यशोदानंदन-६

kans            कंस बाल्यकाल से ही आततायी और आसुरी प्रवृत्ति का था। राजा उग्रसेन के अथक प्रयास के पश्चात भी उसके स्वभाव में कोई परिवर्तन नहीं आया। वह उग्र से उग्रतर होता ही गया। युवराज पद पर अभिषेक के पश्चात्‌ तो वह एक प्रकार से राजा ही हो गया। महाराज उग्रसेन का साम्राज्य उनके लिए मात्र राजप्रासाद तक ही सिमट गया था। दूसरी बार आकाशवाणी सुनने के पश्चात्‌ क्रूर कंस ने देवकी के केश पकड़ लिए और अपनी नंगी तलवार से उसकी ग्रीवा पर प्राणघातक प्रहार करने ही वाला था कि वसुदेव बीच में आ गए। वे अस्त्र-शस्त्र के द्वारा कंस का सामना करने में असमर्थ थे। अतः उन्होंने विवेक का सहारा लिया। उन्होंने भांति-भांति के तर्कों द्वारा कंस के विवेक को जागृत करने का प्रयास किया। शरीर की नश्वरता, जन्म और मृत्यु का सत्य और मन की चंचलता के विषय में शास्त्रसम्म्त ढेर सारे दृष्टान्त देकर उन्होंने कंस को समझाने का प्रयास किया, लेकिन सब के सब निष्फल सिद्ध हुए। कंस अपने हठ पर अडिग था। अभी भी उसकी नंगी तलवार उठी ही थी। वसुदेव जी ने अन्तिम प्रयास किया —

“मेरे आदरणीय कंस! अपनी प्रिय भगिनी से द्वेष करना तुम्हें शोभा नहीं देता। द्वेष ही इस लोक तथा परलोक में भी भय का कारण बनता है। छोटे भाई या छोटी बहन की हर परिस्थिति में रक्षा करना एक बड़े भाई का धर्मोचित कर्त्तव्य है। तुम भोज वंश के यशस्वी राजा हो। यदि तुम देवकी का वध करते हो तो उसका कुछ नहीं बिगड़ेगा। शरीर तो नश्वर है और मृत्यु अवश्यंभावी। कोई आज मृत्यु को प्राप्त हो, कल हो या सौ बरस के बाद। मृत्यु से कोई बच नहीं सकता, लेकिन तुम अपनी प्राणप्रिया बहन और एक अबला के हत्यारे के रूप में युगों-युगों तक इस अपकीर्ति का वहन करने के लिए वाध्य होगे। तुम्हारी यशोपताका धूल-धूसरित हो जायेगी। अतः हे यशस्वी भोजवंश के वर्तमान ध्वजवाहक! शांत हो जाओ और देवकी को मृत्यु का प्रसाद देने के अतिरिक्त अन्य विकल्पों पर भी गंभीरता से विचार कर लो।”

कंस ने अब दृष्टि वसुदेव के मुखमंडल पर केन्द्रित की। तलवार को म्यान में रखते हुए उसने वसुदेव से ही प्रतिप्रश्न किया -“बोलो, तुम ही बोलो। तुम्हारे पास इस समस्या का क्या समाधान है? मैं तुम्हें कोई वचन नहीं दे सकता परन्तु सुझाव पर विचार अवश्य कर सकता हूँ। मेरे पास अत्यन्त अल्प समय है। शीघ्र बोलो।”

“कंस! तुम मेरी अर्द्धांगिनी के सर्वप्रिय भ्राता हो। अतः मुझे भी बहुत प्रिय हो। तुम्हें अपनी बहन से कोई खतरा नहीं है। आकाशवाणी सुनकर तुम आशंकित हुए हो। तुम्हें तो वास्तविक खतरा तुम्हारी बहन के पुत्रों से है जो इस समय यहाँ उपस्थित नहीं हैं और कौन जानता है भविष्य को? पुत्र होंगे भी या नहीं? अतः अभी तुम पूर्णतया सुरक्षित हो। शीघ्रता में लिया गया निर्णय सदैव पश्चाताप का कारण बनता है। अतः देवकी के वध की इच्छा का त्याग कर मेरी सम्मति को ध्यान से सुनो और विचार करो।

तुम यदि यह मानने लगे हो कि देवकी के पुत्र द्वारा तुम्हारा वध होगा, तो भी तुम निश्चिन्त हो सकते हो। मैं यदुवंशी वसुदेव तुम्हें वचन देता हूँ कि जब भी देवकी के गर्भ से कोई सन्तान उत्पन्न होगी, मैं स्वयं उसे लाकर तुम्हारे सम्मुख प्रस्तुत कर दूंगा। उन सन्तानों का क्या किया जाय, इसका निर्णय मैं तुम्हारे उपर छोड़ता हूँ।” वसुदेव ने आसन्न संकट को टालने हेतु अपने वक्ष पर पाषाण रखते हुए प्रस्ताव दे दिया।

कंस वसुदेव के वचन के महत्त्व से भलीभांति अवगत था। उसने कुछ क्षण तक विचार किया, पश्चात्‌ वसुदेव के प्रस्ताव पर सहमति दे दी। तत्काल विपत्ति से छुटकारा पा, वसुदेव अपने प्रासाद में सपत्नीक लौट आए।

कंस भी अपने प्रासाद में वापस आ गया। अबतक देवकी के वध की कंस की इच्छा का समाचार राजप्रासाद के कोने-कोने में पहुंच गया था। महाराज उग्रसेन ने कंस को राजसभा में उपस्थित होने का आदेश दिया। उन्होंने भरी सभा में कंस को युवराज के पद से च्युत करने तथा बंदी बनाने का आदेश सुनाया। कंस मुस्कुरा रहा था। किसी सैनिक या सभासद में साहस नहीं था जिसके सहारे कंस को बंदी बनाया जाता। महाराज उग्रसेन का आदेश सुनते ही ऐसा लगा जैसे कंस का शरीर और विराट हो गया। उसने अंगारे बरसाते अपने नेत्रों से पूरी राजसभा और महाराज उग्रसेन को देखा। पश्चात्‌ दोनों हथेलियों को मिलाकर करतल ध्वनि की। कंस के विश्वासी सैनिक राजभवन में विद्युत गति से उपस्थित हुए। सभी सभासद हतप्रभ, असहाय एवं भयभीत दीखे। पूरी राजसभा में सन्नाटा छा गया। अचानक कंस का स्वर गूंज उठा —

“सैनिको! महाराज उग्रसेन को इसी क्षण बंदी बना लो। सम्राट वृद्ध अवस्था को प्राप्त हो गए हैं। शासन करने की क्षमता एव दक्षता खो चुके हैं। मैं पद्मावती पुत्र कंस स्वयं यदु, भोज तथा अंधक वंशों के इस महान‌ गणतंत्र का महाराज घोषित करता हूँ। जिस किसी सभासद, अमात्य, सचिव और सेना को मेरी यह घोषणा स्वीकार न हो वह मृत्यु को आमंत्रित करते हुए अपने विचार मेरे सम्मुख रख सकता है।”

 

कंस के एक इंगित पर तत्क्षण विश्वासी सैनिकों ने महाराज उग्रसेन को बन्दी बना लिया। सभी सभासदों के आगे-पीछे, दायें-बायें, कम से कम चार योद्धा घेरकर खड़े हो गए। न कोई अभिषेक, न तिलक, न समारोह। कंस मथुरा गणराज्य का सम्राट बन बैठा। कालान्तर में उसने यदु, भोज तथा अंधक वंशों के राज्यों एवं वसुदेव के पिता शूरसेन के राज्य को भी अपने अधिकार में ले लिया। मथुरा का गणतंत्र अब पूर्णतया अधिनायकवाद में परिवर्तित हो चुका था। वह एक अच्छा कूटनीतिज्ञ भी था। शीघ्र ही उसने प्रलंब, बक, चाणूर, तृणावर्त, अघासुर, मुष्टिक, अरिष्ट, द्विविद, पूतना, केशी तथा धेनुक आदि आसुरी प्रवृत्ति के राजाओं से मैत्री भी स्थापित की। इन सभी को उसने अपनी राजसभा में उच्च आसन प्रदान किया। उस समय जरासंध मगध देश का महान पराक्रमी और प्रतापी राजा था। पूरे भारतवर्ष में उसका सामना करने की सामर्थ्य किसी में नहीं थी। कंस ने अत्यन्त चतुराई का परिचय देते हुए जरासंध की दो कन्याओं से विवाह-प्रस्ताव भिजवाया। जरासंध कंस के व्यक्तित्व, वीरता, और संगठन क्षमता से पहले से ही प्रभावित था। उसने प्रस्ताव स्वीकार करते हुए अपनी दो कन्याओं का विवाह कंस से कर दिया। अपने-अपने साम्राज्य के विस्तार हेतु दोनों को एक-दूसरे की आवश्यकता थी।

वसुदेव अपने वचन-पालन के लिए विख्यात थे। उन्हें जैसे ही प्रथम पुत्र की प्राप्ति हुई, अपने हाथों उसे कंस को सौंप दिया। कंस ने पहले तो उस शिशु को वापस कर दिया, परन्तु कुटिल मंत्रियों के परामर्श पर पुनः वसुदेव जी के हाथों से अबोध शिशु को छीनकर, सबके देखते ही देखते उसे नीचे पत्थर पर दे मारा। शिशु के प्राण-पखेरु उड़ गए। वसुदेव जी विलाप करने के अतिरिक्त कुछ भी न कर सके।

जैसे-जैसे समय व्यतीत हो रहा था, कंस की चिन्ता बढ़ती जा रही थी। उसके मंत्रिपरिषद में विवेकशील मंत्रियों का सर्वथा अभाव था। जनता कंस, उसके मंत्रियों और सेना की निरकुंशता तथा व्यभिचार से त्राहि-त्राहि कर रही थी। समर्थ नागरिकों ने अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु कुरु, पंचाल, केकय, शाल्व, विदर्भ तथा कोशल जैसे समीपर्ती राज्यों की शरण ले ली। मथुरा में निरीह और अत्याचार सहने की क्षमता वाले नागरिक ही शेष रह गए। कुछ अवसरवादी लोगों ने समय रहते पाला बदल लिया। कंस ने उनका स्वागत किया और उन्हें उचित सम्मान देते हुए समायोजित भी किया। कंस के आसपास सिर्फ “हाँ में हाँ” मिलाने वालों की मंडली थी। किसी ने सुझाव दिया —

“महाराज! यदि कभी वसुसेव पुत्रमोह के कारण बदल गए तो? अगर उनके एक भी पुत्र की तस्करी हो गई तो? अच्छे कूतनीतिज्ञ को किसी पर आँख बंद कर विश्वास नहीं करना चाहिए। ईश्वर ने मनुष्य को मात्र दो नेत्र दिए हैं लेकिन राजा को कम से कम छः नेत्रों की आवश्यकता होती है — दो आगे, दो पीछे और एक-एक अगल-बगल। वही सफल राजनीतिज्ञ होता है जो आने वाले संकट को समय पूर्व ही पहचान लेता है। हे नृपपति! देवकी आपकी भगिनी हैं, अतः उनके प्रति आपका मोह स्वाभाविक है। परन्तु इसमें आसन्न विपत्ति की परछाईं हमें स्पष्ट दॄष्टिगोचर हो रही है। वसुदेव और देवकी को स्वतंत्र रखना आपके हित में नहीं है। वे कभी भी अपने वचन से फिर सकते हैं। अतः हे नाथ! उन्हें मथुरा के राजकीय बंदीगृह में कड़े पहरे के बीच रखना ही साम्राज्य और आपके हित में होगा।”

मंत्री ने जैसे कंस के मन की बात कह दी थी। कंस ने अविलंब वसुदेव और देवकी को कारागृह में डालने का आदेश पारित कर दिया।

 

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

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