आप हो या बाप ! मलाई बांटने ‘ चालाक बंदर’ पहुंच ही जाते हैं…!!

अन्ना हजारे से अलग होकर अरविंद केजरीवाल ने जब आप नाम से नई पार्टी बनाई तो किसी को भी  इस बात का भान नहीं था कि दिल्ली चुनाव में यह इतनी जबरदस्त सफलता हासिल करेगी। चुनाव बाद जब  इसकी  लोकप्रियता चरम पर थी, तब भी इसी को यह अंदाजा नहीं था कि यह नई पार्टी इतनी जल्दी मुंह के बल गिरेगी।

आज दूसरे राजनैतिक दलों की तरह ही आप में भी लड़ाई – झगड़े हो रहे हैं। कहीं लोकसभा चुनाव के लिए घोषित उम्मीदवार का विरोध हो रहा है, तो कहीं टिकट न मिलने से नाराज रोज दो – चार नेता पार्टी से किनारा कर रहे हैं , वहीं  अारोपों में निकाले भी जा रहे हैं।  दूसरी पार्टियों के लिए तो यह सब सामान्य बात है, लेकिन नैतिकता व ईमानदारी की दुहाई देने वाली आम अादमी पार्टी से एेसी उम्मीद किसी को  नहीं थी कि इतनी जल्दी इसे भी आम राजनीतिक बुराई अपनी जकड़ में ले लेगी। हालांकि सच्चाई यही है कि आप हो या बाप किसी भी राजनैतिक दल के सफलता का स्वाद चखते ही चालाक बंदर ‘  मलाई बांटने पहुंच ही जाते हैं। बात ज्यादा पुरानी नहीं है। 2004 के लोकसभा चुनाव से पहले तक जब अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व में तत्कालीन राजग सरकार शाइनिंग इंडिया और अतुल्य भारत के सपनों में खोई हुई थी। कोई सोच भी नहीं सकता था कि फील गुड के अहसास से सराबोर वाजपेयी सरकार चुनाव में औंधे मुंह गिरेगी। लिहाजा उस दौर में समाज के विभिन्न क्षेत्रों में प्रतिष्टित लोग हर दिन दो – चार की संख्या में भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो रहे थे। लेकिन अप्रत्याशित रूप से वाजपेयी सरकार गिर जाने और कांग्रेस की सत्ता में वापसी के बाद एेसे सारे लोग एक – एक कर अपनी पुरानी दुनिया में लौटते गए। कड़े संघर्ष के बाद सफलता हाथ लगने के बाद सत्ता में हिस्सेदारी के मामले में साधारण निष्ठावान समर्पित कार्यकर्ता किस कदर धकिया कर किनारे कर दिए जाते हैं, और सत्ता की मलाई में हिस्सेदारी के लिए चालाक लोग अपनी पैठ बना लेते हैं, इस बात की बढ़िया  मिसाल पश्चिम बंगाल में देखी जा सकती है। यह सच है कि महज एक दशक पहले तक इस बात की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी कि  दुनिया की कोई भी ताकत पश्चिम बंगाल की सत्ता से कम्युनिस्टों को बेदखल भी कर सकती है। क्योंकि समाज के हर क्षेत्र में इसका जबरदस्त संगठन  व दबदबा था।
1998 में कांग्रेस से अलग होकर तृणमूल कांग्रेस का गठन करने के बाद राज्य की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को कोई खास सफलता नहीं मिल पा रही थी। 2001 और 2006  में हुए राज्य के विधानसभा चुनाव कम्युनिस्टों ने ज्योति बसु के बजाय बुद्धदेव भट्टाचार्य के नेतृत्व में लड़ा था। तब एेसा समझा गया था कि अनुभवी ज्योति बसु के स्थान पर नए बुद्धदेव के होने से शायद  कम्युनिस्ट विरोधियों को कुछ सहूलियत हो। लेकिन हुआ बिल्कुल उलटा। हर तरफ कम्युनिस्टों की जयजयकार रही। जबकि ममता बनर्जी और तृणमूल कांग्रेस की स्थिति राज्य में हास्यास्पद जैसी हो गई। एेसी विकट परिस्थितयां झेलते हुए तृणमूल कांग्रेस के निष्ठावान कार्यकर्ताओं ने 2011 के विधानसभा चुनाव में अपनी पार्टी को पूर्ण बहुमत दिलाया। लेकिन सत्ता मिलने के बाद ही ज्यादातर निष्ठावान कार्यकर्ता हाशिए पर धकेले जा चुके हैं। राज्य की सत्ता पर फिर अवसरवादी  अभिजात्य वर्ग ने कब्जा जमाना शुरू कर दिया है। इस साल के लोकसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस के टिकट पर कई नायक – नायिका , गायक – संगीतकार जैसे गैर राजनीतिक पृष्ठभूमि के लोग चुनाव लड़ रहे हैं। जबकि पार्टी को इस मुकाम तक पहुंचाने वाले उनका झंडा लेकर घूमने को मजबूर हैं। कहना है कि पश्चिम  बंगाल की तृणमूल कांग्रेस हो या दिल्ली की आप या दूसरी तथाकथित राष्ट्रीय और क्षेत्रीय पार्टियां । हर जगह एक ही हाल है। किसी भी संगठन के समर्पित कार्यकर्ता अपने बल पर सफलता हासिल करते हैं। लेकिन सत्ता की मलाई तैयार होते ही इसे तैयार करने वालों को परे धकेल कर उसे बांटने के बहाने  चालाक बिल्लियां पहुंच ही जाती है। जो सारी मलाई खुद चट कर जाती हैं…

2 COMMENTS

  1. ==>”इस प्रक्रिया का एक(मेरा)अर्थघटन”,<==

    जब पार्टी को, मात्र अपने बलपर शासन की गद्दी पर बिराजने में दृढ-विश्वास नहीं होता, तो पार्टी ऐसे अवसर वादियों को साथ लेकर सत्ता प्राप्त करना चाहती है। उसका भी चतुराइ भरा, समीकरण हो सकता है।
    संभवतः, आगे जब सत्ता स्थिरता प्राप्त करे, तो ऐसे अवसरवादियों को पचाया जाए, और न पच पाए, तो आप ही आप वे अलग हो जाएंगे।
    राजनीतिमें रेखा गणित की भाँति दो बिन्दू सीधी रेखा से जोडे नहीं जा सकते। उसको जोडनेवाली रेखा बहुतः वक्र ही होती है।
    आप भी आप के अतिथियों का, अपने परिवार के सदस्यों की अपेक्षा अधिक सत्कार करते ही हैं। यह प्रक्रिया कुछ इसी प्रकार की मानता हूँ।
    भा. ज. पा. की गतिविधियाँ मैं इस अर्थ में लेता हूँ।
    अटल जी के समय में भी कुछ ऐसा ही हुआ था। कुछ अतिथि भा ज पा में आकर टिक भी गए थे।
    ऐसे समझौते सत्ता पर स्थापित होने की शक्यता को ध्यान में रखकर होते हैं।

  2. सब जगह यही हाल है,अवसरवादी जगह मंडराने लगते है और उन्हे अपनी चापलूसी व तिकड़मबाजी का लाभ मिल भी जाता है। शीर्स्थ नेता उन्हें ज़मीनी कार्यकर्ताओं से प्राथमिकता प्रदान कर भी देते हैं। जिन लोगों ने उम्रभर दरिया बिछाई और उठाई , हमेशा पार्टी के जय जय कार के नारे लगाये जाते है ऐसे में असंतोष स्वाभाविक भी है विषेशकर जब दल की सत्ता में आने की सम्भावना हो आज जैसा आज बी जे पी में हो रहा है इनका अंजाम दलों कुछ न कुछ तो भुगतना पड़ता ही है

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