स्वामी रामदेव को जनस्वीकार्यता के लिये अपने कन्सेप्ट क्लीयर करना चाहिये

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डॉ. मनोज जैन

अब जबकि श्रीश्री रविशंकर, संत मुरारी बापू और अन्य सतों के करकमलों से जूस पीकर स्वामी रामदेव ने अपने अनशन का पटाक्षेप कर दिया है फिर भी यह अनशन कुछ सवाल छोड गया है स्वामी रामदेव को उन प्रश्नों के जबाब देना चाहिये। जैन धर्म के अनेकों अनुयायी प्रति वर्ष बिना किसी योगासन और प्राणायाम के अभ्यास के 40 दिन की पारणा (उपवास) करते हैं, इनमें महिलायें बच्चे और वृद्ध भी शामिल होते हैं। यह सब करते हुये संभवत: आज तक कोई अस्पताल में भर्ती नहीं हुआ क्योंकि उनकी तपस्या में आत्मतत्व की प्राप्ति के प्रति अगाध आस्था होती है जो उनके तप को अनुकूल बना देती है। पर कुल 4 दिन के अनशन से ही दिल्ली के रामलीला मैदान से हिमालयन योगी स्वामी राम के जौली ग्रान्ट अस्पताल पंहुचे स्वामी रामदेव की योग को लेकर किये गये अतिवादी दावों और कार्यपद्धति पर देश और दुनिया के मीडिया में बहुत लोगों ने प्रश्नचिन्ह उठाया है।

स्वामी रामदेव योग और प्राणायाम की अपनी पद्धति को पतंजलि योग कहते हैं। पर उनकी योग प्रणाली में प्राणायाम पर ही अत्याधिक जोर दिया जाता है। आहार एंव जीवन चर्या पर चर्चा ही अधिक होती है। उसका पालन उतना नहीं होता है इसका प्रमुख उदाहरण पंतजलि योगपीठ में संचालित दानापानी कैटर्स की अन्नपूर्णा केन्टीन में देखा जा सकता है जहां यौगिक आहार के साथ-साथ चाट, पकौडी, तला भुना भोजन, आलू की टिक्की, मिठाईयां आदि सहज रुप से उपलब्ध होती हैं। देश और दुनिया के किसी भी योग आश्रम में खान-पान को लेकर अत्यन्त सावधानी बरती जाती है। जो कि आवश्यक भी है। पर पतंजलि योग पीठ में इसका अभाव दिखाई देता है।

वास्तव में योग एक जीवन पद्धति है। जो व्यक्ति को अर्न्तमुखी होकर प्रकृति के अनुकूल रहना सिखाती है। आधुनिक युग में मनुष्य की विलासिता ने उसे रोगी बना दिया है और मनुष्य जैसे ही प्रकृति के नियमों के अनुसार चलना प्रारम्भ करता है उसके स्वास्थ्य में सुधार होना शुरु हो जाता है। स्वामी रामदेव ने योग को चिकित्सा के विकल्प के रुप में ही विकसित किया है। स्वामी रामदेव के स्वास्थ्य में इसलिये गिरावट आई क्यों कि अनशन और उपवास में में मूल अन्तर यह है कि उपवास आत्मशुध्दि के लिये होता है और अनशन अपनी मागों के लिये एक आन्दोलन का एक तरीका है।

इसके अलावा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि योग में भी ”अति सर्वत्र बर्जयेत” का नियम लागू होता है। योगी को उपवास नहीं करना चाहिये क्योंकि योगी न तो कभी भूखा ही रहता है और न ही कभी ठॅूस कर खाता है। संतुलित भोजन के लिये योगी कभी भी स्वादिष्ट भोजन नहीं करता है। क्योंकि स्वादिष्ट भोजन होने की स्थिति में अधिक भोजन खाने की संभावना हो जाती है। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने गीता के 17 वे अध्याय के श्लोक 8 में कहा है –

” आयु: सत्व बलारोग्य, सुख प्रीति विवर्धना:।

रस्या: स्निग्धा: स्थिरा:हृद्या: आहारा सात्विकप्रिया:”

 

स्वामी रामदेव के स्वास्थ्य में चार दिन के उपवास से गिरावट आना इसलिये शुरु हो गई क्योंकि पहली बात तो यह है कि भीषण गर्मी का मौषम उपवास के लिये प्रतिकूल होता है। दूसरी बात यह है कि उपवास के दौरान मन शान्त एंव प्रसन्न रहना चाहिये। जबकि हमेशा प्रसन्न रहने बाले स्वामी रामदेव को मैनें क्रोध एंव क्षोभ में इन्ही दिनों में देखा था। रामलीला मैदान की रावणलीला ने उनको अत्यन्त व्यथित कर दिया था। तनाव के कारण किसी भी व्यक्ति की मनोदशा अनियंत्रित होना स्वाभाविक है, संभबत: यही कारण रहा होगा जब स्वामी रामदेव ने सेना गठित करने की बात कही थी। तीसरी बात यह है कि उपवास के दौरान शरीर में जमा चर्बी पिघलना शुरु होती है जैन परिवारों में सामान्यत: वर्ष भर गरिष्ठ भोजन किया जाता हैं जो कि अतिरिक्त चर्बी के रुप में जमा हो जाता है, उपवास के दौरान इस अतिरिक्त चर्बी के जलने के कारण शरीर को उर्जा प्राप्त होती रहती है और व्यक्ति उपवास से तरोताजा महसूस करने लगता है। पर स्वामी रामदेव के नित्य योगाभ्यास के कारण शरीर में चर्बी का नामोनिशान ही नहीं है। अग्निसार क्रिया के कारण मल भी जमा नहीं है। अत: चार दिन के उपवास से ही शरीर में पानी की कमी और मानसिक तनाव से रक्तचाप में उतारचढाव आना शुरु हो गया।

लोगों ने प्रश्न उठाया है कि जब स्वामी रामदेव जैसे योगी को क्रोध व तनाव आ सकता है तो फिर सामान्य व्यक्ति की बात ही क्या है। उन लोगों को विचार करना चाहिये कि योगी अपनी दु:ख से दुखी नही होता है। परदुखकातरता योगी का स्वभाव होता है। स्ंवय स्वामी विवेकानन्द देशवासियों के दु:ख से दुखी होकर रातों को उठ कर रोने लगते थे। राम और कृष्ण भी दुखियों के दुख दूर करने के लिये क्रोधित हुये थे। यह सात्विक क्रोध है।

राजनैतिक आन्दोलन में अनशन एक प्रभावी तरीका है जिसे गांधी जी ने इजाद किया था। बचपन में सभी बच्चे माता पिता से नाराजगी प्रकट करने के लिये खाना छोड देते हैं और मॉ की करुणा बच्चे के लिये फूट पडती है। गांधी जी कहते थे में उपवास किसी जिद को पूरी करने के लिये नहीं अपितु स्ंवय की आत्मशुध्दि के लिये करता हॅू। और गांधी जी तो जब भी समय मिलता था एंकातवास के लिये चले जाते थें। अनासक्त योग पुस्तक की रचना गांधी जी ने अपने कौसानी प्रवास के एंकातवास में ही की थी। सभी योगी प्राय: अपने आपको भीड और कोलाहल से दूर एंकात में रखने का प्रयास करते हैं। एकांत में ही वह अपनी उर्जा और चेतना को गतिमान रख पाते हैं। योगी अरबिन्द, रमणमहर्षि अक्सर एंकात में ही रहते थे। कई ट्रस्टों के हिसाब किताब, कम्पनियों की मीटिंग, योग शिविरों के निमित्त लगातार प्रवास के बीच तनाव मुक्त रहना सहज नहीं है। और उपवास की अवधि में कठिन और श्रमसाध्य कार्य तो किया ही नहीं जा सकता है। पर स्वामी रामदेव ने 4 जून से लेकर 7 जून तक लगातार संबोधन और भीषण गर्मी में कार्य जारी रखा था इसलिये भी उनको जल्दी ही गहन चिकित्सा की आवश्यकता पड़ गई।

पर एक बात और ध्यान देने योग्य है कि स्वामी रामदेव हमेशा दावा करते थे कि मैं कभी भी अस्पताल नहीं जाउंगा और आचार्य बालकृष्ण जैसे आर्युवेद के महान आचार्य के होते हुये भी ऐलोपैथी की आवश्कता क्यों पडी। आचार्य बालकृष्ण को आर्युवेद की और स्वामी रामदेव को योग की सीमाओं के बारे में जनसामान्य को स्पष्ट करना चाहिये जिससे योग और आयुर्वेद को लेकर कोई भ्रम न रहे।

मैनें पहले भी लिखा है कि स्वामी रामदेव को अभी राजनैतिक परिपक्व होने में बहुत समय लगेगा। दरअसल टीवी चैनलों के युग में स्वामी रामदेव को बहुत जल्दी ही अपार लोकप्रियता मिल गई है। आज भी जनसामान्य में कितने लोग हैं जो स्वामी शिवानन्द सरस्वती, स्वामी सत्यानन्द सरस्वती, स्वामी निरजंनानन्द सरस्वती, स्वामी कुवल्यानन्द, स्वामी गीतानन्द, स्वामी दयानन्द, पदमभूषण वी के एस आंयगर, डॉ. एच. आर. नागेन्द्र, डॉ. ओ. पी तिवारी, आदि को जानते हैं। जबकि विश्वविद्यालयों में योग पर इनकी पुस्तकें पढाई जाती हैैं। इन महान व्यक्तित्वों को जो अभी इसी शताब्दी के हैं योग के क्षेत्र में गहरा सम्मान प्राप्त है। परन्तु इनमें से किसी के भी व्याख्यानों में योग कक्षाओं में अधिकतम संख्या एक हजार भी हो जाये तो बहुत बडी बात होती है वहीं स्वामी रामदेव के यहां काम करने वालों की संख्या ही हजारों में हैं। उनके किसी भी शिविर में 20 हजार की संख्या का होना सामान्य बात होती है। शुद्ध सरल हिन्दी में उनकी वक्तृत्वा शैली किसी का भी मन मोह लेती है। यही कारण है जब तक उनके राजनीति में पदापर्ण का अनुमान नहीं था लालू प्रसाद यादव, सुबोध कान्त सहाय सहित तमाम तथाकथित सेक्युलर नेता और केन्द्रीय मंत्री स्वामी रामदेव के फैन नजर आते थे।

हाई प्रोफाइल लोंगो के बीच लगातार रहने से स्वामी रामदेव को भी ऐसा लगने लगा कि जिस भीड के लिये नेता तरसते हैं वह भीड तो मेरे व्यक्तित्व का हिस्सा है। मैं अपने आप में एक ब्रान्ड हूॅ। जिस बस्तु पर मेरा फोटो छप जाता है वह अपने आप बिकने लगती है। चाहे वह आटा हो, शक्कर हो, बिस्कुट हो या फिर कुर्ता पायजामा ही क्यों न हो।

पिछलें एक दशक से अपने योग शिविरों के मंचों से लगातार राजनैतिक मुददों को छेडतें आ रहे बाबा रामदेव सक्रिय राजनीति में भाग लेने का खण्डन करते रहें हैं। और फिर भारत स्वाभिमान ट्रस्ट के माध्यम से राजनीति में पदार्पण का मन बनाया। कभी हॉ कभी न के झूले में झूलते हुये आखिर स्वामी जी ने राजनीति के अखाडें में पैर रख ही दिया।

राजनीति एक ऐसा नाला है जिसमें गन्दगी खाने बाले जीव-जन्तु और सफाईकर्मी दौनों ही लिसे हुये नजर आते हैं यद्यपि दौनों के उददेश्यों में अन्तर रहता है परन्तु बाहर से तो दौनों एक ही दिखाई देतें हैं। बाहर खड़ा हुआ व्यक्ति दौनों में से ही किसी को भी स्पर्श नहीं करना चाहता है।

सत्याग्रह के मार्ग पर चल कर अनशन कर रहे स्वामी रामदेव अपनी प्राथमिकता ही तय नहीं कर पाये हैं। कभी कहते थे कि शंकराचार्य को गिरफ्तार करने वाली सरकार रामदेव पर हाथ डाल कर तो देखे सारे देश में जो ज्वार उठेगा उसे रोक पाना किसी सरकार के बूते का नहीं है। पर स्वामी रामदेव यह आंकलन नहीं कर पाये कि उनके मुरीदों में ज्यादातर तो उनके मरीज हैैं। जो उनके द्वारा बताये हुये प्राणायाम से ठीक हुये हैैं। और फिर महिलायें हैं जो सहज रुप से भावनात्मक होतीं हैं। भगवा वस्त्र देख कर ही श्रध्दानवत हो जाना जिनके स्वभाव का हिस्सा है। कमरे जैसी कमर बाले प्रौढ़ हैं जो अपनी कमर को कम करने के लिये स्वामी रामदेव के पीछे पीछे चक्की चला रहें है। पर उनके साथ वह तरुणाई कहां है जिसकी जरुरत हर क्रान्ति में पड़ती है। वह तरुणाई राजीव दीक्षित के साथ खडी हो रही थी जिनके असमय चले जाने से भारत स्वाभिमान को अच्छा खासा धक्का पंहुचा हैं।

स्वामी रामदेव यह आंकलन करने में भी सफल नहीं हो सके कि उनके चारों ओर पेड कर्मचारियों का ऐसा दल जो किसी भी कारपोरेट सेक्टर में ‘यस सर’ की मुद्रा में खड़ा रहता है। राजनैतिक आन्दोलन के लिये कितना परिपक्व है। देश भर में भारत स्वाभिमान से जो लोग जुड रहें हैं उनमें अधिकांश चेहरे ऐसे नजर आते हैं जो अपने वर्तमान राजनैतिक दल में उचित पद और प्रतिष्ठा नहीं पा सके हैं और जिसके वे स्वंय को अधिकारी मानतें हैं। दूसरे वह लोग हैं जो आगामीं समय में यह अनुमान लगा रहें हैं कि यदि स्वामी रामदेव की लोकप्रियता वोटिग मशीन तक बरकरार रही तो अपनी भी नैया पार हो जायेगी। या पंतजलि योगपीठ और उनकी सहयोगी कम्पनियों के विक्रेता है जिनको अपनी ऐजेंसी और दुकानदारी कायम रखने के लिये ऐजेडां पर काम करना ही है। परन्तु इस पूरे आन्दोलन में कहीं भी देश की तरुणाई का वह नजारा दिखाई नहीं दिया जो अन्ना हजारे के आन्दोलन में दिखाई दिया था।

स्वामी रामदेव के आन्दोलन में तरुणाई के अभाव का एक बड़ा कारण यह नजर आता है कि स्वामी रामदेव अनेकों मुददों को लेकर चलते हैं। किसी एक मुददे और एक मार्ग पर उनका भरोसा नजर नहीं आता है। अपनी बात को तर्कों से सिद्ध करके आप एक कुशल अधिवक्ता तो हो सकते हैं पर विश्वसनीय नेता नहीं। क्लीयर कन्सेप्ट के अभाव में इस आन्दोलन को स्वीकार्यता कैसे मिलेगी। कभी लोकपाल विधेयक पर सिविल सोसाइटी का पक्ष लेते हैं तो कभी सरकार का आखिर एक रास्ता तो आपको स्वीकार करना ही पडेग़ा। स्वामी रामदेव कभी गांधीवादी तरीके की बात करते हैं तो कभी राज्य के विरुद्ध सशस्त्र सेना के गठन की । क्या आप स्वतंत्र भारत में नक्सलवादी तरीकों को स्वीकार्यता दिलाना चाहते हैं। स्वस्थ्य होने पर स्वामी रामदेव को इस सन्दर्भ में स्पष्टीकरण देना चाहिये जिससे उनकी योजनाओं और तरीकों पर छाया कुहांसा छट सके क्योंकि उनके इस एक वक्तव्य की वजह से अन्ना हजारे ने हरिद्वार जाने से मना कर दिया था।

चौरा चौरी की एक घटना से व्यथित होकर महात्मा गांधी ने असहयोग आन्दोलन को स्थगित कर दिया था। अपने तमाम सहयोगियों की आलोचना के बाद भी गांधी जी का दृढ विश्वास था कि केवल साध्य ही नहीं साधन की पवित्रता भी आवश्यक है। तमाम बार जेल जाने और पुलिस से पिटने पर भी गांधी ने न तो कभी पुलिसिया अत्याचार के विरुद्ध सेना गठन की बात की और न ही कभी सत्याग्रह स्थल से जान बचा कर भागे। जबकि स्वामी रामदेव ने रामलीला मैदान से महिलाओं के कपड़े पहन कर भागने की घटना की तुलना शिवाजी के औरगंजेब की कैद से आम की टोकरी में बैठ कर भागने से करके अपनी बात को तर्क से सिद्ध करने का प्रयास किया। दरअसल स्वामी रामदेव आर्यसमाजी हैं और आर्यसमाज ने गांधी और उनकी विचारधारा को कभी स्वीकार ही नहीं किया था। आर्यसमाज ने स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आन्दोलन में सदैव क्रान्तिकारियों का सहयोग किया था। स्वामी रामदेव का सन्यासी जीवन कनखल के जिस कृपालुबाग आश्रम से शुरु हुआ था उस आश्रम के संस्थापक यति किशोर चंद स्वंय एक क्रान्तिकारी थे। स्वामी रामदेव के व्यक्त्वि में क्रान्तिकारी की झलक का यही एक कारण समझ में आता है।

यहॉ प्रश्न क्रान्तिकारी और गांधीवादी तरीके में से किसके सही या गलत होने का नही है। प्रश्न यह है कि एक व्यक्ति का क्रान्तिकारी होना और बात है पर इतिहास गवाह है कि क्रान्तिकारियों को भारतीय समाज में कभी स्वीकार्यता नहीं मिली और वह अपनों के ही छल का शिकार होते रहे। गांधी जी ने जन सामान्य को आजादी के आन्दोलन से जोडनें के लिये सत्य, अंहिसा का सत्याग्रही रास्ता अपनाया जो देखने में तो सरल लगता है पर वास्तव में बहुत कठिन है। स्वंय के अपमान को देखकर प्रतिकार न करना किसी पर गोली चलाने से ज्यादा कठिन है। पर फिर भी भारत में इस मार्ग को स्वीकार्यता मिली है। और फिर अब देश गुलाम नहीं है। अन्ना हजारे के अनुसार आज देश पर काले अंग्रेजों का शासन है फिर भी किसी भी प्रकार की सैना के गठन को न तो सामाजिक स्वीकार्यता मिलेगी और न ही सरकार इस गैर लोकतान्त्रिक तरीके से किसी को सत्ता ही हथियाने देगी।

स्वामी रामदेव को समझना चाहिये कि भारतीय लोकतंत्र का एकमात्र दोष यह है कि हजारों वर्षो की गुलामी के कारण हमारे देश की जनता का यह चरित्र हो गया है कि हम अपनी प्रजा वाली मानसिकता से बाहर नहीं आ पा रहे हैं। हमने जनप्रतिनिधियों को शासक या राजा के रुप में स्वीकार कर रखा है। स्वामी रामदेव को अपने संशाधनों का प्रयोग जनता को जाग्रत करने में करना चाहिये। जिन लोगों की वर्षों की काली कमाई विदेशी बैंकों में जमा है उनसे यह उम्मीद करना कि वह आपके अनशन से पिघल कर, आपकी सैना से डर कर, कालेधन को राष्ट्रीय सम्पत्ति घोषित कर देगें। नादानी भरा ख्याल है।

लोकतंत्र में चुनाव ही एकमात्र मार्ग है दुष्टों को सबक सिखाने का 2014 तक जनजागरण का कार्य पूरी गति से चले और हर पोलिगं बूथ तक ईमानदारों की टीम भी खड़ी हो। साथ ही आप के द्वारा चुने हुये प्रत्याशी भी आप जैसी धधकती आग वाले हों तो कुछ बात बन सकती है। अन्यथा तो विदेशी बैंकों मे जमा काला धन वापिस लाना दूर की कौडी ही नजर आती है।

2 COMMENTS

  1. सर आप ने कहा गाधीजी के बारे में वो सब ठीक है गाँधी जी के अनसन से देश स्वतंत्र नहीं हुआ है उसमे ससस्त्र क्रन्तिकर्कों का भी योगदान है रह स्वामी रामदो के बारे मैं उनके साथ युवा शक्ति ही है जो अन्ना हजारे के साथ नहीं है उनके अनसन मैं युवा ज्यादा नज़र नहीं आये जो स्वामी रामदेव के साथ नज़र आये है लाखें की संख्या मैं नज़र आये

  2. बाबा के व्रत के प्रभाव से आपकी और अन्य लेखको की लेखनी चलने लगी है। यही तो क्रांती है। यही तो व्रत का प्रभाव है।

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