क्या आप भावनाओं से संचालित होते हैं?

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नरेश एक अच्छी कम्पनी में नौकरी करता था, उसका बॉस और वह पिछले पांच सालों से साथ काम कर रहे थे और उसका बॉस उसके काम से संतुष्ट था। अचानक नरेश के बॉस को कंपनी ने प्रमोशन दे कर, दूसरी बड़ी ब्रांच में भेज दिया और नरेश की ब्रांच में उसका दूसरा बॉस आ गया।

यहीं से नरेश के लिए मुश्किलें शुरू हों गई, नए बॉस की कार्य करने की पद्धति पुराने बॉस से अलग थी। नया बॉस उम्र में भी अपेक्षाकृत युवा था। नरेश परेशान रहने लगा और इसका असर उसके काम पर भी पड़ने लगा। नरेश का अक्सर मन होता की वह नौकरी छोड़ कर कहीं भाग जाएँ, पर वह यह सोच कर रह जाता की बिना नौकरी के वह करेगा क्या?

एक तरफ नौकरी के बदले हुए हालत और दूसरी तरफ नौकरी करने की मजबूरी उसकी परेशानी को और बढा देते थे। इसी उधेडबुन और परेशानी में कई महीनें गुजर गए, एक दिन नरेश की कंपनी ने उसके कार्य से असंतुष्ट होकर उसे नौकरी से निकाल दिया। नरेश की परेशानी और बढ़ गयी, वह दुखी रहने लगा. जरूरतों के कारण उसे अपनी योग्यता से कमतर वाली नौकरी करनी पड़ी।

हम अपने आस पास इस तरह के या इससे मिलते जुलते घटनाक्रम को अनुभव करते रहते हैं, हम अपनी स्वयं की जिन्दगी में भी तनाव, परेशानियां और दुखों को पहले से कहीं अधिक बढा हुआ पाते है।

अगर गहराई में जा कर देखे तो पाएंगे की इन सभी के पीछे कही न कही हमारी भावनाएं है. जरा सोचियें इस लेख के शीर्षक “क्या आप भावनाओं से संचालित होंते है ?” का अर्थ आपके लिए क्या है?

हममें से कई लोग अत्यंत भावुक होते है, भावनाओं में बहकर अपने कार्य करते है और अक्सर बाद में पछताते हुए मिलते हैं। वही दूसरे प्रकार के लोग भी है, जो भावनाओ का होना और उन्हें अभिव्यक्त करना अच्छा नहीं मानते हैं, ऐसे लोग अक्सर गुस्से और आतंरिक असन्तोष के शिकार पाए जाते है।

सही मायने में देखा जाये तो हम पाएंगे की भावनाओं में बहना या उन्हें नकारना, एक ही सिक्के के दो पहलु हैं क्योंकि दोनों ही तरह से जो परिणाम मिलते है, वह हमारी दूरगामी खुशी और सफलता के लिए हनिकारक होते है।

आइये देखें कि हमारी जिन्दगी में भावनाओ का अस्तित्व क्यों हैं ? शायद आप को पता होगा की हमारे मस्तिष्क में दो अलग अलग केंद्र होते हैं। एक केन्द्र भावनाओं को संचालित करता हैं और दूसरा हमारे विचारों को। हमारे विचार और भावनाएं अलग अलग महसूस होते हैं, विचार जो मस्तिष्क में उपजते हैं और भावनाएं जो हम शरीर में महसूस करते हैं। हमारी भावनाएं हमारे विचारों से यही कोई सौ करोड़ साल पुरानी हैं।

हमारी भावनाएं हमें प्रकृति का अदभुद उपहार है, यह हमें आंतरिक सन्देश देती है कि हम जिस स्थिती में है या हम जो कर रहे हैं वो हमारे विश्वास, हमारी मान्यताओं और हमारी इच्छाओं एवं आकांक्षाओं के अनुरूप है या नहीं।

हम अच्छी भावनाओं को महसूस करते है जब हम अपने अनुकूल कार्य कर रहे होते है और यदि हम अपने प्रतिकूल होते है तो हम बुरी भावनाएं महसूस करते है।

हम इसे कुछ इस तरह समझ सकते हैं कि हम एक ऐसे क्षेत्र में रहते है जहां अक्सर आग लगती रहती है और वहां भावनाएं हमारे घर में लगा फायर अलार्म की तरह है, इसे यदि हम बंद कर देंगे तो घर जल कर खाक भी हो सकता है, वहीं दूसरी तरफ इसके अत्यधिक संवेदनशील होने पर हमें बार बार गलत अलार्म मिलेंगे, यह हर छोटी मोटी बातों पर बजता रहेगा और हम सुचारू रूप से कोई काम नहीं कर पाएंगे।

जरुरत इस बात की है कि हम इस फायर अलार्म की कार्य प्रणाली को समझ कर इसका संयोजन इस प्रकार करे की यह हमें न सिर्फ विपत्तियों से बचाये बल्कि हमें सुचारू रूप से कार्य करने में मदद करें।

बुरी भावनाओं से निपटने का सबसे आसान उपाय हैं उन्हें समझना, न की उन्हें नकारना या उनके साथ बह जाना। सबसे पहले हम अपने आप से यह पूछें की हम जो भावना महसूस कर रहे है, वह क्या है, कैसी महसूस हो रही हैं और वह हमें क्या बताना चाहती है ? उसके बाद हम उपलब्ध विकल्पों को देखे और उनमें से ऐसे विकल्पों को चुने जिससे हमारी दूरगामी खुशियां भी सुनिश्चित होती हों। हम यह भी देखें कि हम अच्छा महसूस करने के लिए क्या कर सकते है। बेहतर होगा कि हम उन उपायों पर अपना ध्यान केन्द्रित करे जो हमारे बस में हो। ऐसा करने पर हमें धीरे-धीरे न सिर्फ अपनी बुरी भावनाओ से निपटने का अभ्यास होगा, बल्कि हम सही दिशा में अपने प्रयासों का उपयोग कर पाएंगे और अधिक सफल भी बन पाएंगे।

नरेश के उदाहरण को यदि हम देखें तो पाएंगे कि परेशानी, दुख और नौकरी न रहने पर होने वाली तकलीफ के भय ने नरेश को इस तरह जकड़ लिया कि उसकी कार्य करने की क्षमता और कम हो गई। नरेश की तरह हम सभी भी यही गलती करते है और बुरी भावनओं के अस्तित्व को ही स्वीकार करना नहीं चाहते है। यह सर्वविदित तथ्य है कि जिस भी बात का हम प्रतिरोध करते है, वही बात हम पर हावी हो जाती है। यदि कोई आपसे कहे कि आपको लाल मुंह के बंदर के बारे में नहीं सोचना है तो सबसे पहले आपके दिमाग में लाल मुंह के बंदर का ही ख्याल आएगा। हमारा मस्तिष्क इसी तरह काम करता है, उसे यदि आप निर्देश देंगे कि यह काम नहीं करना है तो उसे पहले उस काम के बारे में सोचना पडे़गा जो की नहीं करना है। बस यही कारण है कि जब हम बुरी भावनाओं को नकारते है तो वह हम पर और ज्यादा हावी हो जाती है।

यदि नरेश ने बजाय भावनाओं से पीछा छुडा़ने के, भावनाओं के पीछे छुपे संदेश को समझा होता तो बजाय परेशान होने के वह अपनी कार्यपद्धति को बदलकर ना सिर्फ अपनी नौकरी बचा पाता बल्कि बदलाव का सकारात्मक उपयोग कर अपने को और अधिक प्रभावशाली भी बना पाता।

तो आइये हम संकल्प करे की हम बजाय भावनाओं में बहने या उन्हे नकारने के, उन्हे समझने की कोशिश करे और अपनी भावनाओं एवं विचारों के बेहतर तालमेल से अपने लिए एक सुखी और सफल जिन्दगी की रचना भी करे।

-अमित भटनागर

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