” समरथ को नहीं दोष गोसाई : बाहुबलियों के भरोसे बिहार ? “

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चुनावी – मौसम में बिहार के निजाम नीतीश कुमार जी का मिजाज भी बदला हुआ दिख रहा है , आज नीतीश जी एक बार फिर से अपराध व अपराधियों के प्रति ‘जीरो-टोलरेंस’ की बातें करते दिख रहे हैं l ऐसी प्रतिबद्धता अगर नीतीश जी की तरफ से उनके शासन के बीते हुए वर्षों में भी दिखती तो शायद आज बिहार की तस्वीर  ही कुछ और होती !! आज से लगभग दस साल पहले बिहार में सिर्फ़ निजाम बदला था लेकिन सत्ता का स्वरूप नहीं। नीतीश जी के पिछले दस सालों के  शासनकाल   में भी कमोबेश  स्थिति वही रही  जो पूर्व के शासन काल में थी , फर्क रहा सिर्फ ‘मीडिया -मैनेजमेंट’का , नीतीश जी ने प्रायोजित मीडिया के सहयोग से सिर्फ वही दिखाया जो वो दिखाना चाहते थे l नीतीश जी के शासन में भी हर जिले में दबंग विधायक और सांसदों की अपनी हुकूमत बदस्तूर चलती ही रही , जो भी कार्य केंद्र या राज्य सरकार की योजनाओं के तहत  हुए , सारे में ऐसे ही लोगों  को ठेके दिए जाते रहे  जो नीतिश कुमार जी और सत्ताधारी दल के हितों को पूरा करते थे । बावजूद इसके न्याय के साथ विकास , कानून के राज के दावे ?

 

लालू यादव जी के १५ वर्षों के कुशासन और कथित जंगलराज से मुक्ति पाने के लिए ही तो बिहार की जनता ने नीतिश कुमार जी को शासन चलाने का मौका दिया था लेकिन  नीतीश जी ने  भी अपनी पार्टी में  विरोधियों को कमजोर करने के लिए कभी लालू के कुशासन में नजदीकी भागीदार रहे बाहुबली व आपराधिक चरित्र वाले नेताओं को  अपनी  पार्टी में शामिल करने में कभी कोई कोताही नहीं बरती l इसका पार्टी के साथ-साथ आम जनता में  काफी विरोध भी हुआ था ,लेकिन कहावत है ना कि ” समरथ को नहीं दोष गोसाई “, नीतिश कुमार ने सत्ता के ताकत के बूते विरोध को तत्काल दबा दिया था l आज नीतीश कुमार क्या इस हकीकत से मुँह फेर सकते हैं कि बाहुबलियों व आपराधिक छवि वाले नेताओं की सबसे बड़ी फौज आज भी उनके ही साथ है ?

 

अगर जमीनी हकीकत को देखते हुए नीतीश जी के बहुप्रचारित सुशासनी काल की समीक्षा की जाए तो ये बिना झिझक के कहा जा सकता है कि “नीतीश जी ने  पुरानी व्यवस्था को सिर्फ़ नया जामा पहना कर यथावत बनाए रखने में ही अपनी भलाई समझी और सिर्फ अपनी जरूरतों के लिए जनता को बेवकूफ बनाकर उसे दिन में तारे दिखाने के सपने दिखाए।”

कानून- व्यवस्था के फ्रंट पर निःसंदेह नीतीश कुमार जी की दूसरी पारी  बेहद ही निराशानजक रही है। इसमें अपराधियों,बाहुबली नेताओं व संगठित माफिया गिरोहों  को सत्ता व शासन का खुला संरक्षण प्राप्त रहा । आज सत्ताधारी दल और उसकी सहयोगी टीम में बिहार के तमाम वैसे बाहुबलियों और अपराधिक इतिहास वाले तथाकथित राजनेताओं का जमावड़ा है जो पूर्व के शासनकाल में भी खुद के संरक्षण के लिए सत्ता के साथ थे l फ़ेरहिस्त इतनी लम्बी है कि  आलेख अनावश्यक रूप से लम्बा और उबाऊ हो जाएगा l ऐसे में नीतीश कुमार जी दबाब में आ कर की गई सिर्फ ‘एक ‘ हालिया  कारवाई (बाहुबली विधायक अनंत सिंह पर की गई कारवाई ) के बूते   किस तरह से लोगों को स्वच्छ राजनीति का भरोसा दिला पाएंगे ? यह सवाल आज हर किसी के जेहन में कौंध रहा है। अपराधियों की पत्नी, भाई व परिवार या रिश्तेदारों को पार्टी में शामिल करना , उन्हें टिकट देना या अपराधियों की पत्नियों को मंत्री पद से नवाजना और फिर अपराध दूर करने की नौटंकी करना दोनों बातें एक साथ कैसे हो सकती हैं ?? ये तो वही बात हुई ना ” नयी बोतल में पुरानी शराब ” ? ऐसा नहीं है कि ‘पैकेजिंग के इस खेल’ को लोग समझते नहीं हैं !!

 

इस खेल को आसानी से समझने के लिए आइए थोड़ा पीछे जाते हैं … १९९० से लेकर साल २००५ तक बिहार की सियासत में कई उलटफेर हुए। कई बाहुबली ‘शहीद’ हो गए तो कई लोगों ने सत्ता के सहयोग से  अपनी सियासी जमीन मजबूत बना ली। इस दौर में पप्पु यादव , शहाबुद्दीन, प्रभुनाथ सिंह, साधु यादव, तस्लीमुद्दीन, रणवीर यादव , अवधेश मण्डल ,रामा सिंह , शंकर सिंह , बूटन सिंह, प्रदीप महतो  , शुक्ला बंधु का परिवार , दिलीप सिंह -अनंत सिंह भाइयों की जोड़ी ,सुनील पाण्डेय – हुलास पाण्डेय भाइयों की जोड़ी , राजन तिवारी ( अनेकों नाम हैं ) जैसे लोग भी परिस्थितियों के साथ ज्यादा मजबूत होते चले गए। जहां तक जनमत का मामला था तो इन बाहुबलिय़ों में ज्यादातर का अपने इलाके से बाहर प्रभाव उतना ज्यादा नहीं था। आनंद मोहन जरूर उस दौर में राजपूतों के सबसे बड़े नेता बनकर बिहार में थोड़े दिनों के लिए उभरे , थोड़े दिनों तक हेकड़ी भी दिखाई लेकिन उन्होंने भी सत्ता के सामने सरेंडर करने में  ही अपनी भलाई समझी ( ये कहानी भी बड़ी दिलचस्प है , लेकिन इसकी चर्चा कभी और ) । चूंकी लालू खुद यादवों का नेतृत्व कर रहे थे लिहाजा पप्पू यादव को वो कुर्सी नहीं मिली, लेकिन कोसी के इलाके में पप्पू यादव ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली। शुक्ला खानदान की सियासत को आगे बढ़ाने का काम किया मुन्ना शुक्ला ने। साल दो हजार आते – आते बिहार की राजनीति में नेता कम बाहुबली ज्यादा थे जो सीधे सक्रिय हो गये। इस दौर में सूरजभान, दिलीप सिंह, सुरेन्द्र यादव, राजन तिवारी,सुनील पांडे, कौशल यादव, बबलू देव, धूमल सिंह, देवेन्द्र दुबे , अखिलेश सिंह, दिलीप यादव , रामा सिंह सरीखे नेता सीधे– सीधे खुद के लिए जनता से वोट मांगने जा पहुंचने वालों में शामिल हो गये। ज्यादातर लोग इनमें से जीतकर विधानसभा पहुंचे और बिहार विधानसभा की तस्वीर ही बदल दी । आपको अगर याद न हो तो बता दूं.. कि जब इनमें से ज्यादातर लोग निर्दलीय जीतकर आए तो सात दिन की सरकार में इन बाहुबलियों ने नीतीश कुमार जी का ही साथ दिया था। बाद में कई लोग जहाँ-तहाँ अपनी सहूलियत के हिसाब से सेटिंग करने में कामयाब हो गए।

ताजा हालात ये है कि पिछले चुनावों में कुछ लोग जो दूसरे दलों के टिकट पर जीत कर आए थे या जिन्होंने चुनाव में अपना हाथ आजमाया था और जिनका रिश्ता किसी न किसी रूप में अपराध जगत से जुड़ा है वो लोग सत्ताधारी दल में आ चुके हैं या आने के लिए प्रयासरत हैं l सच ही कहा गया है कि अपराध का सबसे अच्छा संरक्षण और पोषण सत्ता के संसर्ग में ही होता है l आपराधिक जमीन के विस्तार के लिए राजनीतिक जमीन की तलाश निहायत ही जरूरी है l

अब जरा वर्तमान सूरत में चंद बाहुबलियों की जगह के बारे में बता दूं … आनंद मोहन जेल में हैं  और उनकी पत्नी कांग्रेस में। आश्चर्य नहीं होगा अगर कुछ दिनों बाद आनंद मोहन जेल से बाहर आने की अपनी मजबूरी और राजनीतिक समीकरणों के मद्देनजर अपनी पत्नी के साथ फिर से जे.डी. (यू) में लौट आएं। पप्पू यादव तो राजद से निष्कासित हैं ही लेकिन भाजपा के साथ इनकी पकती खिचड़ी की गंध लोगों को लग चुकी है , कागजी तौर पर इनकी पत्नी कांग्रेस के साथ हैं। सूरजभान लोजपा में हैं और अपनी धर्मपत्नी को संसद में भेजने में कामयाब भी हो चुके हैं लेकिन व्यक्तिगत तौर पर सूरजभान की राजनैतिक सक्रियता व्यावसायिक सक्रियता की तुलना में कमतर है l रामा सिंह वैशाली से लोजपा के सांसद हैं और दिग्गज राजद नेता और पूर्व-केंद्रीय मंत्री रघुवंश नारायण सिंह को २०१४ लोकसभा चुनाव में परास्त कर इन्होंने सबों को चौंका दिया , पूरे देश में ये चर्चा चल पड़ी की क्या बिहार में बाहुबलियों का इतना ज्यादा प्रभाव है कि रघुवंश बाबु सरीखा राजनेता भी बड़े अंतर से चुनाव हार जाता है ?  राजन तिवारी अभी हारे हुए हैं और अभी इनकी दबंगई भी दबी हुई ही है । बाहुबली देवेन्द्र दुबे (मृत) की भाभी श्रीमती मीना द्विवेदी देवेन्द्र दुबे की गैरमौजूदगी के बावजूद दुबे परिवार की दबंगई के दम पर विधायक हैं  और जेडी (यू) में हैं l प्रभुनाथ सिंह आर.जे.डी. में हैं, हारे हुए हैं, न विधायक और ना ही सांसद , लेकिन सारण में इनका अभी भी अच्छा – खासा प्रभाव है। सारण क्षेत्र के ही एक और बाहुबली अजय सिंह की पत्नी श्रीमती कविता सिंह भी दरौंदा विधानसभा क्षेत्र से जेडी (यू) की विधायक हैं l तस्लीमुद्दीन अभी आर.जे.डी. में हैं, कोसी (पूर्वाञ्चल बिहार / सीमांचल) के इलाके में इनका अच्छा दबदबा है। साधु यादव न तो सांसद हैं और ना विधायक, अब तो अपनी नई पार्टी बना कर विधानसभा चुनावों के दंगल में ताल भी ठोक रहे हैं लेकिन इनका प्रभाव कहाँ है मालूम नहीं , शायद साधु यादव को खुद भी मालूम नहीं होगा !! शहाबुद्दीन अभी भी जेल में हैं। सजा पा चुके हैं लिहाजा चुनाव नहीं लड़ पाएंगे, पत्नी को जरूर विधानसभा का चुनाव लड़ा सकते हैं ,  वैसे वो लोकसभा का चुनाव लड़कर हार चुकी हैं। इनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता की बात की जाए तो सत्ताधारी दल के साथ इनका कोई ना कोई अंदरूनी गँठजोड़ जरूर है क्योंकि इनका पुरा राजनीतिक कुनबा , जिस में इनके नजदीकी रिश्तेदार एजाजुल हक भी शामिल हैं , आज जे.डी. (यू) के साथ है , ज़्यादातर मामलों में इन्हें जमानत मिल चुकी है और चुनावों को देखते हुए सत्ता की सेटिंग से ऐन चुनावों के पहले अगर ये जेल से बाहर आ जाएँ तो कोई आश्चर्य नहीं !!  मुन्ना शुक्ला की पत्नी श्रीमति अन्नु शुक्ला विधायक हैं और जे.डी.(यू) में हैं lमुजफ्फरपुर और वैशाली में इनका दबदबा है। अनंत सिंह, सुनील पांडे, धूमल सिंह भी जे.डी.(यू) में हैं और विधायक हैं। ये वो बाहुबली हैं जो अपने क्षेत्र के साथ ही आसपास के क्षेत्रों को प्रभावित कर सकते हैं। वैसे और बाहुबलियों की बात करें तो कौशल यादव नवादा के गोविंदपुर से और उनकी पत्नी पूर्णिमा यादव अभी नवादा से विधायक हैं , दोनों की जड़ें जे.डी. (यू) में ही है । जहानाबाद और सीमावर्ती गया जिले में ही बाहुबल के कारण प्रभाव वाले नेता सुरेंद्र यादव भी हैं जो लोकसभा का चुनाव तो जहानाबाद से हार गये थे , लेकिन अभी बेलागंज से राजद के विधायक हैं। इसके अलावा और भी अनेकों नाम हैं जो सत्ताधारी दल के साथ कदम-ताल मिला कर चल रहे हैं l सुनील पाण्डेय भी भोजपुर के तरारी से जेडी (यू) के विधायक हैं और इनके भाई हुलास पाण्डेय भी स्थानीय निकाय कोटे से सत्ताधारी दल ( उस समय एनडीए) की मदद से विधान-परिषद की शोभा बढ़ा चुके हैं l वर्तमान में हुलास पाण्डेय एक बार फिर लोजपा के झंडे के तले विधान-परिषद के आसन्न चुनाव में अपना भाग आजमा रहे हैं , लालू – नीतीश के नए गठबंधन से समीकरण नहीं बदलते तो हुलास पाण्डेय को जेडी (यू) का साथ अवश्य मिलता l रणवीर यादव की पत्नी श्रीमती पूनम यादव खगड़िया से जेडी (यू) की विधायक हैं और दो – ढाई वर्ष पूर्व नीतीश जी की सभा में नीतीश जी और पूरे प्रशासनिक अमले की मौजूदगी में प्रदर्शनकारियों पर खुलेआम शस्त्र लहराकर रणवीर नीतीश जी के प्रति अपनी वफादारी का इजहार भी कर चुके हैं l कोशी अंचल के फैजान गिरोह के सरगना अवधेश मण्डल की पत्नी श्रीमती बीमा भारती जेडी (यू) में हैं और वर्तमान में नीतीश जी के मंत्रीमंडल में भी शामिल हैं l एक जमाने में इसी इलाके के आतंक रहे एक और बाहुबली बूटन सिंह (मृत) की पत्नी श्रीमती लेसी सिंह भी जेडी (यू) की विधायक हैं और मंत्रीमंडल में शामिल हो कर बाहुबलियों की टोली का अलंकरण कर रही हैं l

जैसा की शुरुआत में ही मैं ने बताया हर इलाके में कोई न कोई लोकल बाहुबली है जो एक विधानसभा क्षेत्र की सियासत तो करता ही है। सीतामढ़ी में राजेश चौधरी, अनवारुल हक, श्रीनारायण सिंह , अवनीश कुमार सिंह का प्रभाव है , ये सारे लोग आज या तो जेडी (यू) में हैं या जेडी (यू) की सहयोगी पार्टी राजद के साथ । मोतिहारी में बबलू देव, रमा देवी, सीताराम सिंह, राजन तिवारी, गप्पू राय का प्रभाव तो बेतिया में सत्तन यादव, बीरबल यादव,पूर्णमासी राम का प्रभाव। गोपालगंज में सतीश पांडे, जितेन्द्र स्वामी का प्रभाव है। आरा, बक्सर की बात की जाए तो यहां की राजनीति अलग तरीके से होती है। यहां लाल झंडे की सियासत भी है सो समीकरण समय के हिसाब से बनते बिगड़ते हैं। इसे इलाके से आने वाले सुनील पांडे और भगवान सिंह सरीखे नेता अभी जे.डी.(यू) के विधायक हैं। बेगूसराय में तो कई सूरमा हैं। बेगूसराय, नवादा और पटना के ग्रामीण इलाकों में तो बाहुबलियों का ही हिसाब – किताब चलता है। बेगूसराय के मटिहानी से दबंग जेडी (यू) विधायक नरेंद्र सिंह उर्फ बोगो सिंह ,पटना जिले में अनंत सिंह ,सूरजभान, ललन सिंह ( सूरजभान खेमा ), नागा सिंह (मोकामा), भोला सिंह (पण्डारक) , सूरज सिंह (रामपुर डुमरा) , विवेका पहलवान ( अनंत सिंह का विरोधी खेमा ,बाढ़-मोकामा ) रीतलाल यादव (खगौल-दानापुर-फुलवारीशरीफ़), रामानन्द यादव (वर्तमान में फतुहा से  आर.जे.डी. विधायक ) के गिरोह राजनीति में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सक्रिय रहते हैं l नवादा के एक कोने में बाहुबली अखिलेश सिंह (वारसलीगंज), पँकज सिंह ( स्व. आदित्य सिंह के पुत्र ) ,अशोक महतो, कौशल यादव जैसे लोग प्रभावी रूप से सक्रिय हैं। बिहारशरीफ में पप्पू खां।

पूर्णिया और कोसी के इलाके में तो पप्पू यादव, तस्लीमु्ददीन, आनंद मोहन के अलावा शंकर सिंह, अवधेश मंडल, दिलीप यादव, किशोर कुमार मुन्ना भी राजनीति को प्रभावित करने वाले लोगों हैं। ये है बिहार की सियासत के अपराधीकरण की कहानी का कमोबेश लगभग पूरा खाका । वैसे और भी कई दबंग लोग हैं जिनका खास – खास इलाके में खासा प्रभाव है। वैसे कुछ लोगों के नाम छूट गये होंगे, ऐसा मुझे लगता है। लेकिन मोटा – मोटी बिहार की सियासत में बाहुबलियों के दबंगई की यही तस्वीर है । रही बात किस के साथ  कितने बाहुबली हैं ? तो आप सबों को अब तक तो अंदाजा हो गया ही होगा  कि सत्ता या सत्ता के सहयोगी का साथ पसंद करने वाले बाहुबलियों की संख्या ही ज्यादा है l

लेकिन इस हकीकत को भी नकारा नहीं जा सकता कि ‘ऐसे लोग (कथित बाहुबली )’ सिर्फ और सिर्फ राजनीति की पैदाइश होते हैं ( महाज्ञानी लोगों से अनुरोध है कृप्या यहाँ ‘पैदाइश’ शब्द के अर्थ का अनर्थ निकालने की चेष्टा न करें ) और राजनीति और सत्ता की सीढ़ी के सहारे ही परवान चढ़ते हैं l लेकिन  जब – जब ये राजनीति के लिए सिरदर्द बनते हैं या राजनीति के समीकरणों में फिट बैठते नहीं दिखते तो राजनीति इन्हें इनकी औकात भी बता देती है l बिहार की ही बात करूँ तो ऐसे लोगों के साथ  ‘यूज एंड थ्रो’ का फॉर्मूला यहाँ सबों  ने  अपनाया है चाहे लालू यादव हों , नीतीश हों, भाजपा हो , काँग्रेस या अन्य कोई भी , सिर्फ लोजपा को छोड़कर , लोजपा ने कभी ऐसे लोगों को ‘थ्रो’ नहीं किया l इस संदर्भ में जेडी (यू) के बाहुबली विधायक और छोटे सरकार के नाम से कुख्यात अनंत सिंह पर की गई हालिया पुलिस-प्रशासनिक कारवाई का उदाहरण सबसे उपयुक्त है l अनंत सिंह पर की गई पुलिसिया – कारवाई नीतीश जी की  सुशासन  के प्रति प्रतिबद्धता का प्रतिफल नहीं है अपितु एक यादव युवक की हत्या के शक की सुई अनंत सिंह की ओर घूमी और इसी मौके का फायदा उठाते हुए  लालू जी ने अपने यादव वोट-बैंक को खुश करने के लिए सरकार को कारवाई करने के लिए बाध्य कर दिया l अगर चुनाव सिर पर नहीं होते या लालू जी के साथ गठबंधन नहीं होता तो नीतीश जी कतई कोई कारवाई नहीं करते , सीधे शब्दों में कहूँ तो ” चुनाव नहीं होते तो कोई भी मरता ना लालू रिएक्ट करते ना नीतीश एक्ट” l दो दशकों तक जिस पेड़ को किसी ने ‘सींचा’ हो , उसका ‘फल’ खाया हो , उसकी ‘छांव’ का सुख भोगा हो उसे कोई ‘काटता’है क्या ? वैसे एक वक्त था जब लालू जी  भी इस कथित ‘पेड़ (अनंत सिंह)’ की शरण में गए थे (भले ही कम समय के लिए  ही सही ) लेकिन इस ‘पेड़’ का ‘माली’ बने रहने में नीतीश जी ने लालू जी को पछाड़ दिया था l
काश…”आसन्न विधानसभा चुनाव में जनता ऐसे लोगों और इनको संरक्षण देने वालों को नकारे , गलत, भ्रष्ट और आपराधिक छवि के लोगों का साथ लेने के बावजूद छद्यम स्वच्छ छवि बनाने के प्रयासों को समझकर जनता एक बार फिर उल्लू बनने से बचे !!!” वैसे तो कहा जाता है कि  “जनता सब जानती है और इतिहास भी गवाह है कि उसे ज्यादा दिनों तक कोई भी पार्टी या नेता बेवकूफ नहीं बना सका है l”
आलोक कुमार

1 COMMENT

  1. अभी नीतीश को सब याद आयेगा वह सिर झुका कर सब के लिये हाँ भर देगें लेकिन बाद में क्या होगा? आख़िर रोना जनता को ही होगा

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