यशोदानंदन-१४

 

पुत्र-प्राप्ति के लिए कंस ने नन्द बाबा को बधाई दी, परन्तु जब यह ज्ञात हुआ कि पुत्र का जन्म उसी रात्रि में हुआ था, जिस रात्रि में देवकी ने कन्या को जन्म दिया था, तो उसके माथे पर बल पड़ गए। एक सघन सैन्य अभियान चलाकर उसने मथुरा के सभी नवजात शिशुओं का वध करा दिया था, लेकिन यमुना पार के स्वायत्तशासी क्षेत्रों में उसने सेना नहीं भेजी थी। शिशु कृष्ण को सैन्य अभियान चलाकर मारने का विचार पल भर के लिए उसके मस्तिष्क में कौंधा, किन्तु अधिक समय तक स्थिर नहीं रह पाया। नन्द बाबा गोकुल में अत्यन्त लोकप्रिय थे। वे प्रजा को अपनी संतान की भांति प्यार करते थे। गोकुल पर सैन्य कार्यवाही से नन्द बाबा खुला विद्रोह भी कर सकते थे। अन्य गणराज्य भी नन्द बाबा के मार्ग का अनुसरण कर सकते थे। प्रत्यक्ष सैन्य कार्यवाही का विचार स्थगित कर उसने दूसरे विकल्पों पर विचार किया।

कंस ने अपने निजी कार्यों के क्रियान्यवन हेतु कई असुरों एवं राक्षस-राक्षसियों को पाल रखा था। उसके ऐसे सेवकों को समस्त सुविधायें, विलासिता की वस्तुयें और विशेषाधिकार प्राप्त थे। वे अत्यन्त शक्तिशाली, मायावी और इन्द्रजाल की विद्या में निपुण थे। कंस द्वारा याद करते ही वे सम्मुख उपस्थित हो जाते थे। आदेश मिलते ही कठिन से कठिन कार्य को पूरा करने के लिए प्रस्थान कर देते थे। कार्यसिद्धि के पश्चात्‌ही वे कंस के सम्मुख उपस्थित होते थे। कंस उनसे अपने निजी कक्ष में मिलता था।

कंस की अनुचरी ‘पूतना’ एक क्रूर राक्षसी थी जो भांति-भांति का रूप धरने में अत्यन्त प्रवीण थी। नवजात शिशुओं की हत्या करने में उसे असीम आनन्द की प्राप्ति होती थी। उसकी सफलता का परिणाम सदैव शत-प्रतिशत रहता था। कंस ने उसे याद किया। पलक झपकते हि वह उपस्थित हुई। कंस को साष्टांग प्रणाम करने के बाद वह बोली –

“महाराज! आपने मुझे क्यों याद किया? कहिए मेरे लिए क्या आज्ञा है?”

“हे पूतने! दो सप्ताह पूर्व गोकुल के सामन्त नन्द जी के यहां एक बालक का जन्म हुआ है। तुम अविलंब वहां पहुंचकर उस बालक का वध कर दो। ध्यान रहे, इस वार्त्ता और इस कार्य की जानकारी मेरे और तुम्हारे अतिरिक्त किसी को भी न हो।”

“जो आज्ञा महाराज! आपने तो मेरी पसंद क कार्य मुझे सौंपा है। मैं यूं गई और यूं आई।” कंस की जयकार करते हुए पूतना ने गोकुल के लिए प्रस्थान किया।

पूतना पूर्व जन्म में महादानी बलि की पुत्री थी। श्रीविष्णु ने वामन का अवतार लेकर बलि के यज्ञ-मंडप में प्रवेश किया, तो उपस्थित नर-नारी उनके मुखमंडल के शान्त-शीतल भाव तथा अतुलनीय तेज देखकर विस्मय से जड़वत हो गए थे। ऐसा दिव्य बालक उन्होंने इसके पहले कभी देखा नहीं था। महादानी बलि की पुत्री रत्नागर्भा ने जब वामन को देखा, तो उसके हृदय में प्रचण्ड वात्सल्य का भाव जागृत हुआ। उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसकी छाती से दूध उतर आया हो। उसके मन के अंदर यह इच्छा स्वयमेव उत्पन्न हो गई कि काश, इस सुन्दर बालक को मैं अपने स्तनों का दूध पिला पाती!

गोकुल की सीमा-रेखा में पहुंचने के पूर्व पूतना ने अपना रूप परिवर्तित किया। उसने अप्सरा का वेश बनाया और अपने स्तनों पए कालकूट विष का लेप चढ़ाया। अतुलनीय शृंगार करके जब उसने गोकुल में प्रवेश किया, तो गोकुल के समस्त नर-नारी उसका रूप देख स्तब्ध हो गए। सबने समझा कि स्वर्गलोक की कोई अप्सरा भूलवश पृथ्वी पर उतर आई है। सबने अपने-अपने ढंग से उसका अभिनन्दन किया। पूतना ने नन्द बाबा के राजमहल का मार्ग पूछा, तो सबने प्रेम से मार्ग बताया। कुछ युवक तो उसके साथ हो लिए ताकि वह कही मार्ग न भटक जाय। पूतना का सान्निध्य पाने और उससे संभाषण का अवसर कोई भी नहीं खोना चाहता था।

गोकुल के युवकों के मार्गदर्शन में पूतना नन्द बाबा के प्रासाद में पहुंच गई। नन्द बाबा तो मथुरा गए थे। उनकी अनुपस्थिति में उसने मातु यशोदा से मिलने कि इच्छा प्रकट की। उसे अन्तःपुर में पहुंचाया गया। मातु यशोदा और रोहिणी उसके दिव्य रूप को देख आश्चर्यचकित हो गईं। वे दोनों उसका परिचय पूछना भी भूल गईं। वार्त्ता का क्रम स्वयं आरंभ करते हुए पूतना ने मातु यशोदा से कहा –

“हे देवि! सुना है, आपने एक दिव्य शिशु को जन्म दिया है, जिसका जन्मोत्सव कुछ ही दिवस पूर्व मनाया गया। मैं जन्मोत्सव में आकर आप सबके और उस दिव्य बालक के दर्शन करना चहती थी, लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो पाया। आज मैं आपके पुत्र के दर्शन की कामना से आपके पास उपस्थित हुई हूँ। क्या आप मेरी यह इच्छा पूर्ण करेंगी?”

“अवश्य। मेरा पुत्र ‘श्रीकृष्ण’ सामने पालने में लेटा है। आप उसे देख सकती हैं, साथ ही मेरा आग्रह है कि उसे दीर्घजीवी होने का आपके द्वारा आशीर्वाद भी प्राप्त हो।”

“ऐसा ही होगा देवी।” पूतना ने उत्तर दिया और शीघ्र ही श्रीकृष्ण के पालने के पास चली गई।

श्रीकृष्ण आँखें बन्द कर गहरी निद्रा में सो रहे थे। सो भी रहे थे या सोने का अभिनय कर रहे थे, पूतना समझ नहीं पाई। वह श्रीकृष्ण को देखते ही नृत्य करने लगी। मधुर स्वर में लोरी भी सुनाने लगी। मातु यशोदा और रोहिणी – दोनों यह दृश्य देख अभिभूत थीं। उनका पुत्र था ही ऐसा। जो भी देखता था, सम्मोहित हो जाता था। पुत्र और पूतना के सम्मोहन में बंधी दोनों नारियों ने पूतना का परिचय भी नहीं पूछा। माँ कि सबसे बड़ी दुर्बलता है उसका पुत्र। कोई भी पुत्र कि प्रशंसा कर माँ का हृदय जीत सकता है। आनन्द विह्वल यशोदा कभी गीत गाती नृत्य में मग्न अपूर्व सुन्दरी पूतना को देखती तो कभी अपने हृदयांश श्रीकृष्ण को। थोड़ी देर तक नृत्य-गीत प्रस्तुत करने के पश्चात्‌पूतना ने मातु यशोदा को संबोधित किया –

“हे देवी! आपके इस अतीव सुन्दर पुत्र को दूर से देखने मात्र से मेरा मन नहीं भर रहा। मैं अतृप्त होती जा रही हूँ। यदि आप अनुमति प्रदान करें, तो मैं इसे अपनी गोद में लेकर अपनी अभिलाषा पूर्ण करूं।”

देवी यशोदा को पूतना के प्रस्ताव में कही भी खोट दृष्टिगत नहीं हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण को गोद में लेकर खेलाने की, पूतना को अनुमति दे दी।

पूतना तो इसी अवसर की प्रतीक्षा में थी। श्रीकृष्ण को उसने पालने से निकाल, अपनी गोद में ले लिया। झूम-झूमकर कुछ देर तक नाचती रही और ऊंचे स्वर में गीत गाती रही। जैसे ही मातु यशोदा का ध्यान उसकी ओर से हटा, उसने श्रीकृष्ण को आंचल में छुपा, स्तन-पान कराना आरंभ कर दिया।

श्रीकृष्ण और पूतना – दोनों घात-प्रतिघात कर रहे थे। श्रीकृष्ण ने चुचुक शीघ्र ही मुंह में ले लिया, लेकिन अपने दोनों हाथों से पूतना के स्तनों को इतनी जोर से दबाया कि उसकी चीख निकल गई। उसने श्रीकृष्ण को अपनी छाती से दूर करने का बहुत प्रयास किया लेकिन शिशु तो उसके शरीर से जोंक की तरह चिपक गया था। जितने वेग से वह उन्हें अलग करना चाह रही थी, उसके दूने वेग से श्रीकृष्ण उसके दूग्ध-रस के साथ उसके प्राण-रस भी उदरस्थ कर रहे थे। पूतना जोर से चिल्लाई –

“अब छोड़ भी मुझे। मेरे प्राण निकले जा रहे हैं। अगर मैं जानती कि तू इतना धृष्ट है, मैं तुम्हें कभी भी दुग्धपान नहीं कराती।”

परन्तु तबतक बहुत विलंब हो चुका था। पूतना की चीख सुन जबतक मातु यशोदा दौड़कर पास आतीं, उसके पूर्व ही पूतना अन्तिम सांस ले चुकी थी। श्रीहरि ने उसके प्राणरस चूस लिए थे। मरने के पूर्व उसने अपना असली रूप प्रकट किया। एक विराट राक्षसी के रूप में वह मातु यशोदा के आंगन में लेटी थी और शिशु श्रीकृष्ण उसके वक्षस्थल पर बैठ बालक्रीड़ा कर रहे थे। आकाश में सनस्त देवता स्तुति कर रहे थे –

“हे प्रभु! वेदों में आपके शास्वत अवतारों का मूल अवतारों के रूप में वर्णन हुआ है। दुष्टों के संहार एवं धर्म की स्थापना के लिए कभी आप नारायण रूप में प्रकट हुए, तो कभी पुरुषोत्तम राम के रूप में, कभी आप मत्स्य बने, तो कभी वराह। नृसिंह रूप धरकर आपने हिरण्यकश्यपु का संहार किया, तो वामन बनकर महादानी बलि के अहंकार को नष्ट किया। आप ही बलदेव हैं और आप ही श्रीविष्णु हैं। आप मूल अवतार हैं क्योंकि आपके अवतारों के सभी रूप इस भौतिक सृष्टि से बाहर हैं। आपका स्वरूप इस दृश्य जगत की उतपत्ति के पहले से उपस्थित था। आपके स्वरूप शाश्वत तथा सर्वव्यापी हैं। वे स्व-तेजोमय, अपरिपर्तनीय तथा भौतिक गुणों से अकलुषित है। ऐसे शास्वत रूप नित्य, ज्ञानमय तथा आनन्दमय हैं। वे सभी दिव्य सात्विकता से पूर्ण तथा विभिन्न लीलाओं में सदैव निरत रहनेवाले हैं। आपका कोई एक ही विशेष रूप नहीं होता। ऐसे अनेक दिव्य रूप स्वतंत्र हैं। आप परम पिता, सर्वशक्तिमान श्रीविष्णु हैं।

लाखों वर्षों के बाद जब ब्रह्मा के जीवन का अन्त होता है, तो दृश्य जगत का विलय हो जाता है। उस समय पृथ्वी, जल. अग्नि, वायु तथा आकाश – ये पांच तत्त्व महत्‌तत्त्व में प्रवेश कर जाते हैं। यह महत्‌तत्त्व पुनः कालवश अप्रकट समग्र भौतिक शक्ति में प्रवेश करता है, समग्र भौतिक शक्ति प्रधान में और प्रधान आपमें प्रवेश करता है। अतः संपूर्ण दृश्य जगत के संहार के पश्चात्‌केवल आपका दिव्य नाम, रूप, गुण तथा साज-सामान ही शेष रह जाते हैं।

हे अगम! आपको कोटि-कोटि प्रणाम। आप अव्यक्त समग्र शक्ति के के निदेशक और भौतिक प्रवृत्ति के परम आगार हैं। हे स्वामी! सारा दृश्य जगत वर्ष के अथ से इति तक कालाधीन है। सभी आपके निर्देशन में काम करते हैं। आप प्रत्येक वस्तु के मूल निदेशक तथा समस्त प्रबल शक्तियों के आगार हैं। आप परब्रह्म हैं। ब्रह्माण्ड के सारे नियम आपमें अवस्थित हैं। प्रकृति के सारे कार्यकलाप आपके द्वारा ही संचालित होते हैं। आपने दुष्टों के संहार और साधुओं की रक्षा के लिए इस मर्त्यलोक में पुनः आना स्वीकार किया, इसके लिए हम सभी मनसा, वचसा, कर्मणा आपके अत्यन्त आभारी हैं। आपकी जय हो! आपकी जय हो!”

 

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