अपनों से भरी दुनियाँ

god(मधुगीति १५०८०१)
अपनों से भरी दुनियाँ, मगर अपना यहाँ कोंन;
सपनों में सभी फिरते, समझ हर किसी को गौण !
कितने रहे हैं कोंण, हरेक मन के द्रष्टिकोंण;
ना पा सका है चैन, तके सृष्टि प्रलोभन !
अधरों पे धरा मौन, कभी निरख कर नयन;
आया समझ में कोई कभी, जब थे सुने वैन !
वेणु हरेक प्यारी लगी, प्रणव ध्वनि सुने;
ओंकार व्याप्त पृथ्वी रही, प्रमा रस पगे !
धुन आए सभी उसकी रहे, देखते त्रिगुण;
‘मधु’ झाँक रहे गया कहाँ, किलकता सगुण !
मत जाओ दूर मेरे सखा 
(मधुगीति १५०८०२ अ)
मत जाओ दूर मेरे सखा, निकट मम रहो;
कुछ मन की कहो, हिय की सुनो, चाहते रहो !
आत्मा में रहे पास सदा, दूर कब हुए;
अपने पराये भेद कभी, हम को ना छुए !
जो भी था रहा हृदये, तुरत तुम से कह दिए;
पाए तुम्हारी सीख, सफल जग में हम हुए !
पाए हुए हैं जो भी भाव, तुम्हारे दिए;
सूने पने में तुमरे बिना, कैसे हम जिए !
मिलवा दिए गुरू को, मिला बृह्म जो दिए;
दे प्रीति मीति अपनी व्यथा, उर में बस रहो !
रचयिता: गोपाल बघेल ‘मधु’

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