भारत में खेलों के प्रशासन में जो गड़बडि़यां हैं, वे गाहे-बगाहे सामने आती रहती हैं। कई मामले ऐसे भी आए हैं जिनमें खिलाडि़यों को अपने इशारे पर नचाने के लिए खेलों के प्रशासक कई तरह के तिकड़म करते हैं। ताजा मामला ज्वाला गट्टा का है। भारत में क्रिकेट जैसे खेलों में इतना पैसा है कि यहां हर स्तर पर गड़बडि़यों की बात सामने आती है। आईपीएल घोटाला और राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में धांधली का मामला भी अब शांत हो गया है। इसका मतलब यह नहीं कि खेलों के प्रशासन में अब सब कुछ ठीक हो गया है।
जब भी खेलों के संचालन से संबंधित कोई गड़बड़ी सामने आती है तो यह कहा जाता है कि देश में खेलों के संचालन में पारदर्शिता का घोर अभाव है। आरोप लगाया गया कि ज्यादातर खेल संगठनों में आंतरिक लोकतंत्र नहीं है और सालों से एक ही व्यक्ति या एक ही कुनबा खेल संगठनों पर काबिज है। यह भी बात सामने आई कि एक ही आदमी एक से ज्यादा खेल संगठनों का कर्ताधर्ता बना हुआ है। हर तरफ से यह मांग उठी कि खेलों के संचालन में अगर पारदर्शिता बढ़ेगी तो ऐसे घोटालों पर अंकुश लग सकेगा और खेलों का भी सकारात्मक विकास होगा इसलिए एक मजबूत कानून बनना चाहिए जिससे इन बुराइयों को दूर किया जा सके।
हालांकि, ऐसा नहीं है कि खेल संगठनों के कामकाज पर पहली बार 2010 में ही सवाल उठे बल्कि इन संगठनों पर तरह-तरह के आरोप तो लंबे समय से लगते रहे हैं। बात 2008 की है जब एक खबरिया चैनल ने एक स्टिंग के जरिए यह बात लोगों के सामने लाई कि भारतीय हाॅकी महासंघ (आईएचएफ) के महासचिव के ज्योति कुमारन ने राष्ट्रीय टीम में एक खिलाड़ी के चयन के लिए पैसे लिए। इस स्टिंग में यह दावा किया गया था कि अजलान शाह हाॅकी टूर्नामेंट के लिए जो टीम चुनी जा रही थी उसमें चयन के लिए कुमारन ने पांच लाख रुपये की मांग की। कुमारन को दो किश्तों में तीन लाख रुपये लेते हुए भी दिखाया गया। इसके बाद जो विवाद पैदा हुआ उसमें कुमारन की कुर्सी तो गई ही साथ ही भारतीय ओलंपिक संघ (आईओए) ने आईएचएफ की मान्यता रद्द कर दी। इसके साथ ही लंबे समय से भारतीय हॉकी पर कब्जा जमाकर बैठे पूर्व पुलिस अधिकारी केपीएस गिल की भी छुट्टी हो गई। गिल पर भारतीय हाॅकी पर अपनी दादागीरी चलाने का आरोप लगता रहा है।
हाॅकी से जुड़े लोग कहते हैं कि गिल ने राज्य हाॅकी संघों में पुलिस अधिकारियों को पदाधिकारी बनवा दिया था और इसके बदले में ये पदाधिकारी गिल को आईएचएफ का अध्यक्ष बनाए रखते थे। इन लोगों का यह भी कहना है कि ऐसे में आईएचएफ का पूरा चुनाव देखने में तो लोकतांत्रिक लगता था लेकिन असल में यह गिल द्वारा अपने फायदे के लिए बनाई गई व्यवस्था थी और इसमें चुनाव सिर्फ नाम मात्र को होता था क्योंकि सदस्य उन्हें हाथ उठाकर अध्यक्ष चुन लेते थे।
आईएचएफ की मान्यता जब रद्द हुई तो एक तरफ इसके अधिकारियों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया तो दूसरी तरफ हाॅकी इंडिया के नाम से एक नया संगठन बना। इसे आईओए ने मान्यता दे दी और इसे अंतरराष्ट्रीय ओलंपिक समिति से भी मान्यता मिल गई। एक बार लगा कि अब हाॅकी के दिन बदलेंगे। लेकिन यहां भी चुनाव में वही पुराना ढर्रा अपनाया गया और ओलंपिक खेल चुके 45 साल के परगट सिंह को 83 साल की कांग्रेसी नेता विद्या स्टोक्स ने हरा दिया और एक बार फिर हाॅकी के दिन बदलने का हाॅकी खिलाडि़यों का मंसूबा धरा का धरा रह गया।
इस बारे में हाॅकी इतिहासकार और स्टिकटूहाॅकी डाॅट काॅम के संपादक के. अरुमुगम कहते हैं, ‘यह एक अच्छा अवसर था कि भारतीय हाॅकी को चलाने का काम किसी हाॅकी खिलाड़ी के हाथ में जाता लेकिन ऐसा हो नहीं सका और हाॅकी एक बार फिर सियासत की शिकार बन गई। इससे उन पुराने खिलाडि़यों को भी झटका लगा जो हिम्मत करके हाॅकी की सेहत सुधारने के मकसद से खेल प्रशासन की ओर रुख कर रहे थे।’
अभी खेल संगठनों के कामकाज में पारदर्शिता का घोर अभाव है। सरकारी सहायता से चलने वाले खेल संगठनों में भी आर्थिक मामलों को लेकर कई तरह की दिक्कतों की बात गाहे-बगाहे सामने आती हैं। खेल संगठनों से संबंधित कई आर्थिक घोटाले भी सामने आते हैं।
ऐसे में एक खेल विकास कानून लाने की कोशिश लंबे समय से चल रही है, लेकिन यह अब तक रंग नहीं लाई. माना जा रहा है कि खेल संघों की राजनीति इसे आगे नहीं बढ़ने दे रही है. हालांकि, खेल संगठनों के कामकाज में सुधार के लिए 1989 में भी संविधान संशोधन विधेयक संसद में पेश किया गया था. इसमें कहा गया था कि खेलों को राज्य सूची से निकालकर समवर्ती सूची में लाना चाहिए ताकि केंद्र सरकार खेलों को सही ढंग से चलाने का काम कर सके. 2007 में अटाॅर्नी जनरल ने यह राय दी है कि खेलों को समवर्ती सूची में लाए बगैर भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के प्रतिनिधित्व को आधार बनाकर राष्ट्रीय खेल संघों के लिए कानून बनाया जा सकता है. इसके बाद 1989 के प्रस्ताव को वापस लिया गया और खेल मंत्रालय इस नए विधेयक का मसौदा तैयार करने में लगा है. नया कानून लाने की कोशिश तब तेज हुई जब अजय माकन को खेल मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया.
प्रस्तावित नीति में यह प्रावधान है कि देश के सभी खेल संगठनों को राष्ट्रीय खेल संगठन के तौर पर नए सिरे से मान्यता लेनी होगी. कोई भी खेल संघ निजी तौर पर काम नहीं कर सकेगा. सभी खेल संगठन सूचना का अधिकार के तहत आएंगे. उन्हें अपने आय-व्यय का ब्यौरा देना होगा. यह नीति कई स्तर पर पारदर्शिता बढ़ाने की बात करती है. खेल संघों के प्रशासन में खिलाड़ियों की 25 फीसदी भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी. खेल संगठनों के पदाधिकारियों की चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की बात भी प्रस्तावित विधेयक में की गई है. पदाधिकारियों के लिए 70 साल की उम्र सीमा तय करने की बात भी प्रस्तावित नीति में है. साथ ही एक स्पोर्ट्स ट्रिब्यूनल के गठन की बात भी की गई है. इस ट्रिब्यूनल में न सिर्फ खेल संघों के झगड़ों का निपटारा होगा बल्कि खिलाड़ी भी अपनी समस्याएं यहां उठा सकते हैं. खेल मंत्रालय ने न्यायमूर्ति मुकुल मुदगल की अध्यक्षता में इस मसौदे की जांच के लिए जो तीन सदस्यीय समिति बनाई थी उसने यह सिफारिश की है कि खेल संगठनों को सूचना का अधिकार कानून के दायरे में लाया जाना चाहिए. देश में क्रिकेट चलाने वाली संस्था भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड को इस प्रावधान से काफी आपत्ति है.
यह विधेयक देश में खेलों के विकास के लिए कितना महत्वपूर्ण है, इस बारे में अजय माकन ने खेल मंत्री के पद पर रहते हुए एक साक्षात्कार अपनी बात इस तरह रखी थी, ‘देश में खेलों के विकास के लिए तीन प्रमुख समस्याओं का समाधान करना पड़ेगा. पहला तो यह है कि खेलों का दायरा बढ़े और खेल संस्कृति विकसित हो. इसके लिए खेलों को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए. दूसरी बात प्रशिक्षण से जुड़ी हुई है. इसके लिए खेल ढांचा और दुरुस्त करना होगा. तीसरी समस्या है पारदर्शिता की. कई खेल संगठनों में लोग दशकों से कब्जा जमाकर जमींदारी की तरह चला रहे हैं. अब क्रिकेट का ही उदाहरण लें तो यहां कार्यक्षमता तो है लेकिन पारदर्शिता नहीं है. इस वजह से कई अनैतिक चीजें खेल में घर कर गई हैं जैसे यौन उत्पीड़न, डोपिंग और उम्र को लेकर गड़बड़ी. इन्हीं गलत चीजों को दूर करने के लिए हम नया कानून लाने की कोशिश कर रहे हैं.’