‘आप’ से कितना जुड़ेगा आम आदमी

1
196

 डॉ. आशीष वशिष्ठ

आखिरकार एक सामाजिक जनआंदोलन की कोख से राजनीतिक दल का जन्म हो ही गया. इण्डिया अंगेस्ट करप्शन के मुख्य कर्ता-धर्ता, पूर्व आयकर आयुक्त एवं सोशल एक्टिविस्ट अरविन्द केजरीवाल ने अपनी राजनीतिक पार्टी का नाम आम आदमी पार्टी (आप) रखा है. केजरीवाल अब उस जमात में शामिल हो गए हैं जिसको देश की जनता संदेह की दृष्टि से देखती है.

केजरीवाल और उनकी टीम लगभग दो वर्षों से राजनीति की कालिख, बेशर्मी और हठधर्मिता को देश की जनता के सामने लाते रहे हैं. राजनीतिक दल गठन से कुछ दिन पूर्व वे राबर्ट वाड्रा, सलमान खुर्शीद, नितिन गडकरी जैसे नेताओं की पोल खोल चुके हैं. केजरीवाल खुद देश की जनता को यह बता रहे हैं कि राजनीतिक व्यवस्था और नेता आकंठ तक भ्रष्टाचार में डूबे हैं.

सवाल है कि जब राजनीति काजल की कोठरी और भ्रष्टाचार के कीचड़ में सनी हुई है तो फिर केजरीवाल ने स्वयं इस कीचड़ में उतरने का निर्णय क्यों लिया? वर्तमान भ्रष्टï राजनीतिक व्यवस्था और नेताओं से ऊबी जनता जिस भावना, जोश और आवेश के साथ इण्डिया अंगेस्ट करप्शन से जुड़ी थी, क्या वैसे ही आम आदमी ‘आप’ से जुड़ेगा, यह अहम् प्रश्न है. केजरीवाल राजनीति की पथरीली, कंटीली और ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चल पड़े हैं वो इसमें सफल होंगे या असफल, इस प्रश्न का उत्तर भविष्य के गर्भ में छिपा है.

राजनीति बड़ी कठोर, निर्दयी और संवेदनहीन होती है उसका कुछ अनुभव पिछले दो वर्षों में अरविंद को हो ही चुका है. सवाल है कि क्या अरविंद को राजनीतिक दल बनाने के बाद पूर्व की भांति भारी जनसमर्थन मिलेगा? क्या वे राजनीति की काली कोठरी के काजल से स्वयं को बचा पाएंगे? क्या राजनीति में सफल होने के लिए दूसरे राजनीतिक दलों व नेताओं की भांति वही तो नहीं करेंगे जिसका अब तक वो विरोध करते आए हैं?

केजरीवाल व्यवस्था परिवर्तन की बात कर रहे इसलिए उन पर देश के आम आदमी से लेकर विशेष तक सबकी दृष्टि लगी हुई है. राजनीति में वोट की शक्ति अहम भूमिका निभाती है ऐसे में आम आदमी उनके साथ कितना खड़ा होगा और जुड़ेगा.

सामाजिक आंदोलन जनाक्रोश, मुसीबतों, परेशानियों और व्यवस्था सुधार की उपज होते हैं जिनमें नि:स्वार्थ भाव से आमजन और समूह के कल्याण और सुधार की बात होती है. पिछले दो वर्ष में इण्डिया अंगेस्ट करप्शन के बैनर तले लाखों की भीड़ जुटने का सबसे बड़ा कारण यही था कि देश की जनता सार्वजनिक जीवन में तेजी से बढ़ते और फैलते भ्रष्टाचार पर प्रभावी रोक लगाने के लिए जन लोकपाल बिल चाहती थी. लेकिन राजनीति की हठधर्मिता और अड़चनों से जनता का मनोबल टूट चुका है और भीड़ छितर चुकी है. अन्ना और केजरीवाल अलग रास्तों पर चल पड़े हैं. अन्ना अभी भी जनआंदोलनों में विश्वास रखते हैं, लेकिन केजरीवाल ने व्यवस्था परिवर्तन के लिए राजनीति की राह पकड़ी है.

टीम अन्ना के टूटने से आम आदमी का जनआंदोलनों से विश्वास भी टूटा है. वर्तमान में आम आदमी राजनीतिक दलों और सामाजिक आंदोलनों से बराबर की दूर बनाये हुए है. वो चुपचाप सारे ड्रामे और उछल-कूद को देख रहा है. असल में आम आदमी अनिर्णय की स्थिति में पहुंच चुका है. उसे यह समझ में नहीं आ रहा है कि वो किसका साथ दे और किससे किनारा करे. आए दिन राजनीति और नेताओं के काले कारनामों का भंडाफोड़ हो रहा है. दो-चार दिन की उठापटक और बयानबाजी के बाद मुद्दा फाइलों और जांच के नाम पर दफना दिया जाता है.

ऐसे वातावरण में आम आदमी यह सोचने लगा है कि नेता और सामाजिक कार्यकर्ता स्वार्थसिद्धि के लिए उसका प्रयोग कर रहे हैं. रामदेव और अन्ना के आंदोलन ने आम आदमी को और कुछ दिया हो या नहीं, लेकिन तर्कशील और अच्छा-बुरा समझने की शक्ति तो प्रदान की ही है.

आज आम आदमी के परेशानियों का अहम् कारण राजनीति और नेता ही हैं. इक्का-दुक्का नेताओं को छोडक़र आम आदमी राजनीति और नेताओं के बारे में अच्छे विचार नहीं रखता. वोट बैंक, जात-पात, बोली-भाषा और धर्म की ओछी राजनीति करने वाले नेताओं की कथनी-करनी में कितना फर्क और भेद है वो स्वतंत्रता के छह वर्षों बाद ही सही जनता को समझ में आने लगी है.

राजनीति सेवा की बजाय मेवा खाने और कमाने का जरिया बन चुकी है. देश की जनता और विशेषकर युवा पीढ़ी और लिखा-पढ़ा वर्ग राजनीति से दूरी बनाये हुए है. अरविंद के आंदोलन की सबसे बड़ी शक्ति देश के युवा, मध्यम वर्ग और पढ़े-लिखे लोग ही थे. ये वर्ग राजनीति और नेताओं को भ्रष्ट, स्वार्थी, अपराधी, गुण्डा, अनपढ़ और देश के विकास में बाधक मानता है. अब केजरीवाल जब उसी रास्ते पर चल पड़े हैं जिसे वो अब तक कोसते रहे हैं.

लोकतान्त्रिक व्यवस्था और राजनीति में सफल होने के लिए जनसमूह और भीड़ से अधिक आवश्यकता वोट की होती है. किसी की पोल खोलना आसान हो सकता है, लेकिन एक-एक वोट बटोरना कितना मुश्किलहोता है यह केजरीवाल को अभी मालूम नहीं है. जिस देश में जनता धर्म, भाषा, जात-पात और क्षेत्रवाद के जाल में फंसी हो, जहां काम की बजाए नाम और चुनाव चिन्ह देखकर वोट दिया जाता हो, जहां चरित्र प्रमाण पत्र से अधिक जिताऊ होना टिकट पाने की प्राथमिकता हो वहां सीधे-सीधे चलकर या बोलकर कोई सफल हो पाएगा इसमें संदेह है.

जो लोग नेताओं पर भड़ास निकालने के लिए सडक़ों पर निकलते हैं वही वोट डालने की बजाए घर में सोना अधिक पसंद करते हैं. वर्षों से प्रदूषित राजनीति के हवाओं में सांसें ले रहे लोगों की मानसिकता भी राजनीतिक दलों के समान हो चुकी है जो सैकड़ों प्रयत्नों के बाद भी बदली नहीं है. ऐसे में वो ‘आप’ का कितना साथ देंगे ये प्रश्न सोचने को विवश करता है. केजरीवाल राजनीति के गंदे तालाब में उतरकर घर की गंदगी साफ करना और व्यवस्था बदलना चाहते हैं, लेकिन शायद वो भूल गए हैं कि खूबसूरत मोर के पैर ही उसके शरीर के सबसे बदसूरत अंग होते हैं.

 

1 COMMENT

  1. डाक्टर वशिष्ठ आपने खाका तो अच्छा खींचा और आम आदमी कीनिराशा को भी ठीक दर्शाया,पर आप यह भूल गए कि अगर निराशा के इस गर्त से बाहर आना हैऔर आम आदमी को दिशा निर्देश देनी है तो उसके लिए किसी को तो सामने आना ही पड़ेगा.केजरीवाल ने आपकी अदालत में एक प्रश्न के जवाब में कहा था कि जनता के पैसे के बल पर लड़कर शायद हम नहीं जीत सकें,पर उस हालत में नुकशान किसका होगा?आम आदमी को यह समझना होगा तभी वह इस दलदल से बाहर आ सकेगा,नहीं तो अरविन्द केजरीवाल या उनके जैसे लोग कुछ भी नहीं कर पायेंगे.कल की सभा में मैं उपस्थित था.कल छुट्टी का दिन नहीं था,फिर भी जो भीड़ थी वह किसी को भी उत्साह दिलाने वाली थी.लोग बहुत दूर दूर से चल कर वहां पहुंचे थे.मैंने सत्तर के दशक का आन्दोलन केवल देखा नहीं था,बल्कि अपने ढंग से उसका हिस्सा था.पिछले वर्ष के अन्ना के अनशन और उसके बाद का जो नजारा मैं देख रहा हूँ ,वह उससे कम नहीं है,फर्क इतना अवश्य है कि वह लड़ाई ईन्दिरा गांधी जैसे एक ताकतवर नेता के खिलाफ थी और पूरा विपक्ष उनके खिलाफ उठ खड़ा हुआ था.यह उससे बड़ी लड़ाई है क्योंकि यह पूरी व्यवस्था के खिलाफ है,पर आम आदमी वर्तमान व्यवस्था से इतना उब चूका है कि अरविन्द केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने अगर इसको ठीक से सञ्चालन किया तो शायद वह चमत्कार हो जाए जिसे आज सपने में भी नहीं सोचा जा सकता.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here