महिला गैंग्स सम्मान और अधिकार की लडाई

 women gangअभिषेक कांत पाण्डेय
महिलाएं आज सशक्त हो रही हैं। किसी भी क्षेत्र में आज वे पीछे नहीं है। अपने अधिकार और मान-सम्मान के लिए वह घरों से बाहर आ रही हैं। ऐसे में पुरुषवादी या रूढ़ियों वाला समाज या फिर व्यवस्था जब उनके बीच में आते हैं तो ये महिलाएं संगठित हो जाती हैं और बना लेती हैं अपना गैंग।

जितना हम आधुनिकता की ओर जा रहे हैं, उतना ही हमारा समाज महिलाओं के प्रति बर्बर हो रहा है। आधुनिकता की पहचान दिल्ली, मुंबई जैसे महानगरों में भी महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। यौन हिंसा, बलात्कार की बढ़ती घटनाओं ने सभ्य समाज के पीछे छिपे असभ्य समाज का चेहरा उजागर कर दिया है। स्कूल, कॉलेज, ऑफिस और यहां तक कि घरों में भी विकृत मानसिकता की सोच वाले पुरुष कब किसी महिला पर हमला कर दें, कोई नहीं जानता। दिल्ली में दामिनी के साथ हुई मानवता को शर्मसार कर देने वाली घटना के बाद सोया समाज जागा, लेकिन इस घटना के बाद स्त्री की अस्मिता की रक्षा का सवाल उठने लगा। कानून में बदलाव हुए, सरकारें सक्रिय हुईं, बावजूद इन सबके देश में यौन हिंसा और बलात्कार की घटना में कोई कमी नहीं आई। उल्टे सियासत करने वालों ने महिलाओं के आधुनिक रहन-सहन और पहनावे को ही दोषी ठहरा दिया। महिलाओं ने हिम्मत नहीं हारी और अपनी सुरक्षा व वजूद की लड़ाई के लिए सामने आईं। डराई गईं लेकिन डरी नहीं। लखनऊ की ऊषा विश्वकर्मा ने रेड बिग्रेड, संपत देवी पाल ने बांदा में ग्रामीण महिलाओं को उनके अधिकारों को दिलाने के लिए गुलाबी गैंग और बेहाल बुंदेलखंड क्षेत्र में पुष्पा देवी ने अपने क्षेत्र की शहरी महिलाओं को लेकर बेलन गैंग बनाया।
एक तरफ देश में महिला सशक्तीकरण का नारा दिया जा रहा है तो दूसरी ओर राजनीतिक असफलता और कानून व्यवस्था की लचर स्थिति ने अपराध को बढ़ावा दिया है। बलात्कार, यौन हिंसा, एसिड अटैक, महिलाओं के प्रति गैरबराबरी की सोच ने समाज के खिलाफ महिलाओं में नई चेतना भरी है। महिलाएं अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ एकजुट हुई हैं। भ्रष्ट अधिकारी, महिलाओं के प्रति समाज की रूढ़िवादी सोच और महिलाओं पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ अपना संगठन बनाना और खुद को मजबूत करना सीखा है। गुलाबी गैंग का गठन ग्रामीण महिलाओं का संगठन है, इसमें गांवों की महिलाओं ने अपनी एकजुटता उस पुरुष मानसिकता वाले समाज के खिलाफ उठाई जो उन्हें समान अधिकार नहीं देता है।

गुलाबी गैंग

बंुदेलखंड अंचल जहां पर महिलाएं स्वतंत्र नहीं हैं, यहां पर घर की चौघट लांघना और महिलाओं का न्याय के लिए बातें करना गुस्ताखी मानी जाती है। यहीं पर जन्म लिया महिलाओं के अनूठे संगठन ‘गुलाबी गैंग’ ने। इस गैंग की संचालिका दुबली-पतली सांवली-सी महिला संपत देवी पाल बनीं। इन्होंने बांदा में गुलाबी गैंग की नींव रखी। संपत देवी पाल ग्रामीण महिलाओं में जागरूकता लाने का अनथ प्रयास कर रही हैं। गुलाबी गैंग संगठन का यह नाम इसलिए पड़ा, क्योंकि इस संगठन से जुड़ी महिलाएं यूनिफॉर्म की भांति गुलाबी रंग की साड़ी ही पहनती हैं। गुलाबी रंग की साड़ी की एकरूपता ने इन्हें एक अलग और अनूठी पहचान दी है। दुनियाभर में गुलाबी गैंग की धूम मची है। इस गैंग के गठन और बुंदेलखंड की राजनितिक स्थिति, सामाजिक हालात और आर्थिक परिस्थिति को आधार बनाकर संपत देवी पाल पर हिंदी फिल्म ‘गुलाब गैंग’ भी बनी, जिसमें माधुरी दीक्षित ने लीड रोल किया। संपत पाल की शादी 16 साल की उम्र में हो गई थी। घरेलू हिंसा की शिकार और महिला होने की असमानता का दंश झेल रही संपत को पुरुषवादी मानसिकता से नफरत हो गई। महिलाओं के हक के लिए उन्होंने ग्रामीण महिलाओं को इकट्ठा कर गुलाबी गैंग बनाया। अब इसका काम था महिलाओं की स्वतंत्रता और उन पर होने वाले जुर्म के खिलाफ मोर्चा खोलना। धीरे-धीरे इस संगठन में महिलाएं जुड़ती गईं। इस समय इससे लगभग पौने तीन लाख महिलाएं जुड़ी हुई हैं। आज संपत देवी पाल 67 साल की हो गई हैं। अधिक उम्र के कारण वे गुलाबी गैंग की नेता नहीं रहीं। एक औरत, एक निश्चय और न्याय के लिए लड़ने वाली महिला के तौर पर उनकी पहचान बनी हुई है।

रेड ब्रिगेड

ऊषा विश्वकर्मा लखनऊ की हैं, जो बलात्कार की शिकार होने से बच गईं। लेकिन इस घटना के बाद उनके जीवन ने एक नई राह दी। उस डराने वाले दिन को वह कभी नहीं भूल पाईं। अपने को कुछ पल के लिए कमजोर पाया, लेकिन एक साल बाद इस हादसे से उबर गईं। इसके बाद ऊषा ने अपनी जिंदगी को एक नई दिशा दी और ऐसी हजारों लड़कियों को, जो इस डर से जी रही थीं कि कहीं किसी गली-मुहल्ले या सुनसान सड़क पर विकृत मानसिकता का पुरुष उन पर हमला न कर दे, इकट्ठा किया। ऊषा ने नई पहल की, वे बताती हैं, ‘मैंने डरने की बजाय रेड ब्रिगेड संगठन बनाकर बाकी लड़कियों को उनके साथ हो रहे जुर्म के खिलाफ लड़ना सिखाया है। रेड ब्रिगेड की चर्चा देश में ही नहीं विदेशों में भी हो रही है।’
ऊषा की उस घटना ने उनकी जिंदगी ही बदल दी। वे अपनी कहानी साझा करते हुए बताती हैं, ‘मैं एक संगठन में काम करती थी, जहां पढ़ाती थीं। वहीं मेरे एक सहकर्मी ने मेरे साथ बलात्कार करने की कोशिश की। मेरी उम्र उस समय केवल 18 साल थी। उस सहकर्मी के साथ मेरी लगभग 10 मिनट तक भयानक लड़ाई चली। सदमा इतना भयानक था कि मैं तुरंत अपने घरवालों को भी इस हादसे के बारे में बताने की हिम्मत नहीं कर पाई।’ ऊषा के साथ घटने वाली इस तरह की संघर्ष की घटना से बहुत-सी लड़कियां गुजरती हैं। ऊषा ने इन सबको हिम्मत और लड़ने के लिए ताकत दी है। रेड ब्रिगेड में उनकी टीम की अधिकांश सदस्य वही लड़कियां हैं, जो खुद भी शारीरिक शोषण की शिकार हो चुकी हैं। उषा अभी तक 30 हजार लड़कियों को आत्मरक्षा का गुर सिखा चुकी हैं और उनका लक्ष्य है दस लाख लड़कियों को यह गुर सिखाना। वे जगह-जगह सेल्फ डिफेंस की वर्कशॉप आयोजित करती हैं। लाल रंग के लिबास में रेड ब्रिगेड की ये लड़कियां लैंगिक असमानता, यौन शोषण और छेड़छाड़ का विरोध करने के लिए सड़कों पर कैंपेन चलाती हैं। रेड ब्रिगेड पर कई डॉक्युमेंट्री फिल्म भी बन चुकी हैं।

बेलन गैंग

बांदा की रहने वाली पुष्पा गोस्वामी शहरी महिलाओं को एकजुट कर ‘बेलन गैंग’ नाम से नवोदित संगठन बनाकर चर्चा में आईं। इस संगठन से जुड़ी महिलाओं ने उन सभी मुद्दों को अपने एजेंडे में शामिल किया है, जिनसे महिलाएं अकसर प्रभावित होती हैं। बिजली, पानी, स्वास्थ्य की अव्यवस्था हो या फिर रसोई गैस की काला बाजारी, सभी मामलों में शहरी महिलाएं आंदोलन करती हैं। पुष्पा का कहना है, ‘रोजमर्रा के उपयोग में आने वाले संसाधनों से अकसर महिलाओं को ही जूझना पड़ता है, पुरुष महिलाओं की परेशानी से नावाकिफ रहते हैं। इसलिए अपने एजेंडे में ऐसे मुद्दे शामिल किए हैं।’ हाथ में बेलन लेकर बेलन गैंग की महिलाएं अपनी आवाज को बुलंद करती हैं। छोटी-छोटी समस्याओं के समाधान के लिए वे नगर निगम, सरकारी अस्पताल में व्यवस्था सुधार की पहल करती हैं। अपनी शक्ति का एहसास कराते हुए इस संगठन ने सड़क, पानी, बिजली की समस्या दुरुस्त करवाई। इस गैंग से जुड़ी महिलाएं खुद को जागरूक और सुरक्षित मानती हैं।

1 COMMENT

  1. अभिषेक जी,

    बात एकदम सबृही है कि महिलाएं अपनी सुरक्षा करने के लिए सामने आ रही हैं. हालात पहले से बदले हैं. यह सवाल जम और ताकत का नबृहीं मानसिकता का है. आज भी ज्यादातर पुरुषों की मानसिकता नही बदली है. युवा पाश्चात्य सभ्यता की ओर अग्रसर हैं और पाश्चात्य परेशानियों को झेल रहे हैं. जितना समय पाश्चात्य देशों ने लिया था इसे सुलझानें में करीब उतना ही समय शायद यहाँ भी लगे. हाँ शुरुआत हो गई है. कानून मात्र के बन जाने से कुछ नहीं होता जो कानून से ऊपर रहते हैं या कानून से बचने की काबिलियत रखते हैं वे तो नहीं सुधरेंगे.आज भी हमारे देश में ( कम से कम) पुरुष प्रधानता कायम है. और नारी कहीं आरक्षण से तो कहीं बरबरी का दम्भ बरकर और कहीं नर को पछाड़ने के स्वर तेज कर हर जगह अपना फायदा देख रही है. नारी का रवैया भी पूर्ण रूपेण साफ नहीं है. कोभई कहे कि मुझ पर चार साल से अत्याचार हो रहा है तो उसका कोई कसूर नहीं कि इतने समय बाद आवाज उठाई जा रही है. नर का दोष तो है किंतु नारी भी दोश मुक्त नहीं है. दोनों पहलुओं पर बहुत कुछ करना अभी बाकी है. उम्मीद करें कि जल्द ही पूर बदलाव देखने को मिलेगा.

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