-अरविंद जयतिलक-
परम सत्य वह है जिससे प्रत्येक वस्तु अद्भुत है। श्रीकृष्ण साक्षात परब्रह्म हैं। ईश्वर हैं। समस्त पदार्थों के बीज हैं। नित्यों के नित्य और जगत के नियंता हैं। शास्त्रों में ब्रह्म को निर्विशेष कहा गया है। श्रीकृष्ण साकार हैं। श्रीकृष्ण ध्वंस और निर्माण, क्रोध और करुणा, पार्थिकता और आध्यामिकता, सगुण और निर्गुण, राजनीति, साहित्य और कला सबके समग्र रुप हैं। उन्होंने कुरुक्षेत्र के मैदान में मोहग्रस्त अर्जुन को गीता का ज्ञान दिया। कर्म का वह महामंत्र प्रदान किया जो मानव जाति के लिए कल्याणकारी और पथ-प्रदर्शक है। श्रीकृष्ण ने गीता में नष्वर भौतिक षरीर और नित्य आत्मा के मूलभूत के अंतर को समझाया है। कहा है कि आत्मा अजर और अमर है। जिस प्रकार मनुश्य पुराने वस्त्रों को छोड़कर नए वस्त्रों को ग्रहण करता है, उसी प्रकार आत्मा जीर्ण षरीर को त्यागकर नए षरीर में प्रवेष करती है। अतः मनुश्य को फल की चिंता किए बिना कर्तव्य का पालन करना चाहिए। सफलता और असफलता के प्रति समान भाव रखकर कार्य करना ही श्रेयस्कर है। यही कर्मयोग है। श्रीकृष्ण के उपदेश गीता के अमृत वचन हैं। उनके उपदेश से ही अर्जुन का संकल्प जाग्रत हुआ। कुरुक्षेत्र में खड़े बंधु-बांधवों से मोह दूर हुआ। तदोपरांत ही वे अधर्मी और दुर्बल हृदय वाले कौरवों को पराजित करने में सफल हुए। कौरवों की हार महज पांडवों की विजय भर नहीं बल्कि धर्म की अधर्म पर, न्याय की अन्याय पर और सत्य की असत्य पर जीत है। श्रीकृष्ण ने गीता में धर्म-अधर्म, पाप-पुन्य और न्याय-अन्याय को सुस्पष्ट किया है। उन्होंने धृतराष्ट्र पुत्रों को अधर्मी, पापी और अन्यायी तथा पाडुं पुत्रों को पुण्यात्मा कहा है। उन्होंने संसार के लिए क्या ग्राहय और क्या त्याज्य है उसे भलीभांति समझाया है। श्रीकृष्ण के उपदेश ज्ञान, भक्ति और कर्म का सागर है। भारतीय चिंतन और धर्म का निचोड़ है। सारे संसार और मानव जाति के कल्याण का मार्ग है। विश्व के महानतम वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा भी है कि श्रीकृष्ण के उपदेश अद्वितीय है। उसे पढ़कर मुझे ज्ञान हुआ कि इस दुनिया का निर्माण कैसे हुआ। महापुरुश महात्मा गांधी ने भी कहा है कि जब मुझे कोई परेशानी घेर लेती है, मैं गीता के पन्नों को पलटता हूं। महान दार्शनिक श्री अरविंदो ने कहा कि भगवद्गीता एक धर्मग्रंथ व एक किताब न होकर एक जीवनशैली है, जो हर उम्र को अलग संदेश और हर सभ्यता को अलग अर्थ समझाती है। श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया गया उपदेश मानव इतिहास की सबसे महान सामाजिक, धार्मिक, दार्शनिक और राजनीतिक वार्ता है। संसार की समस्त शुभता इसी में विद्यमान है। उनके उपदेश जगत कल्याण का सात्विक मार्ग है। श्रीकृष्ण ने कुरुक्षेत्र में खड़े अर्जुन रुपी जीव को धर्म, समाज, राष्ट्र, राजनीति और कुटनीति की शिक्षा दी है। प्रजा के प्रति शासक के आचरण-व्यवहार और कर्म के ज्ञान को उद्घाटित किया है। श्रीकृष्ण के उपदेश कालजयी और संसार के लिए कल्याणकारी हैं। युद्ध और विनाष के मुहाने पर खड़े संसार को संभलने का संबल है। अत्याचार और राजनीतिक कुचक्र को किस तरह सात्विक बुद्धि से हराया जाता है महाभारत उसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। श्रीकृष्ण अर्जुन का सारथी बनकर सत्य का पक्ष लिया। अन्याय के खिलाफ लड़ा। श्रीकृष्ण का संपूर्ण जीवन अत्याचार और अहंकार के खिलाफ एक संघर्श है। बाल्यावस्था से ही वे अलौकिक थे। किंतु उनकी अलौकिकता में जगतकल्याण की भावना निहित है। कभी वह अपनी बांसुरी के मधुर स्वर से सभी को आत्मिक सुख प्रदान करते दिखते तो कभी कंस के अत्याचारों से गोकुलवासियों की रक्षा करते हुए लोकहित में प्रवृत्त दिखायी पड़ते। कभी वह गोवर्धन पर्वत को ऊंगली पर उठा इंद्र के दर्प को चकनाचूर करते दिखते तो कभी मित्र सुदामा के आगे असहाय नजर आते दिखते। कभी वह समाज की रक्षा के लिए कालिया दमन करते तो कभी कंस, जरासंध और षिषुपाल जैसे अहंकारी शासकों का विनाष कर मानवता का कल्याण करते दिखते। कभी ग्वाल-बालों के साथ प्रेम लड़ाते दिखते तो कभी गोपियों के संग रास रचाते दिखते। श्रीकृश्ण का जीवन त्याग और प्रेम का अनुकरणीय उदाहरण है। अत्याचार और अहंकार के खिलाफ जनजागरण है। कर्म, सृजन और संकल्प का संदर्भ है। श्रीकृष्ण बंधी-बधाई धारणाओं और परंपराओं को जो राष्ट्र-समाज के लिए अहितकर है उसे तोड़ने में हिचक नहीं दिखाते हैं। वे तत्कालीन निरंकुष शासकों की भोगवादी और वर्चस्ववादी जीवनषैलियों के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं। जनता को अत्याचार से लड़ने का संदेश देते हैं। बावजूद इसके सभी मनुष्यों और प्राणियों के प्रति उनका एकात्मभाव देखते ही बनता है। उनकी हर क्रिया में जगत का कल्याण निहित है। नारियों के प्रति उनका सम्मान आधुनिक संसार के लिए सुंदर उदाहरण है। कौरवों की सभा में द्रौपदी का चीर खींचा गया। कभी द्रौपदी अपने वस्त्र को हाथों से तो कभी दांतों से पकड़ अपने षरीर को उघड़ने से बचाती। लेकिन दुःशासन रुपी राक्षस सम्मान का हरण करना चाहता था। लेकिन श्रीकृष्ण ने इस अबला की रक्षा की। उन्होंने संसार को संदेश दिया है कि दुर्योधन, कर्ण, विकर्ण, जयद्रथ, कृतवर्मा, शल्य, अश्वथामा जैसे अहंकारी और अत्याचारी जीव राष्ट्र-राज्य के लिए शुभ नहीं होते। वे सत्ता और ऐश्यर्य के लोभी होते हैं। धृतराष्ट्र सिर्फ जन्म से ही अंधा नहीं था, बल्कि वह आध्यात्मिक और नैतिक दृश्टि से भी अंधा था। उसका सत्तामोह और पुत्र के प्रति आसक्ति का परिणाम रहा कि हस्तिानापुर विनाष को प्राप्त हुआ। धृतराष्ट्र तथा उसके स्वार्थी-अभिमानी पुत्रों में ये सभी अवगुण विद्यमान थे। श्रीकृष्ण ने विश देने वाला, घर में अग्नि लगाने वाला, घातक हथियार से आक्रमण करने वाला, धन लूटने वाला, दूसरों की भूमि हड़पने वाला और पराई स्त्री का अपहरण करने वाले राजाओं को अधम और आतातायी कहा है। धृतराष्ट्र के पुत्र ऐसे ही थे। सत्ता में बने रहने के लिए वे सदैव पांडु पुत्रों के विरुद्ध षड्यंत्र रचा करते थे। अनेकों बार उनकी हत्या के प्रयत्न किए। श्रीकृष्ण ने ऐसे पापात्माओं और नराधमों को वध के योग्य बताया है। समाज को प्रजावत्सल शासक चुनने का संदेश दिया है। अहंकारी, आतातायी, भोगी और संपत्ति संचय में लीन रहने वाले आसुरी प्रवत्ति के षासकों को राश्ट्र के लिए अषुभ और आघातकारी माना है। कहा है कि ऐसे षासक प्रजावत्सल नहीं सिर्फ प्रजाहंता होते हैं। युद्ध और विनाष के मुहाने पर खड़ा आधुनिक संसार श्रीकृष्ण के उपदेशों पर अमल करके ही समाज और राष्ट्र की अक्षुण्ण्ता को बनाए रख सकता है।