आपात्काल, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय और स्मृतियां – भाग-३

इमर्जेन्सी की ३७वीं बरसी पर विशेष

विपिन किशोर सिन्हा

थानेदार नागेन्द्र सिंह चारों से बस एक ही सवाल बार-बार पूछता –

“बता सालो, नानाजी देशमुख कहां है?”

इतनी यातना के बाद भी होमेश्वर हंसता रहा। उसने थानेदार से ही प्रश्न पूछा –

“आप कहां तक पढ़े हैं?”

“मैं इन्टर पास हूं।”

“आपको पता है, जिन्हें आप इतनी यातना दे रहे हैं, वे कौन हैं?”

“कौन हैं, तू ही बता,” थानेदार ने रोब गांठते हुए कहा।

होमेश्वर ने परिचय कराते हुए कहा –

“ये हैं डा. प्रदीप, जिन्हें आप महीनों से तलाश रहे थे, लेकिन पकड़ नहीं पाए। आज इन्होंने स्वेच्छा से गिरफ़्तारी दी है। मैं और ये लंबू इन्द्रजीत इंजीनियरिंग के छात्र हैं और ये बलिष्ठ सज्जन, अरुणजी इनका नाम है, वकील हैं। क्या आप जानना चाहेंगे कि आपलोग नानाजी को क्यों नहीं गिरफ़्तार कर पाए हैं?”

“बताओ, बताओ, क्या कारण है?” थानेदार ने अपनी कुर्सी होमेश्वर के पास खिसका ली।

“आप देख रहे हैं – आपके सामने दो इंजीनियर, एक डाक्टर और एक वकील बैठे हैं। हमारी योजनाएं ऐसे ही समझदार, जिम्मेदार और तेज लोगों द्वारा बनाई जाती हैं जिसकी भनक तक आप नहीं पा सकते हैं। इसके उलट आपकी योजनाएं आप जैसे हाई स्कूल-इन्टर पास मूढ़ चमचे और लाठी की भाषा में बात करने वाले मूर्खों द्वारा बनाई जाती हैं। आप क्या, आपके सात पुरखे भी नानाजी को नहीं पकड़ सकते।”

इधर होमेश्वर की बात समाप्त हुई, उधर थानेदार नागेन्द्र सिंह ने चारों पर तड़ातड़ बेंत बरसाने शुरु कर दिए। और कर भी क्या सकता था? प्रदीप की उंगली टूटी, होमेश्वर का सिर, अरुण जी का हाथ और इन्द्रजीत का ललाट लहुलुहान हुआ। रात भर उन्हें लाकअप में रखा गया जिसमें पेशाब और पाखाने की दुर्गंध फैली थी। लाल चींटे (माटा) बदन पर चढ़ रहे थे। उन्हें न तो खाना दिया गया, न पीने का पानी। अगले दिन चारों मीसा के अन्तर्गत चालान कर दिए गए – अज्ञात जेल में, अनिश्चित काल के लिए।

हमलोग इस भ्रम में थे कि दिन में गिरफ़्तारियां नहीं होती। अतः दिन में हमलोग भोजन, अपने हास्टल के मेस में ही करते थे। शनिवार का दिन था। भोजन करने के बाद शरद ने पिक्चर देखने की योजना बनाई। चित्रा सिनेमा में फिल्म “जय संतोषी माता” धूम मचा रही थी। हम तीनो मित्र – शरद, विष्णु और मैं, रिक्शा पकड़ने के लिए विश्वनाथ मन्दिर के पीछे वाली हास्टल रोड पर जा रहे थे। अचानक दो मोटर सायकिल हमलोगों के पास रुकी। उसपर तीन सवार थे। तीनों सामान्य वेश-भूसा में थे। एक आदमी ने सामने आकर विष्णु से पूछा –

“आपका नाम विष्णु गुप्ता है?”

“जी हां,” विष्णु के मुख से इतना ही निकला था कि उस बलिष्ठ आदमी ने विष्णु को उठाकर मोटर सायकिल पर बैठा लिया। मैं और शरद चिल्लाते हुए पीछे-पीछे दौड़ते रहे लेकिन कुछ ही पलों में मोटर सायकिल आंखों से ओझल हो गई। विष्णु के अपहरण की सूचना हमने अपने वार्डेन को दी। वे हंसे और बोले –

“विष्णु का अपहरण नहीं हुआ है, उसे पुलिस ले गई है।”

वार्डेन को सब पता था। विष्णु के चाचा विश्वविद्यालय में ही भाषा विज्ञान विभाग में प्रोफ़ेसर थे। हमने उन्हें सूचना दी। कैंपस के बाहर कबीर नगर में रहते थे। एक योग्य वकील की सेवाएं ली गईं। विष्णु पर डी.आई.आर. तामील किया गया था, जिसमें ज़मानत हो सकती थी। दूसरे दिन विष्णु को कोर्ट में पेश किया गया। उसपर आरोप था कि उसने लंका चौराहे पर राष्ट्रविरोधी भाषण दिया और ‘इन्दिरा गांधी मुर्दाबाद’ का नारा लगाया।

जज मुस्कुराया, पूछा –

“गवाह हैं?”

“जी हां हुजूर। ये वे तीन गवाह हैं, जो मौका-ए-वारदात पर हाज़िर थे।” सरकारी वकील ने तैयार जवाब दिया।

“उन्हें पेश किया जाय।”

गवाह पेश किए गए। उन्हें देखते ही जज साहब उखड़ गए। बोले –

“वाराणसी में जहां भी सरकार विरोधी भाषण दिए जाते हैं, या मुर्दाबाद का नारा लगाया जाता है, ये तीनों हर जगह मौजूद रहते हैं। ये एक ही समय लंका में होते हैं, अस्सी में होते हैं, गोदौलिया में होते हैं, चौक में होते हैं, बेनिया बाग में होते हैं, लहुराबीर में होते हैं, कैन्ट में होते हैं और कचहरी में भी होते हैं। ये पुलिस के भाड़े के झूठे गवाह हैं। डी.आई.आर. के सभी मामलों में बतौर गवाह यही तीनों पेश किए जाते हैं। देखते-देखते मैं इनके चेहरे पहचान गया हूं। इनके नाम भी मुझे याद हैं। झूठी गवाही के जुर्म में इन्हें तत्काल हिरासत में ले लिया जाय और मुकदमा चलाया जाय। No further hearing. Bail granted to Mr. Vishnu Gupta.”

जज का न्याय सुन हम दंग रह गए। खुशी-खुशी हास्टल में आए। लेकिन विष्णु के कमरे पर विश्वविद्यालय का ताला लगा था। वार्डेन के हाथ में वी.सी. का परवाना था। विष्णु को हास्टल से निकाल दिया गया था। वह अपने सामान के साथ अपने चाचा के यहां चला गया। कोर्ट ने जिसे निर्दोष माना था, वी.सी. ने उसे अवांछित करार दिया। पन्द्रह दिन बाद एक समाचार मिला – विष्णु को ज़मानत देनेवाले जज का तबादला पिथौरागढ़ कर दिया गया।

दिन बीत रहे थे। इमर्जेन्सी की ज्यादतियां बढ़ती जा रही थीं। जिस भी छात्र का नाम स्टूडेन्ट फ़ेडेरेशन आफ़ इण्डिया (SFI) के कार्यकर्ता प्राक्टर आफ़िस में नोट करा देते, रात में वह गिरफ़्तार हो जाता। कांग्रेसियों से ज्यादा कम्युनिस्ट वी.सी. कि मुखबिरी कर रहे थे। व्यक्तिगत दुश्मनी भी खूब निकाली गई। महीनों कालू लाल श्रीमाली का आतंक चलता रहा। अब गिरफ़्तारियां दिन में भी शुरु हो गईं थीं। फ़र्मास्यूटिकल इन्जीनियरिंग के विद्वान प्रोफ़ेसर, डा. शंकर विनायक तत्त्ववादी को दिन में ही उनके विभाग से पुलिस ने उठा लिया। शिक्षक भी गिरफ़्तार होने लगे थे। हमें पहले से अधिक चौकन्ना होना पड़ा। एक कुलपति अपने ही छात्रों और शिक्षकों पर इतने निम्न स्तर पर आकर इतना घटिया प्रतिशोधात्मक और घृणित कर्यवाही कर सकता है, कालू लाल श्रीमाली उसके ज्वलन्त उदाहरण थे। सैकड़ों निर्दोष सिर्फ़ शंका में जेल भेजे गए, सैकड़ों का कैरियर बर्बाद हुआ।

इमरजेन्सी के कुछ महीने बाद ही बांग्ला देश के राष्ट्रपति मुजीबुर्रहमान की हत्या कर दी गई। इन्दिरा गांधी के बेड रूम में एक पर्चा मिला। उसमें लिखा था – मुज़ीब ने आपकी ही सलाह पर आपके नक्शे कदम पर चलते हुए अपने देश में इमर्जेन्सी लगाई थी। उनका हश्र सारी दुनिया ने देखा। आपके बेड रूम में यह पर्चा पहुंच चुका है। आप जान गई होंगी कि हम भी जब चाहें आपके पास पहुंच सकते हैं। आपका भी वही हश्र हो सकता है जो मुज़ीब का हुआ। लेकिन सक्षम होते हुए भी हम ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि हम अहिंसा में अटूट विश्वास करते हैं। हमारा धैर्य टूट जाय इसके पहले हिंसक प्रतिशोध बन्द कर दें।

इस घटना के बाद इन्दिराजी के मन में भय व्याप्त हो गया। अचानक ज्यादतियां बन्द हो गईं, गिरफ़्तारियां थम गईं। हमें ही नहीं पूरे हिन्दुस्तान को संघ द्वारा छापे जा रहे पत्रकों और बुलेटिनों के द्वारा सही समाचार मिल रहा था। रणभेरी के बाद ‘कुरुक्षेत्र’ प्रकाशित हुआ जो बाद में ‘लोकमित्र’ में परिवर्तित हो गया। प्रत्येक छः महीने के बाद पत्र का नाम बदल दिया जाता था। वे लोग, जो हमलोगों से बात करने में डरते थे, अब पत्रकों की मांग करने लगे। वैसे हमलोगों ने इमर्जेन्सी के तुरन्त बाद पत्रकों के वितरण की अच्छी व्यवस्था कर रखी थी। कोई पढ़े या न पढ़े, हास्टल के प्रत्येक कमरे में पत्रक सही समय पर पहुंच ही जाता था। कालू लाल श्रीमाली की खुफ़िया एजेन्सी अन्त तक इस इसे बन्द नहीं करा सकी। धीरे-धीरे जेलों में बन्द छात्रों को ज़मानत भी मिलने लगी। यू.पी. के खूंखार मुख्यमंत्री हेमवती नन्दन बहुगुणा के स्थान पर नरम मिज़ाज़ वाले नारायण दत्त तिवारी को मुख्यमंत्री का ताज़ सौंपा गया। उनके आने के बाद हमलोगों ने काफी राहत महसूस की। एक दिन क्लास समाप्त होने पर मेरे वार्डेन ने मुस्कुराते हुए मुझसे कहा – You can come to hostel. There is no fear as such. उन्हीं वार्डेन ने मुझे एक बार सलाह दी थी कि मैं अपने कमरे में इन्दिरा गांधी का एक बड़ा सा पोस्टर लगा लूं; वे मुझे गिरफ़्तारी से बचा लेंगे। मेरा उत्तर था –

” इन्दिरा गांधी ने लोकतंत्र की हत्या की है। मैं उससे घृणा करता हूं। गिरफ़्तार होना और फ़ांसी पर चढ़ जाना भी पसन्द करूंगा लेकिन जीते जी कमरे में उस तानाशाह की तस्वीर नहीं लगा सकता।”

मैं हास्टल में आ गया। पढ़ाई को काफी नुकसान हुआ था। मैंने दिनरात मिहनत की। १९७६ में सम्मान सहित इन्जीनियरिंग की डिग्री ली। मैंने एम.टेक. में एडमिशन ले लिया। मुझपर कोई पुलिस केस नहीं था। इमर्जेन्सी के खात्मे तक मैं बी.एच.यू. में ही रहा। इस समय अधीक्षण अभियन्ता (Superintending Engineer) हूं। जिस भी कार्यालय में कार्यभार ग्रहण करता हूं, सबसे पहले इन्दिरा गांधी का फोटो हटवा देता हूं। लोगों ने चमचागिरि में फोटो टांग दिए थे। वैसे स्पष्ट राजकीय आदेश है कि सरकारी कार्यालयों मे महात्मा गांधी को छोड़ किसी भी राजनेता की तस्वीर न लगाई जाय।

लोकतंत्र के वे काले दिन कभी विस्मृत नहीं होंगे। ईश्वर न करे, हिन्दुस्तान को दुबारा इमर्जेन्सी के दिन देखने पड़े।

॥इति॥

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

4 COMMENTS

  1. बहुत ही सजीव चित्रण किया है.विपिन जी को साधुवाद. सब को मालूम है की तानाशाही के विरुद्ध उस संघर्ष में सबसे ज्यादा योगदान और आहुतियाँ भी संघ ने दी थी. लेकिन सत्ता के लोलुप राजनेता, विशेषकर हमारे ‘समाजवादी’ बंधू, इमरजेंसी ख़त्म होते ही संघ विरोधी भूमिका में आ गए. और आज भी संघ से ऐसे ही चिढ़ते हैं जैसे सांड लाल कपडा देख कर भड़कता है. डॉ. लक्छमी नारायण लाल ने एक नाटक लिखा था “एक अकेला”. कभी अवसर मिले तो उसे भी प्रवक्ता पर देने का कष्ट करें.

  2. इसी आन्दोलन का एक भाग भारत से बाहर भी यहाँ अमरीका में घटित हुआ था|
    बाहरी दबाव लाने में जो प्रयास किए गए, कुछ स्वयंसेवकों ने पास पोर्ट खोए थे|
    आदरणीय सर्व श्री सुब्रह्मण्यम स्वामी, ना ग गोरे, मकरंद देसाई, इत्यादि नेताओं का प्रवास, हर स्थान पर उनकी बैठकें, सेनेटरों, कांग्रेसमनों के साथ भेंट करवाना, इत्यादि अनेक कामों में एक सुनियोजित संगठन के रूपमें काम करने में सारे के सारे स्वयं सेवक काम आते थे|
    इस सच्चाई को कभी विस्तारसे लिखना पडेगा|

  3. आपात्काल के हिटलरी अत्याचार और RSS की अतुलनीय देशसेवा के जीवंत वर्णन हेतु सिन्हाजी को बहुत-बहुत साधुवाद !

  4. आज जब इस संस्मरण की अंतिम किस्त प्रकाशित हो चुकी है ,तो मैं यही दुहराना चाहूंगा कि कोई भुक्त भोगी ही आपात काल के उन काले दिनों का इस तरह का जीवंत विवरण आज भी प्रस्तुत कर सकता है.मुझे अफ़सोस इस बात का है कि वह बलिदान अंत में व्यर्थ सिद्ध हुआ था.महत्मा गाँधी की समाधि पर शपथ के साथ राज्य कार्य का भार उठाने वाले जनता पार्टी के दिग्गजों ने क्या खेल खेला वह अब इतिहास बन चुका है.
    सिन्हा जी ने कम्युनिष्टों की मुखबिरी का जो वर्णन किया है, वह मुझे अपने एक शिक्षक की याद दिलाता है,जिन्होंने १९४२ के आन्दोलन में भाग लिया था और वे भी इन्ही कम्युनिष्टों की कृपा से जेल में बंद हुए थे,क्योंकि पहले तो ये लोग अन्य लोगों के साथ काम करते थे,पर जब रूस विश्व युद्ध में अंग्रजों का साथ देने लगा तो वे भारत के आजादी की लड़ाई से अलग हो गए और अंग्रेजी सरकार का साथ देने लगे.ऐसे देश द्रोहियों के उतराधिकारियों ने अगर इंदिरा गांधी का साथ दिया तो आश्चर्य ही क्या?

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