न जाने किस विश्वास पर
दिन -रात मैं राह तकता रहा
जलता रहा मैं दीपक बनकर ……….
पर न आयीं तुम हवाएं बनकर
जल गये मेरे अरमा सारे
मन कि अगन प्यास बनकर रह गयी
तन भी मेरे साथ न दिया
मिट गये सपने सारे
जल गये लम्हें प्यारे सारे
न आयीं तू मेरे सपनों में
न आयीं तू मेरे नगमों में
मैं जलता रहा विश्वास कि अगन में
मै तड़पता रहा तेरी यादो में
मै बन न सका तुम्हारा अपना
क्योकि तुम भूल गयी मेरी नई संवेदनाए
मैं अकेला हो गया सांवली गांवली……..
शायद , मैं जलता रहा विश्वास कि अगन में
पर हो न सका अपना
जलता रहा मै दीपक बनकर
पर बन न सका तेरा अपना …………………….. @ लक्ष्मी नारायण लहरे कोसीर पत्रकार