खलनायकत्व के आवरण में लिपटा एक प्यारा इंसान

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रामकृष्ण

ख़त-किताबत के ज़रिए तो मैंको एक लम्बे अरसे से जानता रहा हूं, लेकिन रू-बरू उनसे मेरी मुलाक़ात कुल दो बार हो पायी – और वह भी बम्बई में नहीं बल्कि लखनऊ में. यह एक अजीब आश्चर्य है कि अपने बरसों लम्बे बम्बई प्रवास में, जिसमें मैं वहां के लगभग सभी फ़िल्मकारों के निकटतम सम्पर्क में आया, प्राण संभवतः अकेले ऐसे व्यक्ति थे जिनसे मिलने का मौका मुझे कभी नहीं मिल पाया – हालांकि हम दोनों के घरों के बीच मुश्किल से मील-डेढ़ मील का फ़ासला रहा होगा. वह खार के मध्य में स्थित यूनियन पार्क में पिंकी नामक अपने बंगले में रहते थे, और मैं खार और सांताक्रुज़ के संगमस्थल लिंकिंग रोड और नार्थ-एवेन्यु के चौरास्ते पर अवस्थित आनंदकुंज में.

प्राण से मेरी पहली मुलाकात सन् 1968 में हुई थी जब उत्तरप्रदेश फ़िल्म पत्रकार संघ के अध्यक्ष के रूप में उसके छठे वार्षिक पुरस्कार समर्पण समारोह में भाग लेने के लिये मैंने उनको लखनऊ आमंत्रित किया था. प्राण के अतिरिक्त जो अन्य पच्चीस-तीस फ़िल्मकार-कलाकार उस समारोह में सम्मिलित हुए थे उनमें चेतन आनंद, सुनीलदत्त, नूतन, कामिनी कौशल, केदार शर्मा, सुबोध मुकर्जी, मदन पुरी, हसरत जयपुरी, बैम्बी, स्नेहलता, चन्द्रशेखर और आख़री ख़त के चुन्नेमुन्ने बाल कलाकार बन्टी के नाम मुझे अब तक याद हैं. समारोह की अध्यक्षता की थी प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल डॉक्टर बी. गोपाल रेड्डी ने, और उद्घाटनकर्त्ता थे उस समय के केन्द्रीय सूचना तथा प्रसारण मंत्री, श्री के.के. शाह.

समारोह 8 दिसंबर को सम्पन्न हुआ था, और 9 दिसंबर की सुबह ही हीर-रांझा की शूटिंग के सिलसिले में चेतन आनंद, कामिनी कौशल और प्राण को बम्बई वापस पहुंच जाना ज़रूरी था. उन दिनों लखनऊ से बम्बई की कोई सीधी वायुसेवा नहीं थी, इससे समय पर बम्बई पहुंचने का केवल एक ही पर्याय बचा था कि वह लोग रात को नौ बजे के आसपास लखनऊ से चलने वाली मेल गाड़ी से दिल्ली तक जायें, और फिर फ़ौरन ही वहां से कोई हवाई जहाज़ पकड़ कर बम्बई.

जिस अर्थाभाव और कठिनाइयों के बीच अपने उस समारोह का आयोजन मुझे करना पड़ा था उसकी एक बहुत लम्बी कहानी है. संकेतस्वरूप इतना भर बता सकता हूं कि रिक्शे पर एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने का पैसा भी मेरी जेब में नहीं था, और आमंत्रित कर रखा था मैंने एक-चौथाई फ़िल्मी दुनिया को. उन दिनों लखनऊ से दिल्ली तक के लिये वातानुकूल कक्ष का किराया मात्र अस्सी रूपये था, और तीन टिकट ख़रीदने पर व्यय आता लगभग ढाई सौ रूपयों का. वातानुकूल कक्ष की तो बात ही दरकिनार, मेरी जेब में तो इतना भी पैसा नहीं था कि उनके लिये तीसरे दर्ज़े के रेल टिकट भी ख़रीद सकता. विवश होकर स्टांप पेपर पर दस्तख़त करके मुझे लखनऊ के एक नामी-गिरामी सेठिए से तीन सौ रूपये उधार लेने पड़े, और आठ तारीख की सुबह ही मैं इन तीन लोगों के लिये दिल्ली के रेल टिकट ख़रीदने में समर्थ हो पाया.

समारोह बेहद सफल रहा था. समारोहस्थल – रवीन्द्रालय – से सीधे ही इन तीन लोगों को स्टेशन पहुंचना था. सुनीलदत्त मेरे साथ थे. पुराने परिचित और मित्र होने के बावजूद उनको भी मेरी आर्थिक या मानसिक स्थिति का किंचित अतापता नहीं था – दूसरों की तो बात ही अलग. स्टेशन जब हम लोग पहुंचे थे तो गाड़ी छूटने में मुश्किल से दो-तीन मिनट का समय बाकी बचा था. किसी तरह दौड़भाग कर अपने अतिथियों को मैंने उनके डिब्बे तक पहुंचाया, और गाड़ी की सीटी बजने के साथ ही मैंने विदा लेने के लिये अपने दोनों हाथ जोड़ दिये. लेकिन इसके पूर्व कि मेरे हाथ नीचे आते मुझे लगा कि प्राण मेरे कोट की जेब में अपने हाथ डाल रहे हैं. उसमें से कुछ निकालने का तो सवाल ही नहीं उठता था क्योंकि उसमें तो एक फूटी कौड़ी तक नहीं थी. निश्चित ही प्राण उसमें किराये की रकम डालने की चेष्टा कर रहे होंगे, मैंने सोचा. झट से जेब से मैंने उनका हाथ निकाल लिया और बोला कि इतनी ज्य़ादती वह मेरे साथ न करें. लेकिन प्राण थे कि कुछ सुनना ही उनको गवारा नहीं था. गाड़ी के चलते ही, लाचार होकर, मुझे नीचे उतर आना पड़ा. सुनीलदत्त की आंखों को बचा कर जब मैंने जेब में हाथ डाला तो लगा जैसे उस समय प्राण की जेब में जो भी धनराशि रही होगी वह सबकी सब मेरी जेब में स्थानान्तरित हो गयी हो. जिस व्यक्ति को एक ही दिन पहले ढाई सौ रूपयों के लिये प्रोनोट भरना पड़ा हो उसे अचानक ही कारूं का ख़ज़ाना मिल जाये तो उसकी क्या मानसिक स्थिति बनी होगी, इसकी कल्पना कर सकते हैं न आप? बम्बई के फ़िल्म संसार से मेरा बरसों पुराना संबंध रहा है. मुझे मालूम है कि करोड़ों की बातें करने वाले वहां के अधिकांश सितारे अपने प्रचार और अपने चमचों पर भले ही लाखों खर्च कर डालें, लेकिन किसी परिचित-सहयोगी को उसके पतले समय में मदद करने के लिये उनके पास कानी कौड़ी तक नहीं होती. ऐसी अवस्था में प्राण का यह व्यवहार सर्वथा अप्रत्याशित ही कहा जायेगा, और उसे निश्चित ही एक ऐसी घटना के अन्तर्गत रखा जायेगा जिसको भूल पाना कभी संभव नहीं हो सकता.

उस दिन शाम को लगभग छः बजे प्राण लखनऊ पहुंचे थे और रात नौ बजे वापस लौट गये. ज़ाहिर है कि इन तीन घण्टों में उनसे कोई बातचीत करने का मौक़ा मुझे निश्चित ही नहीं मिल पाया होगा. लेकिन तब भी लगता था जैसे अपने किसी बेहद शुभचिंतक अग्रज को विदा देकर वापस लौटा हूं.

 

प्राण के साथ हुई मेरी दूसरी मुलाकात और भी अधिक अविस्मरणीय है. सन् 1982 में प्राण को लखनऊ बुलाने का एक अवसर मुझे पुनः मिला. छः-सात महीने पहले ही मैंने उनको सूचित कर दिया था कि उस वर्ष के प्रशस्ति समारोह में एक बार उन्हें सम्मिलित होना है, लेकिन अनेक स्मरणपत्र भेजने पर भी उनका कोई प्रत्युत्तर मुझे नहीं मिल पाया. कई तार भी मैंने उन्हें भेजे, लेकिन पत्रों की तरह वह भी पूरी तरह अनुत्तरित रह गये. उनके इस बेरूख़े व्यवहार से यह समझने के लिये मुझे विवश हो जाना पड़ा कि वह शायद आने के मूड में नहीं हैं और अपने संभाव्य अतिथियों की सूची से, मन ही मन, मैंने उनका नाम पूरी तरह काट डाला.

समारोह रात आठ बजे प्रारंभ होना था. सात बजे के लगभग बासु भट्टाचार्य के साथ रवीन्द्रालय प्रेक्षागृह में पहुंच कर मैं वहां की व्यवस्था का जायज़ा लेने में लगा ही हुआ था कि एक सर्वथा अनजान आदमी ने हमें आकर बताया कि प्राण साहब पोर्टिको में खड़े हुए हैं और मुझसे मिलना चाहते हैं. उसकी इस बात को सुनकर तो मैं जैसे सर्वथा स्तब्ध सा हो गया. बाहर निकल कर पाया कि प्राण सचमुच वहां खड़े हैं और लोगों का एक लंबा-चौड़ा हजूम उन्हें घेर कर उनके ऑटोग्राफ़ लेने में लगा हुआ है. मिलते ही बोले – बड़े भले हैं तुम्हारे लखनऊ के बाशिंदे. एयरपोर्ट पर जब मैं एक अजनबी सा खड़ा था तो एक मेहरबान अपने आप ही मेरी मदद करने वहां पहुंच गये. मुझे तो तुम्हारे नाम और तुम्हारे फ़ंकशन के अलावा किसी भी चीज़ का अतापता नहीं था. उन मेहरबान से मैंने कहा कि मैं एक अवार्ड फ़ंकशन में शामिल होने यहां आया हूं, लेकिन मुझे यह पता नहीं कि वह कहां और किस जगह पर हो रहा है. इतना सुनते ही उन्होंने मुझे अपनी गाड़ी में लिफ़्ट दे दी, और मैं यहां तक पहुंच गया. अब क्या प्रोग्राम है, यह बताओ.

मैं यह कहने की कोशिश ही कर रहा था कि प्राण साहब, कम से कम मुझे इत्तिला तो दे दी होती कि आप पहुंच रहे हैं, मैं ख़ुद हवाई-अड्डे पर पहुंच कर आपकी अगवानी करता कि वह बोल उठे – तुम्हारा दावतनामा पहुंचे और मैं न आऊं, यह हो भी कैसे सकता था भला? यह बात ज़रूर है कि ज़रूरत से ज्य़ादा बिज़ी होने की वजह से मैं तुम्हारे ख़तों का जवाब नहीं दे पाया, लेकिन इसके मायने यह तो नहीं कि तुम समझ डालो कि प्राण नाम का काई इंसान ही नहीं है फ़िल्मी दुनिया में?

और प्राण की यह इंसानियत ही है जिसने उन्हें हर ख़ासो-आम का दिलवर बना रक्खा है. फ़िल्मी दुनियां में अनेकानेक अभिनेता हैं – आज तो कुकुरमुत्तों की तरह उनकी बाढ़ कुछ इस तरह फैल रही है कि कब कौन फूल खिला और कब वह सूख कर गिर पड़ा इस बात का पता भी नहीं चल पाता, प्राण अकेले ऐसे अभिनेता हैं जिनका प्रभामण्डल पिछले पचास-पचपन बरसों की अवधि में एक क्षण के लिये भी धूमिल नहीं हो पाया. जैसा कि उस शाम के समारोह में प्राण का अभिनन्दन करते हुए अमृतलाल नागर ने कहा था – प्राण किसी एक व्यक्ति या अभिनेता का नाम भर नहीं है. इस नाम के पीछे भारत की फ़िल्मों का पूरा युग छिपा हुआ है, और उसके माध्यम से हम अपनी फ़िल्मों के इतिहास की जीती-जागती, चलती-फिरती प्रतिच्छवि को देख सकते हैं.

 

प्राण के फ़िल्मी जीवन की शुरूआत पंजाब में हुई थी – अविभाजित पंजाब के पाकिस्तानी संभाग में, जो उन दिनों फ़िल्म निर्माण कार्य में बम्बई और बंगाल को भी मात देने की कोशिश में अग्रसर था. उन दिनों दलसुख पंचोली और रूप शोरे अपनी लोकप्रियता की सीमा पार कर रहे थे, और जब प्राण ने पहले पहल फ़िल्मों में प्रवेश किया तब वह शिमला की एक मशहूर चित्रशाला में दो सौ रूपये प्रतिमास के वेतन पर फ़ोटो-आर्टिस्ट का काम कर रहे थे.

अपने उन दिनों की याद करते हुए प्राण ने बताया था – तब मैं तस्वीरें खींचने का काम करता था, दोस्त, और यह सोचना भी मेरे लिये मुमकिन नहीं था कि किसी दिन खु़द मेरी भी तस्वीरें ली जायेंगी – और वह भी स्टिल नहीं बल्कि चलती-फिरती, बोलती-चालती तस्वीरें. यह तो एक इत्तफ़ाक ही है कि मैं फ़िल्मों में आ सका.

और तब प्राण ने बताया कि जब मुमताज़ शांति नामक उस ज़माने की मशहूर ऐक्ट्रेस के लेखक-निर्देशक ख़ाविंद वली साहब से उनकी पहली मुलाक़ात हुई तब वह शिमला के स्कैंडल प्वाइंट के पास वाली रामलुभाया चौरसिया की दूकान पर खड़े पान चबा रहे थे. उस समय रात के ग्यारह बजे का गजर बज चुका था, फ़ोटोग्राफ़ी की दूकान में ताला लगाकर अपने घर की राह पकड़ते हुए पान खाने के लिये रामलुभाया की दूकान पर क्षण भर को रूके ही थे कि वली साहब की नज़र अकस्मात ही उन पर पड़ गयी और वह प्राण को कई क्षणों तक अविरल निहारते रह गये.

— वली साहब ने सर से पांव तक मुझे देखा, फिर पांव से सर तक एक बार फिर नज़र दौड़ायी और एकदम से मुझसे बोल उठे – क्यों जी, फ़िल्मों में काम करोगे? — प्राण ने ड्रामाई अंदाज़ में बालते हुए आगे बताया था — और तारीफ़ करो मेरी, दोस्त, कि मैं उस काम के लिये फ़ौरन राज़ी भी हो गया. फ़ोटोग्राफ़ी की दूकान पर उन दिनों दो नामे हर महीने मैं पा रहा था और वली साहब ने मुझे जो तनख्वाह बतायी थी वह थी सिर्फ़ एक रूपया रोज़ – यानी महाने में तीस रूपये. तब भी मैंने दो सौ रूपयों की अपनी बनी बनायी नौकरी को लात मार दी और दूसरे ही दिन मैं फ़िल्म ऐक्टर बन गया – ऊंची दूकान पर बैठ कर फीका पकवान खाने वाला ऐक्टर, क्योंकि तीस रूपल्ली में मीठे या नमकीन पकवान की बात भी नहीं सोची जा सकती.

प्राण अभिनीत पहले चित्र का नाम था यमला जट्ट, उसके निर्माता थे दलसुख पंचोली और वली साहब ने उसकी कथा-रचना की थी. पंजाबी भाषाभाषी क्षेत्रों में वह तस्वीर ख़ासी लोकप्रिय हुई और प्राण को अपने दो सौ रूपयों के त्याग का फल भी तत्काल ही मिल गया – उनकी गिनती पंजाब के सफलतम अभिनेताओं में होने लगी. पंचोली के दूसरे चित्र खा़नदान ने तो उनको अपनी लोकप्रियता के शिखर तक पहुंचा दिया – प्राण ने उसमें पहली बार नायक की भूमिका अभिनीत की थी और उनकी संगिनी के रूप में अवतरित हुई थीं कोकिलकण्ठी नूरजहां, जो उन दिनों शायद हिंदी फ़िल्मों की सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त तारिका थी.

ख़ानदान शायद अकेली फ़िल्म थी जिसमें सिनेदर्शक नायक के रूप में प्राण को स्वीकार कर सके थे. उसके बाद भी उन्होंने दो तीन फ़िल्मों में भद्र व्यक्ति की भूमिकाएं अभिनीत कीं, लेकिन पिछले कुछेक चित्रों में वह इतनी क़ामयाबी के साथ खलनायकत्व कर चुके थे कि लोग यह विश्वास ही नहीं कर पाये कि यह आदमी अच्छा भी हो सकता है, और इसका परिणाम यह हुआ कि वह तस्वीरें जनता की आंखों से पूरी तौर से उतर गयीं. — इसे मेरी ज़िंदगी की ट्रैजेडी ही समझो — इस बारे में बात करते हुए प्राण ने कहा था — कि लाख कोशिशों के बावजूद लोग मुझे भला आदमी मानने को तैयार नहीं हो पाते. अब तुम्हीं बताओ कि मैं किस तरह इस बात को साबित करूं कि मैं भी आदमी हूं, अच्छा-भला और शरीफ़ आदमी हूं, और किसी को इस बात का क़तई हक़ नहीं कि वह मुझे नफ़रत की नज़रों से देखे.

बम्बई में प्राण भारत-विभाजन के बाद आये थे और करीब साल भर तक, अनेक निर्माता-निर्देशकों के द्वार खटखटाने के बावजूद उन्हें किसी फ़िल्म में छोटा-मोटा काम पाने में भी का़मयाबी नहीं मिल सकी थी. — वह दिन मेरी जिं़दगी के सबसे बुरे दिन थे — प्राण ने बताया — और अब तक उनकी याद कर मेरी रूह कांप उठती है. खाने के लिये पैसा नहीं था, रहने के लिये छत नहीं थी और बात करने के लिये संगीसाथी नहीं थे, लेकिन तब भी इंजानिब ने हार नहीं मानी और आख़ीर में क़ामयाबी को उसके पास आना ही पड़ा. तुम्हें मालूम है क्या कि अपनी उमर के इस मोड़ पर भी मैं चौदह-पन्द्रह फ़िल्मों में काम कर रहा हूं और चौबीस घण्टों में मुश्किल से आद-दस घण्टे अपने घर पर बिताने के लिये मुझे मिल पाते हैं, जिनमें सोने से लेकर बीवी से गपशप करने तक हर काम शामिल है?

अभी तक प्राण कितनी तस्वीरों में काम कर चुके हैं यह तो शायउ उनको भी ठीक तरह से याद नहीं होगा, लेकिन बिमल राय की बिराज बहू में अभिनय करके उन्हें जो आंतरिक संतुष्टि प्राप्त हुई थी वह किसी दूसरी फ़िल्म में नहीं. बिराज के प्रदर्शन के पूर्व अपने एक पत्रकार मित्र को उन्होंने लिखा था — तुम मेरी बात पर शायद विश्वास न करो, लेकिन जिस फ़िल्म में अभी अभी मैं अपना काम पूरा कर चुका हूं वह अकेली ऐसी फ़िल्म है जिसमें मैंने पूरी तरह से स्वाभाविक अभिनय किया है, और वह स्वाभाविकता इस हद तक स्वाभाविक है कि काम ख़तम करने के बाद भी मुझे यह नहीं मालूम हो सका कि मैंने ऐक्टिंग की है. यह शरत के कैरेक्टराइज़ेशन की ख़सूसियत है या बिमलदा के डाइरेक्शन का कमाल, बता नहीं सकता, लेकिन सच बात यही है कि बिराज में ही मैं यह समझ सका हूं कि अभिनय की स्वाभाविकता का मयार क्या है.

अपने उसी पत्र में प्राण ने आगे लिखा था — मैं शरत का पूरा लिटरेचर पढ़ना चाहता हूं, लेकिन चूंकि मैं न बंगला जानता हूं और न हिंदी, इससे मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि शरत की किताबें किस तरह मैं पढ़ सकूंगा. प्राण ने उर्दू या अंगरेज़ी में शरत के अनुवादों की मांग की थी, और जब उस पत्रकार ने उनको अज्ञेय द्वारा रूपांतरित श्रीकांत की प्रति भेजी तो बकौल उनके सेक्रेटरी ललितकुमार ‘वह घण्टों सिगरेट पीना भी भूल उठे थे, जो उनकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है.’ श्रीकांत प्राप्त होते ही वह स्टूडियो से भाग खड़े हुए थे और जब तक उसके चार-साढ़े चार सौ पन्ने ख़तम नहीं कर डाले तब तक उन्होंने चैन की सांस नहीं ली.

और शरत साहित्य के प्रति उनका यह लगाव और किसी के लिये शायद ज्य़ादा महत्व न रक्खे लेकिन प्राण के लिये वह एक अनोखा ही महत्व रखता है – ख़ासतौर पर इसलिये भी कि अपने समूचे वयस्क जीवन में, शूटिंग और शयनकाल के अलावा, एक पल भी उन्होंने ऐसा नहीं गुज़ारा होगा जब उनके होठों से उनकी सिगरेट हटी हो. अपने इसी धूम्रप्रेम की वजह से ही प्राण कभी कोई फ़िल्म देखने भी नहीं गये, क्योंकि सिनेमाघरों में धूम्रपान सर्वथा निषिद्ध होता है. लेकिन धुएं और उसके छल्लों के प्रति अपने इस अकथ लगाव के बावजूद शरत को पढ़ते समय वह इन चीज़ों को पूरी तरह भूल सके, और इस बात पर अगर आप गंभीरतापूर्वक विचार करें तो आपको यह समझने में दिक्कत नहीं महसूस होनी चाहिए कि प्राण का अंतर कितना विकसित और मानस कितना स्वच्छ है.

लेकिन यह होते हुए भी पढ़ना प्राण की हॉबी कभी नहीं रहा. — अपने ऊपर सबसे ज्य़ादा गुस्सा मुझे तभी आता है जब मैं देखता हूं कि पढ़ने-लिखने में मुझे क़तई दिलचस्पी नहीं है, ख़ासतौर पर तब और भी जब मैं पढ़ना चाह कर भी ज्य़ादा देर किसी किताब के पन्ने उलटने में क़ामयाब नहीं हो पाता. — प्राण ने कहा था, और फिर ख़ुद ही अपनी इस कमज़ोरी पर हंसते हुए वह बोल उठे थे — विलेन की ऐक्टिंग करते हुए शायद मेरी दिलचस्पियां भी उसी दरज़े की हो गयी हैं. काम से फ़ुरसत मिलती है तो लेटा रहता हूं, गप्पबाज़ी में घण्टों गुज़ार देता हूं, सिगरेट के टिन पर टिन फूंक डालता हूं, ह्विस्की की बोतल-दर-बोतल ख़तम कर उठता हूं, और अगर कुछ भी नहीं किया तो बाग़बानी के लिये खुरपी-कुदाल लेकर ही बैठ जाता हूं – लेकिन पढ़ने लिखने की कोशिश कभी नहीं कर पाता. वह आनंद शायद मेरी किस्मत में ही नहीं है – या शायद उसके लिये मैं बना ही नहीं हूं. मुझे तो ऐशबाज़ी से लगाव है, और जब तक कोई बहुत ही मजबूरी न पड़े मैं किसी ठोस काम को करने की आदत अपने में नहीं खोज पाता.

इतना कहने के बाद ही प्राण फिर हंस पड़े थे, लेकिन अगर अपने घर के लोगों के प्रति पूरी रूचि किसी ठोस काम के अंतर्गत गिनी जा सकती है तो वह किसी से पीछे नहीं हैं, क्योंकि उनकी पत्नी भी है और पुत्र-पौत्र भी, और वह उनमें उतनी ही दिलचस्पी लेते हैं जितनी दिलचस्पी दुनिया की किसी बड़ी से बड़ी चीज़ में ली जा सकती है. अगर किसी को इस बात में कोई संशय हो तो वह अब भी खारस्थित यूनियन पार्क में प्राण के पच्चीस नम्बर के बंगले में जाकर तत्संबंध में अपनी तसल्ली कर सकता है – और मैं विश्वास दिलाता हूं कि उसे किंचित निराशा नहीं होगी.

3 COMMENTS

  1. में स्व० अमृत लाल नागर के शब्दों को दोराहता उन की प्राण साब एक व्यक्ति का नाम नहीं है – यह एक युग का नाम है | उन का सब से बड़ा योगदान है की खलनायकी को एक नया आयाम दिलवाना | आज तो नायक ही खलनायकी स्वयं करने लगे हैं – इस लिए उन्हें किसी खल नायक की ज़रुरत ही नहीं है -| हमारी सद्भावना की वे शतायु हो |

  2. सुना था, कि प्राण निजी जीवन में दयालु और प्रामाणिक व्यक्ति है। आज पढनेपर विश्वास गहरा गया। राम कृष्ण जी –धन्यवाद।

  3. बहुत अच्छा शब्द-चित्र। कहीं-कहीं वर्तमान और अतीत का घालमेल हो गया है, जिससे कुछ भ्रम होता है। यह पता नहीं चलता कि अभी प्राण साहब कैसे हैं? अंतिम पाराग्राफ से लगता है कि वे स्वस्थ, सानंद हैं। किन्तु तब वैसे शानदार स्टार को पिछले कम से कम एक दशक से किसी फिल्म में न देखने की कोई कैफियत नहीं दी गई है।

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