युवा और आन्दोलन

yuvaऐसा माना जाता है कि विश्वविद्यालय युवाओं की आवाज़ और उत्साह को दिशा देते हैं | और फिर आन्दोलन का रूप एवं उसका परिणाम उसी दिशा में बढते हैं | दिल्ली का जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय (जे.एन.यू), दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद का उस्मानिया विश्वविद्यालय, कलकत्ता का शान्तिनिकेतन, काशी का बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बी.एच.यू), अलीगढ़ का अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (ए.एम.यू) इसके महत्त्वपूर्ण उदहारण हैं | जिनके सामने सरकारों को कई बार निर्णय बदलने पड़े |

आज हांगकांग जल रहा है | ऐसा नहीं है कि पेट्रोल छिडककर, माचिस लगा दी हो | वहाँ के बाशिंदों को खुलापन चाहिए | वह अपने लिए उन्मुक्त आकाश चाहता है, जहाँ तारों की गिनती कर सके | अपने प्रतिनिधियों को स्वयं चुनकर बुध, शुक्र और बृहस्पत की भान्ति लोकतंत्र के फलक पर बैठा सके और फिर चांदनी रात में झरती अमृतवर्षा का हिसाब मांग सके |

खूबसूरत शहर के लिए लोकतंत्र की चाह का संघर्ष कड़ा है और है भी तो दुनिया के सबसे बड़े साम्यवादी देश के खिलाफ, जहाँ चुनने का आप्शन ही नहीं है | और उस सरकार के विरोध में हांगकांग की सड़कों पर जो उतरे हैं वे कोई और नहीं, वहीँ के विश्वविद्यालयों में पढ़ने वाले युवा छात्र ही हैं | दिनभर प्रदर्शन करते हैं, रात में वहीँ सड़कों पर अपना टेंट बिछाकर सो जाते हैं, सुबह होते ही प्रदर्शन फिर शुरू | ये क्रम कई हफ़्तों से चल रहा है और ये उदहारण है कि युवा शक्ति थकती नहीं है |

ईराक़ को इस्लामिक स्टेट घोषित करने वाले आई.एस.आई.एस (ISIS) के नृशंस आतंकियों के विरोध में उसी समाज की कुर्दिश महिलाओं ने बन्दूक उठा राखी है | अपने समाज, अपने देश को अनावश्यक युद्ध अथवा अशांति से बचाने की सीख उन्हें उनकी संस्कृति से मिली है | और जिन कुर्दिश महिलाओं ने ये जिम्मेदारी अपने जिम्मे ली है वे भी युवा हैं जिनकी उम्र 25 से 35 के बीच ही है |

भारत में, अन्ना आन्दोलन युवओं की बुलंद आवाज़ की मिसाल है |

दामिनी के समर्थन में बिना किसी नेतृत्व में स्वप्रेरणा से दिल्ली के इण्डिया गेट पर रोजाना हज़ारों की संख्या में युवाओं का जुटना प्रतीक है कि युवा शक्ति और उसकी भावुकता कुंद नहीं हुई है | फिर चाहें गरियाने वाले कितना ही आज के युवा को पश्चिमपरस्त करार देते हों |

दिल्ली में रहने वाले अरुणाचल के नीडो की हत्या हुई और अगले ही दिन दिल्ली में रहने वाला पूर्वोत्तर के हर राज्य का बाशिंदा शान्ति मार्च करते हुए सडक पर उतर चुका था | और उस शान्ति मार्च में हाथ में तख्ती उठाये युवा ही चल रहे थे | जिस प्रदेश में इतनी हिंसा होती हो वहाँ का व्यक्ति शान्ति की रैली निकाले, जो पूर्वोत्तर को नहीं समझते उनके लिए यह अजीब सा जान पड़ता है, पर पूर्वोत्तर समाज की वास्तविकता यही है |

लोकसभा-विधानसभा में बैठे प्रतिनिधि हमारे चुने हुए होते हैं | पर साथ में हमारा एक कर्तव्य और बढ़ जाता है – हम उनसे काम भी करवाएं | ‘हमने किसी को नौकरी पर रखा लेकिन उसे देने के लिए हमारे पास काम नहीं, तो नौकर रखने का क्या औचित्य ?’ हमें अपनी प्राथमिकताओं की सूची उन्हें थमानी होगी जिस पर वे अपनी ऊर्जा और संसाधन खर्च कर सकें और तय समयावधि में परिणाम भी मिले | अन्यथा हालत गंगा की-सी हो जायेगी |

युवा शक्ति का आह्वान करने वाले, प्रेरणा देने वाले आन्दोलन हर समय हर काल में सफल नेतृत्व में होते रहे हैं | विश्वामित्र ने राम का आह्वान किया, गुरु गोविन्द ने खुद के बेटों को वारा, विवेकानन्द, गाँधी, जे.पी. इसी परंपरा के परिचायक है | और आज का युवा भी इसी पथ का अनुगामी है | वरना, कौन किसी दामिनी के लिए सड़कों पर उतरता है |

ये शुभ संकेत है कि भारत का युवा हमेशा सक्रिय रहा है, फिर भी कुछ कठिनाईयां हर राह में होती हैं | लेकिन किसी दुर्घटना के बाद ये प्रश्न उठाना कि विश्व में भारत की कैसी छवि बनेगी ये कुछ असमंजस पैदा करता है | उँगलियों पर गिनी जा सकने वाली संख्या की हरकतों को हम पूरे समाज का पक्ष क्यों मान लेते हैं ? अरे ! समाज तो वह है जो अगली ही सुबह दिल्ली की सड़कों पर उतरकर किसी पीड़ित, अनजान चेहरे को न्याय दिलाने के लिए एक साथ खड़ा हो गया, उसके लिए पानी की तेज बौछारों की मार सही, पुलिस की लाठियां तक खायीं, लेकिन डेट रहे | उसमें तजुर्बेकार बुजुर्गों की संख्या कम ही थी, अधिकतर सब युवा ही थे | एक दूसरे को कोई जानता नहीं था, केवल एक विषय था जिसने पूरे देश को जोड़ दिया था | जिसमें विपक्ष था ही नहीं | यह है समाज |

घोटालों में रोज़ पकड़े जा रहे राजनेताओं को भावी युवा पीढ़ी कभी अपना अग्रसर स्वीकार नहीं करेगी | उसका नेता वह है, जिसने उनसे खून माँगा, लेकिन बदले में आजादी दी | जिसने उनके हाथों में कंप्यूटर दिया, हुनर दिया, हौंसला दिया वह है उनका नेता |

आज बेशक हालात और विषय बदल गये हैं, पर संघर्ष उतना ही है | और इतिहास का हर पन्ना देखिये बदलाव तभी नज़र आया है जब आवाज़ युवाओं ने बुलंद की है | अभी चाहें तेलंगाना बनाने में उस्मानिया विश्वविद्यालय के छात्र सड़कों पर आए हों, या 1991 में मंडल कमीशन के विरोध में दिल्ली विश्वविद्यालय से आवाज़ उठी हो | युवाओं में शक्ति होती है, उत्साह होता है, निर्भीकता होती है और आगा-पीछा देखे बिना आग-पानी में कूद पड़ने की उग्रता भी होती है | अनुभव के अभाव में और साहसिक करने की चेष्टा में कई बार हानि भी होती है लेकिन फिर भी संघर्षरत रहते हैं | क्योंकि कुछ जानते हों याँ ना जानते हों, उनका अंतर्मन यह जरूर जानता है कि सफलता और प्रयास में दूरी ज्यादा नहीं होती | और संभवत: इसीलिए भारत अपने युवा सन्यासी और प्रेरक स्वामी विवेकानन्द की जयंती 12 जनवरी को युवा दिवस के रूप में मनाता है |

दक्षिण अफ्रीका में 1940 से 1994 तक मंडेला का संयमित संघर्ष हो, बांग्लादेश में 1940 से 1971 तक मुजीबुर्रहमान का स्वराज्य के लिए, बर्मा (म्यांमार) में आंग सान सू की का लोकतंत्र के लिए, पाकिस्तान में मलाला का महिला और बाल शिक्षा के लिए, अमेरिका में ओबामा का ‘यस वी केन’ (YES WE CAN) का नारा और भारतीय इतिहास के सभी आन्दोलन युवाओं की सहभागिता से ही सफल हुए हैं |

एक सज्जन अनपेक्षित कानूनी पेचों, झगडों में फंसने से बचने के लिए मिसाल के लिए एक दोहा दोहरा देते थे

|| “मून्दहूँ  आँख,  कहीं  कछु नाहिं” ||

आँख मूँद लो, तो कहीं कुछ नहीं है | ग़लत हो रहा है, होने दो, अपने को क्या मतलब है जी | कई बार ये ठीक भी लगता था | लेकिन दोहा दो पंक्तियों का होता है तो पूरा मैंने कर दिया–

|| “बुलंद आवाज़, यदि सही नाहिं” ||

युवाओं की इसी भागीदारी का परिणाम पिछले कुछ वर्षों की एक रिपोर्ट बताती है कि जिन विकासशील देशों में युवाओं ने आन्दोलन में सक्रियता दिखायी वे देश अथवा राज्य धीरे-धीरे विकसित देशों की सूची में शामिल हुए हैं और आज के भारत में भी इसकी झलक दिखाई देने लगी है |

 

गुलशन गुप्ता

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here