याद रहेगी केपी की बेपरकी……!!

तारकेश कुमार ओझा

kp-saxena-521d7d4e059ea_lवह ’80 के दशक का उत्तरार्द्ध था। जब मैं पत्रकारिता में बिल्कुल नया था। यह वह दौर था जब रविवार, धर्मयुग व साप्ताहिक हिंदुस्तान जैसी राष्ट्रीय स्तर की पत्रिकाएं बंद हो चुकी थी। लेकिन नए कलेवर के साथ संडे आब्जर्वर , संडे मेल और दिनमान टाइम्स के रूप में कुछ नए साप्ताहिक समाचार पत्र बाजार में उतरे। बिल्कुल नई शैली में ये पत्र या कहें पत्रिकाएं 12 से 14 पेज के अखबार जैसे थे। साथ में बेहद चिकने पृ्ष्ठों वाला एक रंगीन चार पन्नों का सप्लीमेंट भी होता था। उस समय इस सामग्री के साथ एक रंगीन पत्रिका भी साथ में देकर संडे मेल ने तहलका मचा दिया। कन्हैया लाल नंदन के संपादकत्व में निकलने वाले इस पत्र की रंगीन पत्रिका में अंतिम पृष्ठों पर बेपरकी स्तंभ के तहत व्यंग्यकार के. पी. सक्सेना का व्यंग्य प्रकाशित होता था। बेसब्री से प्रतीक्षा के बाद पत्रिका हाथ में आते ही मैं सबसे पहले स्व. सक्सेना का व्यंग्य ही पढ़ता था। चुनांचे, अपने तई व बेपरकी समेत तमाम अपरिचित व नए जुमलों के साथ उनका व्यंग्य कमाल का होता था। वे गंभीर बातों को भी बेहद सरलता के साथ बोलचाल की भाषा में पेश करते थे। व्यंग्य में वे खुद के रिटायर्ड रेलवे गार्ड होने का जिक्र बार – बार किया करते थे यही नहीं सामाजिक विडंबनाओं पर भी वे बेहद सरल शब्दों में इतने चुटीले प्रहार किया करते थे कि हंसने के साथ ही सोच में पड़ जाना पड़ता था। ऐसा करते हुए वे देश के आम आदमी का प्रतिनिधित्व करते मालूम पड़ते थे। उनके स्तंभ को पढ़ कर बहुत मजा आता था। किसी काम में समय बीतने को या किसी क्षेत्र में योगदान देकर संसार से विदा लेने वालों के लिए वे खर्च हो गए… जैसे जुमले का प्रयोग करते थे।यह उनका एक खास अंदाज था।

मुझे याद है उसी दौर में तत्कालीन प्रधानमंत्री स्व. नरसिंह राव पर तब सूटकेश में भर कर एक करोड़ रुपए लेने का आरोप लगा था। इसके लिए स्व. सक्सेना ने … उम्र बीत गई रेलवे में गार्डी करते, लेकिन सपने में भी कभी अटैचा नहीं दिखा … जैसे वाक्य का प्रयोग कर पाठकों को हंसने पर मजबूर कर दिया। यही नहीं उसी दौर में सरकार ने विधवा की तर्ज पर विदुर पेंशन शुरू करने की पेशकश की तो स्व. सक्सेना ने … हम रंडुवों को पेंशन पाता देख बीबी वालों के बनियान तले सांप लोटने लगेंगे … जैसे वाक्य से गजब का व्यंग्य लिखा, जिसे आजीवन भूलाया नहीं जा सकता।उस दौर में कोई भी पत्रिका हाथ में आने पर मेरी निगाहें उनके व्यंग्य को ही ढूंढा करता थी। जीवन की भागदौड़ के बीच फिर सक्सेना बिसुर से गए। कई बार अचानक याद आने पर मैं चौंक पड़ता था कि कवि सम्मेलनों में बेहद दुबले – पतले से नजर आने वाले के. पी क्या अब भी हमारे बीच है। सचमुच हिंदी जगत के आम – आदमी से जुड़े व्यंग्यकार थे स्व. के. पी. सक्सेना …. उनको मेरी श्रद्धांजलि …

लेखक दैनिक जागरण से जुड़े हैं।

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तारकेश कुमार ओझा
पश्चिम बंगाल के वरिष्ठ हिंदी पत्रकारों में तारकेश कुमार ओझा का जन्म 25.09.1968 को उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले में हुआ था। हालांकि पहले नाना और बाद में पिता की रेलवे की नौकरी के सिलसिले में शुरू से वे पश्चिम बंगाल के खड़गपुर शहर मे स्थायी रूप से बसे रहे। साप्ताहिक संडे मेल समेत अन्य समाचार पत्रों में शौकिया लेखन के बाद 1995 में उन्होंने दैनिक विश्वमित्र से पेशेवर पत्रकारिता की शुरूआत की। कोलकाता से प्रकाशित सांध्य हिंदी दैनिक महानगर तथा जमशदेपुर से प्रकाशित चमकता अाईना व प्रभात खबर को अपनी सेवाएं देने के बाद ओझा पिछले 9 सालों से दैनिक जागरण में उप संपादक के तौर पर कार्य कर रहे हैं।

1 COMMENT

  1. हर इतवार को दैनिक जागरण में भी के पी सक्सेना जी का व्यंग आया करता था, हमारे पूरे परिवार को उसका इन्तजार रहता था, फिर ठहाकों के साथ सक्सेना जी के व्यंग का पाठ होता था…. पहले वो लखनऊ दूरदर्शन के कुछ कार्यक्रमों में भी आते थे.

    कहाँ वो शेर सिंह मुआ और कहाँ मैं शमशेर सिंह …… मूछों और घड़ियों का मिलान साढ़े छह, दस दस और सवा नौ …, बीबी नातियों वाली …. वो बात ही निराली थी सक्सेना जी की.

    आपका शुक्रिया याद दिलाने के लिए.

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