यूं ही गुजरा साल

-संजय द्विवेदी

डा. मनमोहन सिंह की सरकार अपने दूसरे कार्यकाल का एक साल पूरा करने जा रही है किंतु बताने के लिए उसके पास क्या उपलब्धियां हैं। उसके पहले कार्यकाल की परिपक्वता भी इस एक साल से गायब दिखती है।

महंगाई एक ऐसा मुद्दा है जिस पर सरकार का घुटनाटेक रवैया और मंत्रियों के लापरवाही भरे बयान भारी पड़ रहे हैं। कांग्रेस की सरकार को क्योंकि लगातार यह दूसरा कार्यकाल मिला है इसलिए उससे उम्मीदें कुछ ज्यादा ही थीं। एक गठबंधन सरकार चलाने के पांच साल के अनुभव की परिपक्वता इस छठे साल से नदारद है। गठबंधन के साथी मंत्रियों का धमाल आप नजरंदाज कर दें तो खुद कांग्रेस के मंत्री भी कम उपहास के पात्र नहीं रहे। शशि थरूर के ट्विटर और आईपीएल प्रेम और जयराम रमेश के चीन प्रेम ने माहौल को गरमाए रखा। थरूर तो अंततः मंत्रिमंडल से विदा हो गए पर जयराम रमेश बच गए। ऐसे में मनमोहन सिंह अपने सादगी और ईमानदारी भरे आभामंडल के बीच एक कमजोर प्रधानमंत्री की छवि लेकर ही उभरे हैं। देश को उनसे बहुत निराशा इसलिए नहीं है क्योंकि लोग उनसे बहुत उम्मीद नहीं रखते थे। वे एक ऐसे प्रधानमंत्री हैं जो बहुत उम्मीदें नहीं जगाते और सोनिया गांधी के द्वारा नियुक्त हैं। सो उनकी ताकत और धाक का पता बहुत कम पता चलता है। अकेले परमाणु करार पर पहली बार उन्होंने अपनी ताकत का अहसास कराया था और तब यह कहा जाने लगा था कि मनमोहन बदल रहे हैं और उनमें राज करने का आत्मविश्वास आ रहा है। किंतु दुबारा सरकार बनने के बाद उनकी वह तेजी फिर वापस नहीं दिखी। वे सिर्फ इस बात पर मुस्करा सकते हैं कि उनकी सरकार को फिलहाल कोई खतरा नहीं है किंतु सत्ता के लिए जैसे और जितने समझौते कांग्रेस ने किए हैं, वह उसकी नैतिकता और ईमानदारी पर ही सवाल उठाते हैं। बजट के कटौती प्रस्ताव पर मायावती, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और शिबू सोरेन का सहयोगात्मक रवैया बताता है कि उनकी सरकार पर सीबीआई के दुरूपयोग के लगाए जा रहे आरोप गलत नहीं हैं।

राजनीति के मैदान में मनमोहन सिंह अपने प्रबंधकों के चलते भले सदन में बहुत आराम की स्थिति में हैं किंतु उनकी नैतिक सत्ता इस दौर में तार-तार हुयी है। महंगाई, भ्रष्टाचार, आतंकवाद और नक्सलवाद के मोर्चों पर सरकार की विफलता ने उन्हें बहुत हास्यास्पद बना दिया है। यह साधारण नहीं है एक ही मुद्दे पर सरकार और पार्टी से जुड़े लोग अलग-अलग सुर अलापते नजर आते हैं। नक्सलवाद के मुद्दे पर पी.चिदंबरम की सारी तेजी और विमर्श की हवा कांग्रेस के ही राष्ट्रीय महासचिव दिग्विजय सिंह ने निकाल दी, रही सही कसर मणिशंकर अय्यर ने दिग्विजय सिंह का समर्थन करके पूरा करके पूरी कर दी। इसके बाद कांग्रेस के मुखपत्र में आए सोनिया गांधी के लेख ने भी चिदंबरम की मुहिम को कमजोर ही किया। शायद इसीलिए चिदंबरम का यह बयान आया कि वे नक्सलियों से बातचीत के लिए तैयार हैं बशर्ते वे 72 घंटे के लिए युद्धविराम कर दें। यह एक संप्रभु सरकार की एक ऐसी बेबसी थी जिस पर लोग भयभीत हो सकते थे। इसी तरह राष्ट्रीय सुरक्षा के सवालों पर सरकार की उलटबासियां हमें एक कमजोर देश के रूप में ही स्थापित कर रही हैं। अफजल गुरू की फांसी के मामले पर गृहमंत्रालय और दिल्ली सरकार के संवाद को इसी नजर से देखा जाना चाहिए। शर्म-अल-शेख में प्रधानमंत्री बलुचिस्तान के हाल पर जो कह आये उससे भी सरकार को काफी शर्मिंदा होना पड़ा था। कुल मिलाकर अपनी भद्र छवियों के बावजूद मनमोहन सिंह की सरकार का पहला कार्यकाल कोई उजास नहीं जगाता। सरकार को चला ले जाना और खींच ले जाना अगर उपलब्धि है तो इसके वे खुद को शाबासी दे सकते हैं। विधेयकों में शिक्षा के अधिकार के बिल को लेकर सरकार परम प्रसन्न है किंतु उसकी खामियों पर किसी का ध्यान नहीं है। महिला आरक्षण का बिल उच्च सदन में तो पास हुआ, किंतु लोकसभा से उसे पास करने के लिए सरकार साहस नहीं जुटा पा रही है। समर्थन पाने की गरज में जातीय आधार पर जनगणना की बात मानकर सरकार ने अपनी कमजोरियों का ही परिचय दिया है। इसी तरह भ्रष्टाचार के सवाल पर सरकार का रिकार्ड किसी से छिपा नहीं है। द्रमुक के मंत्रियों ने किस तरह कदाचार मचा रखा है यह किसी से छिपा नहीं है। किंतु प्रधानमंत्री में उनके खिलाफ कार्रवाई का साहस नहीं है। ऐसे में आप इस सरकार से क्या उम्मीद कर सकते हैं। प्रणव मुखर्जी, पी. चिदंबरम और कपिल सिब्बल जैसे कुछ मंत्रियों को छोड़ दें तो उम्मीद की किरणें भी कहीं से नजर नहीं आतीं। जयराम रमेश, ए राजा, अलगीरी और शरद पवार जैसे मंत्रियों ने सरकार की किरकिरी कराने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। कुलमिलाकर यह कहा जा सकता है कि केंद्र सरकार किसी भी तरह देश की विकराल समस्याओं को संबोधित कर उसके जायज समाधान निकालने की स्थिति में नहीं दिखती। अमरीका और बाजार प्रेरित एजेंडों को लागू करवाने के लिए ही उसके मंत्री सक्रिय दिखते हैं। आम जनता किसी भी तरह उसके एजेंडे से गायब है। यह आमराय है कि सरकार पर प्रधानमंत्री से ज्यादा सरकार पर श्रीमती सोनिया गांधी का प्रभाव है किंतु महंगाई को रोकने और गरीबों को राहत देने के मोर्चे पर कांग्रेस की कोई पहल नजर नहीं आती। यह एक ऐसा यक्ष प्रश्न है जो कांग्रेस आलाकमान को भी कठधरे में खड़ा करता है। हमारे अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के एक साल के कार्यकाल का फलित यही है कि सरकार मुद्रास्फीति विशेषकर खाद्य मुद्रास्फीति की समस्या का कारगर हल नहीं ढूंढ पायी। इस तरह पहला साल तो नाउम्मीदियों और अवसाद के साथ बीत गया, उम्मीद की जानी चाहिए कि आने वाले चार साल जनता की बेहतरी, आंतरिक सुरक्षा और भ्रष्टाचार के खिलाफ सरकार की प्रतिबद्धता को प्रकट करने वाले हों। महंगाई की मार और असुरक्षाबोध से त्रस्त हम भारत के लोग केंद्र सरकार के एक साल पूरे होने पर उसे शुभकामनाओं के अलावा क्या दे सकते हैं।

2 COMMENTS

  1. यूं ही गुज़रा साल,
    यूं ही जिंदगी गुज़र जायगी।
    जब अवसर की, चिडिया चुगके
    कहीं ओर, फुर्र हो जायगी।

    हो सके सारे– भारतका भला
    कितनोंको मिलती है, ऐसी अवसर बेला ?

    आप सरदार हैं, सिंह है,
    केवल मन मोहन बन कर ना रहिए।
    निकालिए तलवार कठपुतली
    डोर काटके दिखलाइए।
    इतिहासमें कुछ ऐसा नाम छोडके जाइए।
    ज़माना याद करे ऐसे काम छोडके जाइए।

    समयकी चिडीया चुग जाएगी
    – जब अवसरका खेत,
    फिर पछताये क्या होगा?
    – यह बात याद आएगी।

    यूं ही गुज़रा साल —–
    यूं ही ज़िंदगी —-
    गुज़र जाएगी ?
    जब अवसर की, चिडिया चुगके
    कहीं ओर, फुर्र हो जायगी।

  2. बहुत अच्छी तरीके से बखिया उधेरी है आपने इस आलेख में युपीए की. लेकिन प्लीज़ शुभकामना मत दीजिए. इसके लायक नहीं है ये सरकार. इस सरकार का जाना देश हित में परम आवश्यक है. अब तो जो खुलासा हो रहा है उसके अनुसार ईवीएम मशीन में गडबडी करके मेंडेट हासिल किया था इस सरकार ने. भरोसा करना तो थोडा मुश्किल है लेकिन अगर ऐसा था कितनी खतरनाक बात है यह समझा जा सकता है. यह तो सबको दिख रहा था कि लिक्सभा के चुनाव में भयंकर आक्रोश इस सरकार के प्रति था. खुद कोंग्रेसी भी अपनी जीत को लेकर आश्वस्त नहीं थे. मेडम भी बोफोर्स और सिख नरसंहार की फ़ाइल निपटा लेने की जल्दी में थी…फिर आखिर ऐसा क्या हो गया कि मामला ही पलट गया…..वस्तुत: संदेहों का लोकतंत्र हो गया है अपना तो….अछे आलेख के लिए बधाई…सादर.

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