यशोदानंदन-१८

“देख रहे हैं आर्य! आज मेरा लल्ला तीन मास और एक पक्ष का हो गया है। अत्यन्त स्वाभाविक रूप से उसका विकास हो रहा है। अब मेरा लड्डू गोपाल जांघ पलटकर करवट बदलने लगा है। मैं सौभाग्यवती हुई। चिरंजीवी हो मेरा लाडला! मैं इसके लिए बधाई उत्सव करूंगी।”

यशोदा जी के मुख से उत्सव की बात क्या निकली, नन्द बाबा ने तैयारी की घोषणा कर दी। वृन्दावन-गोकुल के सभी गोप-गोपियों को आमंत्रण भेज दिए गए। मातु यशोदा कभी स्वयं लेटकर कान्हा को अपने वक्षस्थल पर बैठातीं, उसके कपोलों को छूतीं, अधरों को चूमतीं, तो कभी अपनी पतली उंगलियों से कान्हा के बालों में कंघी करतीं। कभी अपने दोनों पैरों, घुटनों और पंजों को जोड़कर एक छोटा आसन बनातीं, कान्हा को उसपर बैठातीं और प्रेमपूर्वक घुघुवामन्ना खेलातीं। कभी-कभी रस-विभोर हो कान्हा से कह उठतीं –

“अरे मेरे लाल! तू ही बता – वह दिन कब आयेगा जब घुटनों के बल तू मकोइया चलेगा, कब धरती पर डगमगाते हुए एक-दो कदम रखेगा? वह शुभ दिन कब आएगा जब मैं तेरे सुन्दर मुखड़े में दूध के दो दांत देखूंगी, कब तुम्हारे तोतले बोल निकलेंगे, कब नन्द जी को बाबा-बाबा कहकर पुकारेगा, कब मेरा आंचल पकड़कर गोद में उठा लेने के लिए मचलेगा, कब अपनी बात मनवाने के लिए मुझसे झगड़ा करेगा? कब तू थोड़ा-थोड़ा खाएगा और कब स्वयं अपने हाथों से खाने की वस्तुएं लेकर अपने मुंह में डाल लेगा? कब हंस-हंस कर मुझसे मीठी-मीठी बातें करेगा और कब जिद पूरी नहीं होने पर मुझसे रुठ जाएगा? बता कान्हा, बता – वह शुभ दिन कब आयेगा?”

उत्सव की तिथि निश्चित कर दी गई। निर्धारित तिथि और शुभ नक्षत्र में समस्त गोकुलवासी सपरिवार अत्यन्त हर्षोल्लास से नन्द जी के घर पधारे। सुगन्धित पुष्पों से समस्त परिसर का शृंगार किया गया था। कई योजन तक पुष्पों के सुगंध से आकर्षित गौएं और बछड़े भी छलांगें मारते हुए रंगभूमि की ओर दौड़ते हुए आ रहे थे। सर्वत्र कर्णप्रिय वाद्य बज रहे थे। कोई नृत्य कर रहा था, तो कोई गायन। सब आनन्द-सरिता में गोते लगा रहे थे। दूर-दूर से विद्वान-ब्राह्मण आमंत्रित किए गए थे। सबने कार्यक्रम-स्थल पर पहुंचकर शुभ घड़ी में वैदिक स्तुतियों का उच्चारण किया। मातु यशोदा ने मधुर वाद्यों और पवित्र स्तुतियों के बीच श्रीकृष्ण को स्नान कराया, सुन्दर वस्त्र और अलंकारों से अपने प्राणप्रिय कान्हा का शृंगार और अभिषेक किया। सभी उपस्थित जन कान्हा की एक झलक पाने के लिए उतावले थे। जसुमति बालक को गोद में लेकर एक ऊंचे आसन पर विराजमान हो गईं, फिर क्या था – चन्दन और रोरी लगाकर आशीर्वाद देनेवालों का तांता लग गया। ब्राह्मणों के मुख से वैदिक स्तुतियों का संगीतमय उच्चारण जारी था। इस बीच कान्हा को नींद आ गई। मातु यशोदा ने शिशु को एक बड़े छकड़े के नीचे रखे गए सुन्दर पालने में सुला दिया और स्वयं ऋषि-मुनियों, ब्राह्मणों, मित्रों, संबन्धियों तथा वृन्दावनवासियों के स्वागत करने में व्यस्त हो गईं। कान्हा को सुलाने के पूर्व वे दूध पिलाना भूल गईं।

शिशु कान्हा की नींद अल्प समय में ही भूख लगने के कारण खुल गई। वहां उनकी रखवाली करनेवाले कुछ ग्वाल-बालों के अतिरिक्त कोई नहीं था। कान्हा ने रुदन ठाना और पैरों को पटकना आरंभ किया। अकस्मात्‌ उनके पैर छकड़े के पहिए से छू गए। फिर क्या था – छकड़ा चूर-चूर हो गया। छकड़े पर अनेक प्रकार के पात्र, पीतल तथा धातुओं से निर्मित थालियां रखी हुई थीं। सबकी सब धड़ाम से गिर गईं। छकड़े का पहिया धूरे से निकल गया और पहिए के सारे आरे टूटकर इधर-उधर बिखर गए। इस घटना के पश्चात्‌ सभी शीघ्र ही दौड़कर वहां आए। छकड़ा का अंग-अंग अलग हो चुका था। बालक श्रीकृष्ण भूख से तब भी शोर मचा रहे थे। माता ने उन्हें अंक में भर लिया और दुग्धपान कराने लगीं। कान्हा को खरोंच तक नहीं आई थी। सभी छकड़े के टूटने के विषय में तरह-तरह की अटकलें लगा रहे थे परन्तु वास्तविक कारण तक पहुंचना किसी के वश की बात नहीं थी। श्रीकृष्ण की रखवाली के लिए नियुक्त ग्वाल-बालों ने जब यह बताया कि खेलते-खेलते जब कान्हा का पैर छकड़े के पहिए से छू गया, तो पूरा छकड़ा धड़ाम से चूर-चूर हो गया, तो बालकों की बातों पर किसी वयस्क ने विश्वास नहीं किया। फिर, संकट का निवारण तो करना ही था। समस्त पात्रों और थालियों के साथ यदि वह विशाल छकड़ा कान्हा पर ही गिर जाता, तो? सोचकर ही नन्द जी और मातु यशोदा कांप उठे। माता ने बताया कि कान्हा ने पूर्ववत दुग्धपान किया है। सबने राहत कि सांस ली। अस्वस्थ बच्चा कभी भी सामान्य रूप से दुग्धपान नहीं करता। सभी वेदज्ञ ब्राह्मण उत्सव में उपस्थित थे। उन्होंने यज्ञ की अग्नि प्रज्ज्वलित की। मंत्रोच्चारण के साथ घी, दही, कुश तथा जल की आहुतियां दी गईं। कान्हा के कल्याण के लिए श्री नारायण हरि की विधिवत पूजा की गई। नन्द महाराज ने पुत्र को गोद में लेकर विविध औषधियों से मिश्रित जल के द्वारा उन्हें स्नान कराया और वेदविदों ने ऋक, यजु तथा सामवेद कि स्तुतियां पढ़ीं। इस अवसर पर सभी ब्राह्मणों को प्रभूत अन्न तथा सुनहरे गोटों वाले वस्त्रों से आभूषित गौएं, जिनके खुर चांदी से तथा सींग स्वर्ण से जड़े थे, दान में दी गईं।

कंस के अनुचर राक्षस सकट का यह प्रयास असफल रहा। छकड़े का रूप धर वह सर्वशक्तिमान का संहार करना चाहता था। पर पासा उलटा ही पड़ा। गुप्तचरों ने इस घटना की सूचना कंस तक पहुंचाई। हाथ मलने के अतिरिक्त वह और कर भी क्या सकता था? परन्तु वह अहंकारी भी कब हार माननेवाला था? उसके मस्तिष्क ने अगले षडयंत्र के ताने-बाने बुनने आरंभ कर दिए।

 

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

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