लाश पर राजनीति

ZIAULगत ३ मार्च को आपसी रंजिश में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के कुण्डा तहसील के बलीपुर गांव के प्रधान और उनके भाई की हत्या कर दी गई। उग्र भीड़ ने मौके पर पहुंचे डी.एस..पी. श्री जिआउल हक को भी पीट-पीटकर मार डाला। इस घटना की जितनी भी निन्दा की जाय वह कम ही होगी। ड्यूटी पर तैनात पुलिसवाले भी अगर सुरक्षित नहीं है, तो फिर अन्य सरकारी कर्मचारियों और आम जनता की क्या बात की जाय? सरकार का न तो अपराधियों पर कोई नियंत्रण है और न आतंकवादियों पर। आतंकवादी जब चाहे जहां, जहां चाहे – हैदराबाद हो या मुंबई, पुणे हो या दिल्ली, विस्फोट कर सकते हैं, सैकड़ों मासूमों की जान ले सकते है और पकड़ से भी बाहर रह भी सकते हैं। जनता की सुरक्षा भगवान भरोसे ही है। ऐसी हत्याओं के शिकार अधिकांश हिन्दू ही होते हैं, इसलिए हमारी सेकुलर सरकारें छोटी-मोटी रस्म अदायगी के बाद चुप्पी साध लेती हैं। लेकिन अगर ऐसी घटनाओं का शिकार कोई मुसलमान होता है, तो सरकारें फौरन अतिसक्रिय हो जाती हैं और सेकुलर पार्टियां वोट बटोरने के लिए सहानुभूति व्यक्त करने और सरकारी खज़ाना खोलने की होड़ लगा देती हैं।

कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की विधवा को सांत्वना देने के लिए मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का उनके पैतृक गांव में जाने की घटना तो समझ में आ सकती है, लेकिन दिल्ली के शाही इमाम की देवरिया यात्रा समझ के परे है। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी दिनांक ९ मार्च को दिवंगत डी.एस.पी के देवरिया जिले के पैतृक गांव जुआफर पहुंचे। उन्होंने शहीद पुलिस अधिकारी की विधवा परवीन आज़ाद को हर संभव सहायता देने का आश्वासन दिया और कब्र पर जाकर श्रद्धांजलि भी अर्पित की। क्या यही काम उन्होंने कभी किसी हिन्दू पुलिस अधिकारी या सेना के अधिकारी या जवान के मारे जाने पर किया है? क्या मुंबई में कसाब और उसके पाकिस्तानी साथियों की अन्धाधुंध गोलीबारी में शहीद हुए पुलिस कमिश्नर हेमन्त करकरे, और दिल्ली के बटाला हाउस में आतंकवादियों से संघर्ष करते हुए अपने प्राणों की आहुति देनेवाले श्री शर्मा पुलिस अधिकारी नहीं थे। उनके घर जाकर उनके परिवार की सुधि लेने क्या कभी राहुल गांधी, सोनिया गांधी या मनमोहन सिंह गए? हां, बटाला हाउस एन्काउंटर में मारे गए आतंकवादियों की मातमपुर्सी के लिए राहुल गांधी और दिग्विजय सिंह उनके घर आज़मगढ़ जरुर गए। पाकिस्तानी सेना सीमा पर दो हिन्दुस्तानी सैनिकों के सिर काटकर ले जाती है, क्या कांग्रेस हाई कमान कभी उनके परिवारों की सुधि लेने उनके घर जाता है? युवराज और महारानी, जहां वोट बैंक होता है, वही जाते हैं।

कुण्डा के डी.एस.पी जियाउल हक की नृशंस हत्या से सभी दुखी थे। सभी चाह रहे थे कि अपराधियों को उनके अपराधों के लिए कठोर-से कठोर द्ण्ड दिया जाय, लेकिन मौलाना बुखारी और युवराज की देवरिया यात्रा ने इस दुःखद घटना को भी सांप्रदायिक बना दिया। रही सही कसर शहीद पुलिस अधिकारी की पत्नी परवीन आज़ाद की मांगों की लंबी फ़ेहरिश्त ने पूरी कर दी। ऐसा लग रहा है कि जियाउल हक की मौत परवीन के लिए एक अवसर बनकर आयी है जिसका वह अधिकतम उपयोग करना चाहती हैं। पति के स्थान पर नौकरी पाने के लिए उन्होंने राज्य सरकार को जो फ़ेहरिश्त थमाई है उसमें उनके मायके और ससुराल वालों के ६ व्यक्तियों का नाम शामिल है। परवीन की बहन का भी नाम उसमें शामिल है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की समझ में नहीं आ रहा है कि किस सरकारी नियम के अनुसार मृतक कोटे से आधा दर्ज़न से अधिक आश्रितों को नौकरी दी जाय? सरकारी नियम के अनुसार सेवा-अवधि में सरकारी कर्मचारियों की मृत्यु के पश्चात परिवार के भरण-पोषण के लिए उसके एक निकटम कानूनी वारिस को उसकी योग्यता के अनुसार सरकारी नौकरी देने का प्राविधान है। इसके अलावे पत्नी को फ़ैमिली पेन्शन भी दी जाती है। लेकिन जियाउल हक के मामले में उनके भाई और उनकी पत्नी को सरकारी नौकरी देने की पेशकश की गई है। परवीन आज़ाद को आफ़िसर आन स्पेशल ड्यूटी के पद के लिए नियुक्ति पत्र दिया गया है, जो उन्हें स्वीकार्य नहीं है। अपने पति की शहादत को वे पूरी तरह भूनाने के मूड में हैं। उन्हें डिप्टी एस.पी. से नीचे का पद स्वीकार्य नहीं है। वर्तमान नियम के अनुसार डी.एस.पी के पद पर नियुक्ति यू.पी लोकसेवा आयोग द्वारा लिखित परीक्षा, साक्षात्कार और फिजिकल फिटनेस में सफल होने के बाद पीपीएस के माध्यम से की जाती है। दूसरा तरीका है प्रोन्नति से पद पर नियुक्ति। इसके लिए सब इन्सपेक्टर के पद पर कुछ वर्षों की तैनाती आवश्यक है। इन दोनों अर्हताओं पर परवीन आज़ाद कही से भी फिट नहीं बैठती हैं, लेकिन उनके पास एक विशेषाधिकार है – एक मुस्लिम अधिकारी की पत्नी होने का। और इस विशेषाधिकार को संविधान और नियम से उपर जाकर राज्य सरकार भी मान्यता देती है; केन्द्र सरकार भी। आश्चर्य होता है कि जियाउल हक की विधवा पत्नी परवीन ने डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट या पुलिस कमिश्नर के पद की मांग क्यों नहीं की? इस समय उन्हें कोई भी वरदान प्राप्त हो सकता है। सरकार ने उनके लिए धन के खज़ाने तो खोले ही हैं, पद के खज़ाने भी खोले जा सकते हैं। अखिलेश यादव ने दिवंगत पुलिस अधिकारी की पत्नी और पिता को अलग-अलग २५-२५ लाख रुपए के दो चेक दिए। एक ही परिवार के दो मृतक आश्रितों को अनुग्रह राशि के भुगतान का संभवतः यह पहला मामला है। नियमानुसार एक ही व्यक्ति को जो मृतक का निकटस्थ कानूनी वारिस हो, को अनुग्रह राशि, क्षतिपूर्ति या सेवा संबंधी देयों का भुगतान किया जाता है। लेकिन यह देश सेकुलर है। यहां हिन्दुओं ले लिए अलग कानून है, मुसलमानों के लिए अलग। फिर अगले वर्ष लोकसभा का चुनाव भी तो है। अभीतक तो जियाउल हक के लिए राज्य सरकार ने ही अपना पिटारा खोला है, केन्द्र सरकार का पिटारा खुलना तो बाकी ही है। जियाउल हक एक कर्त्तव्यनिष्ठ पुलिस अधिकारी की ड्युटी निभाते हुए शहीद हो गए, उन्हें बार-बार सलाम। उन्होंने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनकी लाश पर उनके परिजनों और राजनेताओं द्वारा स्वार्थ की ऐसी राजनीति की जाएगी।

 

2 COMMENTS

  1. C. O. Zia ul hq ka murder case khas mamla hai. Aap ye bhool rhe hain ke hr desh me alpsnkhyk dre rehte hain phir jis state me 8000 yadv aur sirf 250 muslim officer hon vahan ye sb hona svabhavik hai. Ek bat aur aisi kaun si party hai jo votebank ,ki siyast nhi kr rhi, phir sapa srkar pr hi itni haytauba kyo?

  2. मौत की भी अपनी अपनी कीमत होती है,किसी की एक लाख ,किसी की दो या पांच लाख,यहाँ पच्चीस पच्चीस लाख,याने कुल पचास लाख,डी एस पी की बिना योग्यता सरकारी नौकरी,भाई को भी हवालदार की नौकरी.सब कुछ किस आधार पर वोह तो सरकार जाने,जनता की गाढे पसीने की कमाई सरकारें किस प्रकार लुटाती हैं,यह अच्छी मिसाल है.शिकायत ये नहीं की यह क्यों दी गयी,दे सकतें हैं क्योंकि हमने उन्हें इसी लिए चुना है.पर ये जरूर है कि आये दिन सरकार किसी न किसी बात पर मुवाजा देती ही रहती है,क्योंकि उनमें से अधिकतम में उसकी लापरवाही होती है,और इसलिए घटना घटित होते ही इसकी घोषणा कर दी जाती है,उन पीड़ितों को भी इतना ही मुवावजा मिले तो अच्छा होगा,तथा भेद भाव भी दिखाई नहीं देगा.हर मौत कि कीमत सामान ही होती है इसमें धरम,जातीया वर्ग विशेह का धयान न रखें. पर इस में इतनी सौदेबाजी कभी कभी ही होती है,परवीन बेगम को अभी नहीं थामना चाहिए ,अभी तो केंद्र,व राज्य सरकार दोनों उनके कदमों में बिछी पड़ी हैं, शायद मन में तो उन्हें अब पछतावा हो रहा होगा कि कुछ और क्यों न मांग लिया होता.खॆर अभी भी समय है वे चाहे तो भूल सुधर सकती हैं, ताकि भविष्य में ऐसे हादसों के पीड़ितों को सबक मिल सके,वोह बात दीगर है कि उनकी कितनी क्षमता है.यथा उनके पास कितने वोट हैं, कितना हंगामा करवाने कि क्षमता है आदि आदि यह सब इस लोकतंत्र में ही हो सकता है,होता है जय भारत,.

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