आम आदमी पार्टी की दिल्ली विधानसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत ने राजनीति में प्रयोग और शुचिता की बहस को बढ़ा दिया है| ‘आप’ की जीत से सवाल तो उठता ही है कि वे क्या कारण रहे जिनसे कांग्रेस-भाजपा जैसे स्थापित राजनीतिक दलों से आम आदमी का मोह भंग हुआ? मोदी-राहुल जैसे स्थापित और आकर्षक राजनीतिज्ञों की राजनीति और अनुमान भी ‘आप’ की जीत को नहीं रोक सके? क्या ‘आप’ को प्रचंड वोट देकर दिल्ली के दिलवालों ने यह जताने की कोशिश की है कि यदि उन्हें राजनीति में सशक्त विकल्प मिला तो वे स्थापित राजनीतिक दलों से परहेज करते हुए उसे अपना सकते हैं? इसका जवाब मिलना हाल फिलहाल तो कठिन ही है| हां इतना अवश्य कहा जा सकता है कि देश में व्याप्त राजनीतिक अस्थिरता का फायदा ‘आप’ को मिला है| यह कांग्रेस या भाजपा से मोहभंग का मामला तो बिलकुल भी नहीं है| ‘आप’ को लेकर यह चर्चा बलवती है कि जितनी तेजी से इसका उदय हुआ है; उतनी ही तेजी से इसका सितारा भी डूबेगा| ऐसी चर्चाओं का वाजिब कारण भी है| चूंकि राजनीति अनिश्चितताओं से भरी है और ‘आप’ जैसे प्रयोग देश में पूर्व में हुए हैं किन्तु उनकी उम्र लम्बी नहीं रही है गोयाकि प्रयोगों से आम आदमी भी जल्द ही उकता गया है| १९७७ में आपातकाल के बाद इंदिरा कांग्रेस को नेस्तनाबूत कर जनता पार्टी ने प्रचंड बहुमत से सरकार तो बना ली किन्तु सत्ता के शीर्ष का सुख उसके नेताओं को अधिक पचा नहीं और जनता ने पुनः इंदिरा कांग्रेस का वरन किया; यह जानते हुए भी कि उन्हें एक बार फिर वही सब जिल्लत झेलनी पड़ सकती है जिसने बचने के लिए उन्होंने जनता पार्टी को जिताया था| फिर एक मौका और आया १९८९ में किन्तु उसका गुबार भी डेढ़ साल में निकल गया| दरअसल इस प्रसंग का यहां ज़िक्र करना इसलिए भी अवश्यम्भावी हो जाता है क्योंकि ‘आप’ के संस्थापक अरविन्द केजरीवाल वही गलतियां दोहरा रहे हैं जिन्हें आम जनता अक्सर नकार चुकी है| दलित राजनीति के बड़े चेहरे रामविलास पासवान ने भी जनादेश की इज्जत न कर खुद की सम्भावनाओं के द्वार बंद किए थे और अब एक बार फिर केजरीवाल इतिहास दोहरा कर उसका हिस्सा बनने की ऒर अग्रसर हैं| दिल्ली ने जनता ने ‘आप’ के लोकलुभावन वादों और दावों को एक मौका दिया और केजरीवाल हैं कि जनता के विश्वास को धूमिल करने में लगे हैं| विधानसभा की २८ सीटें जीतने और कांग्रेस द्वारा समर्थन देने की पहल को जिस तरह वे अस्वीकार कर रहे हैं वे जनता के साथ धोखा ही है| केजरीवाल के तर्क-वितर्क ऐसे हैं मानों कोई बच्चा अपनी मां से रूठा हो और मां उसे मनाने की कोशिश कर रही हो। जनाब यह राजनीति है| अर्थात राज करने की नीति| इसमें साम, दाम, दंड, भेद सभी की खुली छूट है और यदि आपको लगता है कि आप भावनात्मक और लच्छेदार भाषा से जनता को खुद की ऒर कर लेंगे तो माफ़ कीजिएगा, यह आपकी भूल होगी| जैसे भीड़ का कोई चेहरा नहीं होता, उसी तरह राजनीति के मैदान में जनता का भी कोई ईमान नहीं होता| जिस ईमानदारी की केजरीवाल कसमें खाते हैं उनकी प्रामाणिकता पर कई दफे सवालिया निशान लग चुके हैं| सरकारी नौकरी से राजनीति में आए जयप्रकाश नारायण और उनकी पार्टी लोकसत्ता की ईमानदारी पर किसे शक होगा किन्तु मीडिया से लेकर तमाम माध्यमों में उसकी चर्चा ही नहीं होती| चूंकि ‘आप’ ने राजनीति के मैदान को सर्कस में तब्दील कर दिया है लिहाजा उसकी चर्चा भी है और प्रसिद्धि भी| पर जैसे सर्कस के करतबों की उम्र होती है उसी तरह ‘आप’ भी अपनी जवानी देख पाए, इसमें संशय है।