा रहा है| वैसे सुनने में आ रहा है कि पत्नियों को पति की कमाई में हिस्सा देने से पहले सरकार उनकी माली हालत जानने की इच्छुक है। इस हेतु महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने वर्ल्ड बैंक के साथ मिलकर पत्नियों पर सर्वे कराने का फैसला किया है। महिला एवं बाल विकास मंत्री कृष्णा तीरथ ने देश की विकास दर में गृहणियों के योगदान को जानने के लिए सांख्यिकी मंत्रालय को भी एक सर्वे कराने को चिट्ठी लिखी है। तीरथ का कहना है कि घरेलू महिलाएं परिवार संभालने के साथ बाहरी कामकाज में भी अपना सहयोग देती हैं मगर इनकी गणना नहीं हो पाती है अतः देश की अर्थव्यवस्था में उनकी हिस्सेदारी का प्रतिशत जानना जरूरी है। प्रस्तावित मसौदे के मुताबिक सर्वे के जरिए यह भी जाना जाएगा कि पत्नी को घर चलाने के लिए पति कितनी रकम दे रहे हैं? इसका इस्तेमाल वह किस तरह करती हैं और उनकी बचत का हिस्सा क्या है? यह सर्वे सभी परिवारों की सामाजिक स्थिति के आधार पर किया जाएगा। इसके अलावा राज्यों के साथ डब्ल्यूसीडी मंत्री की १३-१४ सितंबर को होने वाली बैठक में घरेलू महिलाओं को पति के पगार से वेतन देने के मामले पर चर्चा करने की तैयारी भी है। इस बाबत राज्यों, सांसदों, तमाम एनजीओ और जरूरत पड़ने पर पुरुषों की विशेष राय भी ली जाएगी| खैर, इस प्रस्ताव का जो होना है वह होगा ही किन्तु महिला एवं बाल विकास मंत्रालय को यदि घरेलू महिलाओं की इतनी ही फ़िक्र है तो वह उनके लिए जीविकोपार्जन के अवसर क्यों नहीं उपलभ करवाता? क्यों महिलाओं को उनके पतियों की तनख्वाह के भरोसे छोड़ा जा रहा है? मान लीजिए यह प्रस्ताव यदि भविष्य में कानून बन भी गया तो इतने बड़े देश में इसके क्रियान्वयन को लेकर क्या योजना है? और क्या इस बात की गारंटी दी जा सकती है कि इस प्रस्ताव के कानून बन जाने से महिलाओं की आर्थिक स्थिति में सुधार आएगा? क्या इसके कानूनी रूप लेने से घरेलू सुख-शान्ति बरकरार रह पाएगी? हो सकता है कृष्णा तीरथ ने इन सब बातों पर गौर न किया हो या इन्हें जानबूझ कर विसरा दिया हो किन्तु यदि वे इन तथ्यों पर गंभीरता से विचार करें तो शायद देश के सामाजिक ढाँचे को आसानी से समझ सकेंगीं|

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