नंदीग्राम का महत्व

डॉ0 दिलीप अग्निहोत्री

पश्चिम बंगाल में वामपंथियों ने नंदीग्राम को निशाने पर लिया था। यह भारत की सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक विरासत पर हिंसक प्रहार था। देर हुई, मगर अन्धेर नहीं हुआ। परिणाम सामने है। वामपंथियों का मजबूत किला खण्डर में बदल गया। मेरठ के बड़ौत में जैन मुनि प्रभासागर ने अनशन के माध्यम से ‘अहिंसा परमोधर्मः’ की अलख जगाने का प्रयास किया। पुलिस के बल पर उनको वहां से हटा दिया गया। वह जीवहत्या रोकने की मांग कर रहे थे। वह जीवहत्या, गोहत्या को बड़े उद्योग के रूप में मान्यता देने का विरोध कर रहे थे। वह यांत्रिक बूचड़खाना के लाइसेंस न देने, उनको बंद करने की पैरवी कर रहे थे। इसमे कोई नई बात नहीं थी। भारतीय संस्कृति में पशुओं में भी आत्मा का अस्तित्व प्रतिपादित किया गया। इसी रूप में उनके प्रति अहिंसा का संदेश दिया गया। भारत ने जब तक इस मार्ग का अनुसरण किया, जब तक गाय को माता मानकर सम्मानित किया, उसका संरक्षण संवर्ध्दन किया, तब तक वह सोने की चिड़िया के रूप में प्रतिष्ठित रहा। हमारे ऋषियों ने अकारण ही गाय को पूजनीय नहीं बताया था। इसके पीछे गहन सामाजिक आर्थिक आधार था। जैन मुनि ने अनशन के माध्यम से इस ओर ध्यान आकर्षित किया था। पुलिस ने उन्हें अनशन से हटा दिया। किन्तु यहां से उठे प्रश्नों का समाधान नहीं हुआ।

प्रश्न शासन और समाज दोनो के लिए है। शासन को जीवित गाय के अमूल्य उपकार की जगह उसके मांस का घृणित व्यापार आकर्षित क्यों करता है? क्यों राजनीतिक दलों के लिए गौ-संवर्ध्दन का मुद्दा साम्प्रदायिक हो जाता है? वहीं समाज को भी आत्मचिंतन करना चाहिए। हम गाय का सम्मान करते हैं। लेकिन हम इसको व्यवहार में लाने का प्रयास नहीं करते। समाज गो-सेवा और गो-संवर्ध्दधन के लिए कितना सजग है। यदि समाज इसके प्रति जागरूक हो तब शासन और राजनीति को भी नीति बदलने के लिए बाध्य किया जा सकता है।

नंदीग्राम की प्रतिक्रिया उल्लेखनीय है। यह आशा का संचार करती है। कुछ वर्ष पहले यहां कैसा दृश्य था। सिंगूर और नंदीग्राम के किसान अपनी उपजाऊ जमीन और पशुधन बचाने की गुहार कर रहे थे। दूसरी तरफ वामपंथियों और पूंजीपतियों का गठजोड़ था। उनके इशारे पर पुलिस और काडर सशस्त्र हमलावर था। उदारीकरण के प्रति वामपंथी दीवानगी की यह हद थी। ग्राम और पशुधन के बिना समृध्द, सुखी भारत की कल्पना नहीं की जा सकती। इसीलिए विकास दर के आकर्षक आंकड़ो व दावों के बावजूद भारत की बड़ी आबादी मूलभूत सुविधाओं, खाद्यान्न और पोषण से वंचित है। पशुधन, कृषि, स्वास्थ, पोषण, ईंधन आदि के द्वारा मनुष्य पर अमूल्य उपकार करता है। कोई उनके प्रति हिंसक कैसे हो सकता है। उनकी क्रूर हत्या के लिए यांत्रिक बूचडखानो की स्थापना की अनुमति कैसे दे सकता है? इससे भारत माता की आत्मा तक चीत्कार करती है। देश सुखी कैसे हो सकता है?

राजनेता संविधान की दुहाई देते हैं। संविधान में उल्लिखित शपथ लेकर सत्ता में आसीन होते हैं। लेकिन पशुधन के संवर्ध्दन की संवैधानिक व्यवस्था का खुला उल्लंघन करते हैं। गाय के लिये कुछ कहना तो साम्प्रदायिक माना जाता है। जबकि संविधान के अनुच्छेद 48 में कहा गया कि राज्य गौरक्षा के प्रयत्न करेगा। संविधान निर्माताओं ने प्राचीन काल से लेकर अद्यतन भारतीय परिवेश का गहन विश्लेषण किया था। वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि गाय के बिना इस कृषि प्रधान देश में खुशहाली नहीं लाई जा सकती। इसे नीति-निर्देशक तत्वों में शामिल किया गया। सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णयों में निर्देश तत्वों को शासन के मूलभूत मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया।

लेकिन शासन गौरक्षा की जगह गौ विनाश में लगा है। संवैधानिक पदों पर आसीन लोग यांत्रिक बूचड़खाना स्थापना का लाइसेंस देते हैं। इसमें वह निजी लाभ देखते हैं। इसके द्वारा वह ‘वोटबैंक’ को संतुष्ट करते हैं। इसके आधार पर वह अपने को धर्मनिरपेक्ष साबित करते हैं। कैसी विडम्बना है कि ‘युदवंशी’ राजनेता भी गौरक्षा की बात करने से बचते हैं। इससे उनका मजहबी समीकरण प्रभावित होता है। वोट बैंक की राजनीति चिंतन को कितना सीमित कर देती है। गाय तो उन सबको उपकृत करती है, जो उसकी सेवा करते हैं। वे भेद नहीं करती। लेकिन चुनावी समीकरण बनाने वाले भेद करते हैं। उनमें गाय के संवर्ध्दन की बात उठाने का साहस नहीं होता। वोट के लिए देश के वर्तमान और भविष्य से खिलवाड़ करने में इन्हें संकोच नहीं होता।

लेकिन यह स्थिति लम्बे समय तक नहीं चल सकती। मानवता को बचाने के लिए ‘गोरक्षा’ का उद्धोष करना होगा। जमीन की उपजाऊ क्षमता को बनाए रखने के लिए जैविक खाद एवं मात्र विकल्प है। केमिकल्स खाद चार दिन की चांदनी, साबित हो रही है। इससे गोमाता ही बचा सकती है। सबसे तेजी से उभरती अर्थव्यवस्था का दावेदार भारत बच्चों के कुपोषण की सूची में नंबर वन है। यह विज्ञापनों से दूर नहीं होगा। किसी तरह पेट भरना भी पोषण की गारंटी नहीं है। यह उपकार केवल गोमाता कर सकती है।

यांत्रिक बूचड़खाने स्थापित करने वालों से सद्बुध्दि की उम्मीद नहीं की जा सकती। लेकिन भारतीय समाज यह सब कब तक चुपचाप देखता रहेगा? अन्याय के विरूध्द चुप रहना भी पाप है।

लेखक वरिष्ठ राजनीतिक समीक्षक हैं।

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