रुचि और हुनर के अनुसार हो काम

डॉ. दीपक आचार्य

रुचि और हुनर के अनुसार हो काम

तभी मिल पाती है सफलता

दुनिया का कोई सा काम हो, उसकी सफलता के लिए जो जरूरी कारक होते हैं उनमें सबसे पहली और बड़ी बात है रुचि और मौलिक हुनर के मुताबिक काम का होना। दुनिया के हर व्यक्ति का अपना एक मौलिक हुनर होता है जो उसे जन्मजात प्राप्त होता है। या यों कहें कि मौलिक हुनर वह छाया सृजन है जो व्यक्ति के पूर्वजन्म मेंं किए या सीखे हुए कार्य को अभिव्यक्त करता है और इसी प्रकार का कार्य उसे नए जन्म में भी प्राप्त हो जाए तो उसे वह और अधिक सफलता और हुनर के साथ कर सकता है।

किसी भी व्यक्ति को उसकी दिली रुचि और मौलिक हुनर को जानकार उसी के अनुरूप कोई काम दे दिया जाए तो उसे वह आशातीत सफलता के मुकाम तक पहुंचा सकता है। इस प्रकार के कार्य में गुणवत्ता भी ज्यादा हुआ करती है और समय भी कम लगता है।

मौलिक हुनर वह कार्य है जिसे व्यक्ति रुचि और परम प्रसन्नता के साथ पूरा मन लगाकर करता है और उस कार्य के करने पर व्यक्ति को न तो थकान लगती है, न ही उबाऊ महसूस करता है। मौलिक हुनर पूर्वजन्म के कर्म को भी संकेतित करता है।

इसके विपरीत किसी भी आदमी को उसकी रुचि और हुनर वाले कामों की बजाय दूसरे-तीसरे बोरियत भरे कामों को सौंपा जाता है तब न तो वह व्यक्ति प्रसन्न रह पाता है, न सौंपा गया वह काम ही ढंग से हो पाता है। ऎसे में व्यक्ति तनावों से तो घिर ही जाता है, साथ ही वह कुढ़ने लगता है और इससे उसके मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बुरा असर पड़ने लगता है।

एक जमाना था जब व्यक्ति के मौलिक हुनर की पड़ताल करने के बाद ही उसे उकी अभिरुचियों और हुनर के अनरूप कार्य से जोड़ा जाता था। इसके लिए उस जमाने में पारखी लोगों की कोई कमी नहीं थी जिनकी दृष्टि पड़ते ही व्यक्ति के मौलिक हुनर और रुचियों की पड़ताल हो जाया करती थी।

उस जमाने में दुनिया के हर काम को समाज का, अपना काम मानकर किया जाता था और जो लोग इन कामों में लगाये जाते थे वे अपना पूरा हुनर और लगन इसमें लगा दिया करते थे। तभी आज इतिहास में वे अमर हैं। उन दिनों काम की गुणवत्ता और इसके प्रति समर्पण पर विशेष ध्यान केन्दि्रत हुआ करता था। कालान्तर में कार्य की गुणवत्ता और समाजोन्मुखी कल्याण की भावना तिरोहित होती चली गई और सारी सेवाओं का सीधा संबंध पैसा कमाने से रह गया।

इसके बाद समाज में धाराओं और उपधाराओं का उलटा प्रवाह ऎसा शुरू हो गया कि सेवाओं ने धंधों का रूप इखि़्तयार कर लिया। आज यह धंधा हर कहीं परवान पर है और इस धंधे से जुड़कर निहाल होने वाले असंख्य लोग लाईन में हैं। हालात एक अनार और एक लाख बीमार वाली हो गई है।

यों भी आजकल हुनर और कर्मयोग का कोई मेल नहीं रह गया है। जिसे जहां जगह मिली घुस आने की मजबूरी है। फिर चाहे वह उसके लायक हो न हो अथवा जिन कामों में लगा या लगाया गया है वह उनके लायक है या नहीं, इसका भी भगवान ही मालिक है।

सभी क्षेत्रों में आजकल गुणवत्ता और हुनर का कोई मायना नहीं रह गया है। जो मर्जी हो, मजबूरी हो या मौका आन पड़े, वो काम ले लिया जाता है चाहे वह योग्य या उपयुक्त हो न हो। खासकर साठ साला बाड़ों में तो आजकल यही हो रहा है।

जो जिस काम या हुनर को जानता है उससे कोई वास्ता नहीं है बल्कि उसे ऎसे-ऎसे काम सौंपे जाते हैं जिनका उससे दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं होता। ऎसे में कामों की गति या गुणवत्ता पर कोई फर्क दिखे न दिखे, मगर जिन लोगों को ऎसे अरुचि वाले गैर जरूरी काम सौंप दिए जाते हैं उनमें लगातार तनाव बढ़ता रहता है।

बड़े ओहदों वालों के लिए तो जीवन का सबसे बड़ा सच यही है कि जैसे भी हो अपने नंबर बढ़ने चाहिएं। फिर चाहे इसके लिए किसी की भी बलि क्यों न चढ़ानी पड़े। आजकल कई हुनरमंद लोगों को ऎसे-ऎसे कामों पर लगाये रखा जाने लगा है जिनके प्रति उनमें न कोई रुचि है, न दक्षता। बल्कि इन लोगों की दक्षता दूसरे महत्त्वपूर्ण कार्र्यों को आशातीत सफलता दिलाने के लिए उपयोग में लायी जा सकती है।

लेकिन आजकल स्वयं को महाबुद्धिमान और संप्रभु समझने वाली कई प्रजातियां ऎसी आ गई हैं जिन्हें न कामों की समझ है, न मानवीय संवेदनाएं। ऎसे में ये चन्द लोग पूरे कुनबे को मटियामेट करने पर तुले हुए हैं।

इस असन्तुलन की वजह से लोगों के भीतर समाहित शक्तियों का पूरा उपयोग नहीं हो रहा है बल्कि इनकी शक्तियां दूसरे-तीसरे कामों पर फिजूल खर्च हो रही हैं। जिस हुनर और क्षमता का उपयोग समाज एवं देश के हित में होना चाहिए उसका कोई अर्थ नहीं रह गया है।

इसी विषमता की वजह से समाज और देश को अपेक्षित तरक्की प्राप्त नहीं हो पा रही है। इस दिशा में गंभीरतापूर्वक सोचने की जरूरत है ताकि जो जिसके योग्य है, जिसमें जो हुनर है, उसे उसी तरह का काम दिया जाए ताकि हर व्यक्ति पूरे मनोयोग और समर्पण के साथ सामाजिक विकास और देश की तरक्की में अहम् भागीदारी निभा सके।

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