हाँ जी, हाँ जी ही नहीं करते रहें

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हाँ जी, हाँ जी ही नहीं करते रहें

कभी सच भी कहने का साहस जुटाएँ

 डॉ. दीपक आचार्य

9413306077

आजकल बहुत बड़ी संख्या में ऐसे लोगों का जमघट लगा हुआ है जो हमेशा हर काम में हाँ जी, हाँ जी करते रहने के आदी हो गए हैं। इन लोगों को इस बात से कोई सरोकार नहीं है कि क्या अच्छा और क्या बुरा है, कौन सज्जन और कौन दुर्जन है, अथवा क्या सच है और क्या झूठ। इन्हें सिर्फ सामने वाले लोगों की हमदर्दी पाने या उनसे अपने स्वार्थ पूरे करने भर से मतलब है, इसलिए जहाँ कहीं मौका आता है, हमेशा हाँ जी, हाँ जी ही करते रहते हैं।

हाँ जी की रट लगाने वाले लोगों की संख्या आजकल ज्यादा है और उसी अनुपात में वे लोग भी हैं जो हाँ जी ही सुनने के आदी हो चले हैं। आजकल आदमी इतना उतावला, चिन्तित और सशंकित रहने लगा है कि बहुत जल्दी-जल्दी सब कुछ पा जाना चाहता है और ऐसे में उसे ना शब्द सुनना सबसे ज्यादा अखरने वाला हो गया है। यही कारण है कि हाँ जी सुनने और कहने वाले यस मैनों की संख्या सारे आँकड़ों को पार कर उछाले मार रही है।

हाँ जी सुनने और हाँ जी कहने का मतलब ही है कि आदमी अपने स्वार्थों को पूरा करने-कराने के लिए जुटा हुआ है और ऐसे में हर कोई हाँ जी ही चाहता है। ना जी कहना और सुनना अब आदमी के लिए सर्वाधिक अवसाद देने वाला हो गया है।

हमारे आस-पास से लेकर दूरदराज तक दोनों ही किस्मों के लोग बड़ी संख्या में विद्यमान हैं जो हाँ जी सम्प्रदाय के हैं। इनमें शोषक भी हैं और शोषित भी। चालाक और धूर्त्त किस्म के आदमी भी हैं और बेचारे भोले-भाले और सरलमना भी।

चतुर हाँ जी अपने स्वार्थ पूरे करने के लिए गलियाँ तलाश लेते हैं और गलियों से होकर उछलकूद करते हुए फोनलेन एवं सिक्स लेन तक जा धमकते हैं वहीं बेचारे सहज-सरल लोग हाँ जी कहने और करने की विवशता के मारे गलियों में ही औंधे मुँह गिरे रहते हैं और तब तक गलियों की ख़ाक छानते रहते हैं जब तक की दूसरे हाँ जी उनका स्थान न ले लें।

हाँ जी कहने और सुनने वाले लोग अच्छे रंगकर्मी और अभिनेता से लेकर बहुरुपिये तक हो सकते हैं। ये हर अभिनय को जीना जानते हैं और अपने अभिनय से औरों को मारने तक का पूरा माद्दा रखते हैं। कभी ये खुद भी बार-बार मर कर अमर हो उठते हैं और कभी औरों को मारकर हाथ धोने का नाम तक नहीं लेते। इनका जीवन रक्तबीज की तरह होता जा रहा है। आज हमारे सामने असंख्य रक्तबीज हुँकार भरते नज़र आते हैं।

हाँ जी सम्प्रदाय के ये लोग बड़े लोगों के इर्द-गिर्द होली के घूमर नृत्य की तरह जयगान करते रहते हैं। कभी दुम हिलाकर पीछे-पीछे चलते हुए अनुयायी या अंधानुचर की भूमिका में आ जाते हैं और जैसा आगे से कहा जाता है, पीछे चल रहे सारे हाँ जी सियारों की तरह हाँ जी, हाँ जी का राग अलापने लगते हैं।

ऐसे में आदमियों के इस जंगल में सर्वत्र एक ही शोर सुनाई देने लगता है- हाँ जी, हाँ जी….हाँ जी। लगता है जैसे सारे के सारे नकारात्मक लोग अचानक बदल कर सकारात्मक हो गए हों।

बहुत से लोग तो ऐसे हैं जिनके बारे में अक्सर कहा जाता है कि इन्हें कोई भी बात कहो, काम कहो, हाँ जी कहते रहेंगे। काम होना या न होना तो भाग्य की बात है। लेकिन ये लोग इतने पोजिटीव थिंकिंग वाले लगते हैं जैसे खुद आदमी न होकर धरा के कल्याण के लिए देवदूत ही टपक पड़े हों।

कोई सर, सर की रट लगाता है, कोई यस सर, यस सर की, कोई यस मैम, यस मैडम की, कोई हुकुम, कोई हो जाएगा, और कोई कहता है बस हो ही गया मानिये सर। ऐसे हाँ जी वाले आदमियों की प्रजाति आजकल हर बाड़े, मोहल्ले और गलियों-चौबारों से लेकर मीर मारने तक के मैदानों में हावी है।

यह सर सर और सरसराहट की सरासर पसरती आवाजों में बस्तियों का शोर कहीं खो जाता है और एक अलग ही किस्म का शोर पसर जाता है जो अपने आप में कई-कई रहस्यों को समेटे हुए होता है। इन नित नवाचारों भरे रहस्यों की परतें आज तक कोई पूरी तरह उघाड़ नहीं सका है, न उघाड़ सकेगा, चाहे आरटीआई वाले कितना ही शोर मचा लें।

दोनों तरफ के लोग अच्छा ही अच्छा सुनना और बोलना चाहते हैं। जहाँ मौका मिलता है एक गरदन ऊँची कर हुक्म फरमाता है और दूसरा गर्दन नीची कर हुक्म की तामिल करने का भरोसा दिलाते हुए हाँ जी, हाँ जी की टर्र करने लगता है।

लोगों की यह किस्म भी बड़ी ही अजीब है। जो कुछ कहो वहाँ हाँ जी ही निकलेगा। राम की भी जय, रावण की भी जय और कृष्ण की भी जय और कंस की भी जय कहने वाले ये हाँ जी हैं ही ऐसे कि इनका सत्य और यथार्थ से कोई अर्थ नहीं है।

इन्हें सिर्फ सामने वाले को खुश रखने या अपने लिए अर्थ का प्रबन्ध करने से बढ़ कर जीवन का और कोई महान लक्ष्य कभी दिखता ही नहीं। कई बार सत्य को जानते-बूझते हुए भी ये सामने वाले के समक्ष सही बात कहने का साहस नहीं जुटा पाते हैं। जुटाएं भी कैसे, उनका ही नमक खाया है और उन्हीं के गिलासों में पैग पर पैग चढ़ाने का आनंद जो लिया है, उन्हीं के पर्स से फेंके गए नोटों पर पल कर यहाँ तक पहुंचे हैं। जो कुछ भोग-विलास और ऐश्वर्य आज पा रहे हैं वह भी तो सब उनकी किरपा से मुफतिया ही पा रहे हैं।

ऐसे में बात कैसी भी हो, इनके पास हाँ जी कहने के सिवा और कोई चारा ही नहीं है। फिर उन लोगों को भी ना जी सुनने की आदत कहाँ है, जिनके ये कहे जाते हैं। पूरी जिन्दगी झूठ की नींव पर महल खड़ा करते रहने वाले इन लोगों के लिए वे ही ईश्वर हैं जिनके टुकड़ों पर ये पलते हैं।

इन्हें उस ईश्वर से क्या मतलब है जो पूरी सृष्टि का स्वतः संचालन कर रहा है। चार्वाक धर्म को अपना चुके इन लोगों के लिए वे ही ईश्वर हैं जिनके लिए वे पूरी जिन्दगी हाँ जी, हाँ जी करते हुए जाने कहाँ-कहाँ से, किस-किस का बटोर कर आज बड़े और प्रतिष्ठित कहलाने में गर्व का अनुभव कर रहे हैं।

असत्य का आश्रय पाकर सत्य का अवगाहन कभी नहीं किया जा सकता। असत्य को अंधकार के साथ रहना है और अंधकार में ही विलीन हो जाना है। इनके लिए उल्लूओं, झींगुरों और चिमगादड़ों की भावी पीढ़ियाँ हमेशा इंतजार करती रहती हैं।

1 COMMENT

  1. क्या बात है!
    सशक्त व्यंग्य प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत बधाई.
    ये ‘हाँ-जी’ वादी जिस दिन मरेंगे, उस दिन (उन्हें पता भी नहीं होगा) पर वें एक दिन भी जिए बिना मर जाएंगे.
    अपनी ही आत्मा को मार देते हैं, ये मुर्दे, फिर उस ‘मरे हुए अपने’ आप को सजा धजा कर झुक झुक कर नमन करते हुए, हाँ जी हाँ जी करते करते विदूषक की भाँती नाटक करते रहते हैं.
    इन्हीं लोगों ने इंदिरा गांधी की चापलूसी कर के देश पर आपातकाल लाया था.
    आज की समस्त समस्याओं में इन्हीं का मौलिक(?) योगदान हैं.

    क्या देशका प्रधान मंत्री भी कहीं हाँ जी वादी तो नहीं?

    कहाँ कौटिल्य ने दर्शाया हुआ निर्लिप्त परामर्श देने वाला आदर्श महा-अमात्य और कहाँ ये गर्दभगानी निकट-दृष्ट दिग्विजयी गधे?
    बहुत बहुत बधाई .

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