खालिस्तानी आंदोलन और ब्लू स्टार ऑपरेशन के बाद की कहानी

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अभिनय आकाश

1969 में पंजाब विधानसभा चुनाव हारने के दो साल बाद जगजीत सिंह चौहान यूनाइटेड किंगडम चला गया। 1971 में जगजीत सिंह ने न्यू यॉर्क टाइम्स में अलग खालिस्तान का विज्ञापन दे दिया। ये आंदोलन की फंडिंग के लिए था। 1980 में जगजीत सिंह ने ‘खालिस्तान राष्ट्रीय परिषद’ का भी निर्माण कर दिया। ये परिषद खालिस्तान को एक अलग देश मानता था।

तड़प का न होना, सब कुछ सहन कर जाना
घर से निकलना काम पर और काम से लौटकर घर आना
सबसे ख़तरनाक होता है, हमारे सपनों का मर जाना
ये कविता महान क्रान्ति के कवि अवतार सिंह पाश की हैं जिनकी 23 मार्च, 1988 को खालिस्तानी आतंकवादियों ने हत्या कर दी। 23 मार्च को ही अंग्रेज़ों ने भगत सिंह को फांसी दी थी। ये बात तो बिल्कुल साफ है कि कोई भी किसी की हत्या तभी करता है जब उसे सामनेवाले से अपने अस्तित्व पर संकट नजर आता है। यानी कोई भी हत्या डर का परिणाम है। खालिस्तान आंदोलन अब इतिहास बन गया है, इसने भारत में सिख समुदाय का समर्थन खो दिया है। खालिस्तान आंदोलन वास्तव में क्या है। यह कैसे शुरू हुआ। क्या इसे अभी भी भारत में समर्थन मिलता है या ये महज भारत में अशांति फैलाने के लिए विदेशी ताकतों का एक हथियार है। नफ़रत को हराने का एक ही तरीक़ा होता है और वो है, सही जानकारी और सही इतिहास, जिसके बारे में आज हम आपको बताएंगे। सबसे पहले आपको खालिस्तान शब्द के अर्थ से अवगत कराते हैं। आपने कई बार सुना होगा – ये घी ‘खालिस घी’ है, ये दूध ‘खालिस दूध’ है। यानी की एकदम प्योर घी है, प्योर दूध है। तो इसी तरह खालिस्तान का मोटा-माटी अर्थ – प्योर या शुद्ध स्थान होता है। तो इस शुद्ध स्थान को एक अलग राष्ट्र बनाने की दिशा में जो प्रयास हुए, हो रहे हैं, उसे खालिस्तान मूवमेंट कहा जाता है।

पंजाबी सूबा आंदोलन और अकाली दल का जन्म
कहानी की शुरुआत 1929 में होती है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन 31 दिसंबर को तत्कालीन पंजाब प्रांत की राजधानी लाहौर में हुआ। इस ऐतिहासिक अधिवेशन में मोतीलाल नेहरू ने ‘पूर्ण स्वराज’ का घोषणा-पत्र तैयार किया। जिसका तीन समूहों ने खुलकर विरोध किया। पहला- मोहम्मद अली जिन्ना की मुस्लिम लीग ने दूसरा दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ रहे भीमराव आंबेडकर और तीसरा शिरोमणि अकाली दल के मास्टर तारा सिंह। यही से एक सिख नॉमलैंड के लिए पहली अभिव्यक्ति सामने आई। 1947 की मांग पंजाबी सूबा आन्दोलन में बदल गई। बंटवारे के बाद भारत दो भागों में बंट गया। अकाली गुट ने सिखों के लिए अलग सूबे की मांग की। स्टेटरी आर्गनाइजेशन कमीशन ने इस मांग को खारिज कर दिया। ये पहला मौका था जब पंजाब को भाषा के आधार पर अलग दिखाने की कोशिश हुई। अकाली दल का जन्म हुआ। कुछ ही वक्त में इस पार्टी ने बेशुमार लोकप्रियता हासिल कर ली। अलग पंजाब के लिए जबरदस्त प्रदर्शन शुरू हुए।
तीन हिस्‍सों में बंट गया पंजाब
बतौर प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का यह पहला साल था और उनके सामने कई चुनौतियां थीं। 1962 में चीन से युद्ध हारने के दुख़ में तत्कालीन प्रधानमंत्री व इंदिरा के पिता जवाहरलाल नेहरू का देहांत हो चुका था। जिसके बाद लाल बहादुर शास्त्री प्रधानमंत्री बने। लेकिन पाकिस्तान संग युद्ध और फिर ताशंकद समझौते के बाद शास्त्री की असमय मृत्यु के 10 दिन बाद देश को इंदिरा के रूप में नया प्रधानमंत्री मिला। प्रधानमंत्री बनने के बाद इंदिरा के सामने कई चुनौतियां व संकट थे। पंजाब में भाषाई आंदोलन सर उठाने लगा। 1966 में इंदिरा गांधी ने पंजाब को तीन भागों में विभाजित कर दिया। एक सिख बहुसंख्यक राज्य के रूप में दूसरा हिंदी भाषी क्षेत्र हरियाणा और तीसरा केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़ जिसे दोनों की राजधानी भी बनाया गया। वहीं कुछ पहाड़ी इलाकों को हिमाचल प्रदेश में मिला दिया गया। हालांकि पंजाब बनने के बाद भी सिक्खों की अपेक्षाएं पूरी नहीं हुईं। लेकिन इसके बाद भी विवाद सुलझा नहीं। पंजाब को दिए गए एरिया को लेकर एक गुट में नाराजगी थी तो दूसरे को साझा राजधानी के फॉर्मूले को लेकर आपत्ति थी। 1970 में इंदिरा गांधी के वादे के बावजूद उन्हें चंडीगढ़ नहीं मिला।
कब दिया गया खालिस्तान नाम
1969 में पंजाब विधानसभा चुनाव हारने के दो साल बाद जगजीत सिंह चौहान यूनाइटेड किंगडम चला गया। 1971 में जगजीत सिंह ने न्यू यॉर्क टाइम्स में अलग खालिस्तान का विज्ञापन दे दिया। ये आंदोलन की फंडिंग के लिए था। 1980 में जगजीत सिंह ने ‘खालिस्तान राष्ट्रीय परिषद’ का भी निर्माण कर दिया। ये परिषद खालिस्तान को एक अलग देश मानता था। इस सब में उसके साथ था बलबीर सिंह संधू, जो ‘खालिस्तान राष्ट्रीय परिषद’ के महासचिव हुआ करता था। 1977 में भारत लौटने के बाद चौहान 1979 में ब्रिटेन गया और खालिस्तान नेशनल काउंसिल की स्थापना की। उसने ‘खलिस्तान हाउस’ नाम की एक इमारत से अपना ऑपरेशन ज़ारी रखा। इस दौरान वो सिख धार्मिक नेता जरनैल सिंह भिंडरावाले के संपर्क में बना रहा है।
क्या है आनंदपुर साहिब प्रस्ताव
पंजाब में अकाली दल कांग्रेस का विकल्प बनकर उभर चुका था। इंदिरा गांधी ने इसके जवाब के तौर पर 1972 में सरदार ज्ञानी जैल सिंह को पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर खड़ा किया। 1973 में सिखों ने की पंजाब के स्वायत्तता की मांग की1 1978 में पंजाब की माँगों पर अकाली दल ने आनंदपुर साहिब प्रस्ताव पारित किया। इसके मूल प्रस्ताव में सुझाया गया था कि भारत की केंद्र सरकार का केवल रक्षा, विदेश नीति, संचार और मुद्रा पर अधिकार हो जबकि अन्य सब विषयों पर राज्यों के पास पूर्ण अधिकार हों। वे ये भी चाहते थे कि भारत के उत्तरी क्षेत्र में उन्हें स्वायत्तता मिले। अकालियों की पंजाब संबंधित माँगें ज़ोर पकड़ने लगीं। अकालियों की प्रमुख मांगें थीं – चंडीगढ़ पंजाब की ही राजधानी हो, पंजाबी भाषी क्षेत्र पंजाब में शामिल किए जाएं, नदियों के पानी के मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय की राय ली जाए। वहीं जैल सिंह का बस एक ही मकसद था-शिरोमणि अकाली दल का सिखों की राजनीति में वर्चस्व कम करना। लगभग सारे गुरुद्वारों, कॉलेजों और स्कूलों में अकालियों का ही प्रबंधन था। अकालियों के प्रभाव की काट के लिए जैल सिंह ने सिख गुरुओं के जन्म और शहीदी दिवसों पर कार्यक्रमों का आयोजन, प्रमुख सड़कों और शहरों का उनके नाम पर नामकरण और सिख गुरुओं की महत्ता का वर्णन जैसे दांव चले।
आनंदपुर साहिब प्रस्ताव की महत्वपूर्ण बातें
हरियाणा में पंजाबी भाषी या सिख बाहुल्य जिलों को पंजाब को देना
चंडीगढ़ पूरी तरह पंजाब को देना
पंजाब में लैंड रिफोर्म्स, इंडस्ट्रियलाइजेशन
पैन-इंडिया गुरुद्वारा समिति का निर्माण
फौज़ में सिखों की भर्ती अधिक से अधिक
निरंकारियों से झड़प
इंदिरा गांधी ने इस प्रस्ताव को ‘देशद्रोही’ बताया था। इन सब हालात के बीच एक शख्स का उदय हुआ जिसका नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले। इस बीच अकाली कार्यकर्ताओं और निरंकारियों के बीच अमृतसर में 13 अप्रैल 1978 को हिंसक झड़प हुई। इस घटना को पंजाब में चरमपंथ की शुरुआत के तौर पर देखा जाता है। विश्लेषक मानते हैं कि शुरुआत में सिखों पर अकाली दल के प्रभाव को कम करने के लिए कांग्रेस ने सिख प्रचारक जरनैल सिंह भिंडरावाले को परोक्ष रूप से प्रोत्साहन दिया। पत्रकार खुशवंत सिंह के अनुसार भिंडरावेल की तरफ से हिंदू सिखों की समस्याओं के समाधान के लिए हर सिख से 32 हिन्दुओं को मारने का आह्वान किया गया। 1982 में भिंडारावाले ने अकाली दल से हाथ मिला लिया।

भिंडरावाले बना पोस्टर ब्वॉय
सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि अकाली दल सभी सिखों के प्रतिनिधित्व का दावा करता था लेकिन 1952 से 1980 के बीच हुए चुनावों में अकाली दल को पंजाब में औसतन 50 प्रतिशत वोट भी नहीं मिले। इस राजनीतिक विफलता की वजह से ही पंजाब में अलगाववादी विचारधारा मज़बूत होनी शुरू हुई और सिखों के लिए खालिस्तान नाम का अलग देश बनाने की मांग ने जोर पकड़ लिया। पंजाब के सबसे बुरे दौर की कहानी की शुरूआत होती है इंदिरा गांधी की हार से, 1977 के चुनाव में इंदिरा गांधी की कांग्रेस पार्टी को जबरदस्त हार मिली। पंजाब विधानसभा के चुनाव के बाद कांग्रेस को वहां भी सत्ता से हटना पड़ा। पंजाब में प्रकाश सिंह बादल के नेतृत्व में अकाली दल की सरकार बनी और तभी कांग्रेस पार्टी ने एक ऐसे शख्स का सहारा लिया जिसने सात साल के भीतर पंजाब ही नहीं बल्कि पूरे देश में उथल-पुथल मचा दी। नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले। जनरैल सिंह भिंडरावले अमृतरसर के प्रभावशाली दमदमी टकसाल का जत्थेदार था। जरनैल सिंह भिंडरावाले के तेवर शुरू से ही तीखे थे। 13 अप्रैल 1978 को निरंकारी और अमृतधारी सिखों के बीच हुई खूनी मुठभेड़ के बाद से ही वो चर्चा में आने लगा था। इस दिन 13 अमृतधारी सिख मारे गए थे। इसके बाद निरंकारी बाबा गुरवचन सिंह के खिलाफ हरियाणा में मुकदमा चला। फिर उनकी रिहाई भी हो गई। इन बातों से कट्टर सिख नाराज हुए। बीबीसी से जुड़े पत्रकार सतीश जैकब और मार्क टेली ने मिलकर अमृतसर मिसेज गांधी लास्ट बैटल नाम से किताब लिखी। इसमें कहा गया कि संजय गांधी और ज्ञानी जैल सिंह ने भिंडरवाले के प्रचार प्रसार के लिए नई पार्टी बनवा दी। 1989 के चुनाव में भिंडरावाले ने पंजाब की तीन लोकसभा सीटों पर कांग्रेस के उम्मीदवारों के समर्थन में चुनाव प्रचार भी किया। भिंडरावाले और कांग्रेस के बीच क्या रिश्ता था इसके बारे में इंदिरा गांधी ने बीबीसी के एक कार्यक्रम में संकेत दिए थे। इंदिरा ने कहा था कि मैं किसी भिंडरावाला को नहीं जानती। हां, शायद वो चुनाव के दौरान हमारे किसी उम्मीदवार से मिलने आए थे। लेकिन मुझे उस उम्मीदवार का नाम याद नहीं है। इंदिरा गांधी बीबीसी के कार्यक्रम में जिस चुनाव का जिक्र कर रही थीं वो था 1980 का जब इंदिरा की जबरदस्त वापसी हुई।
ऑपरेशन ब्लू स्टार
साल 1980 से 1984 के बीच पंजाब में सैकड़ों निर्दोष लोगों की दिनदहाड़े हत्याएं हुईं और हिंदुओं और सिखों के बीच टकराव पैदा करने की कोशिश की गई। भिंडरावाले ने शुरुआत में निरंकारियों और खालिस्तान का विरोध करने वालों को अपना निशाना बनाया और इसके बाद पत्रकार, नेता, पुलिस और हिन्दू समुदाय के लोग भी उसके निशाने पर आ गए। जुलाई 1982 तक भिंडरावाले इतना मजबूत हो गया था कि उसने अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में अपनी जड़ें मज़बूत कर ली थीं। अकाल तख्त से ही भिंडरावाले ने इंदिरा गांधी को चेतावनी दी और कहा कि हम तो माचिश की तीली की तरह हैं ये लकड़ी से बनी है और ठंडी है लेकिन उसे जलाएंगे तो लपटें निकलेंगी। नरसिंह राव उस दौरान विदेश मंत्री हुआ करते थे उन्होंने अकालियों से बात कर समझौता का रास्ता निकाला कि पंजाब को चंडीगढ़ दिया जाएगा और हरियाणा को अबोहर शहर। लेकिन समझौता की शर्त थी इसके लिए भिंडरावाले किसी भी तरह के समझौते के लिए तैयार नहीं हुआ। जून 1984 तक हालात इतने बिगड़ चुके थे कि स्वर्ण मंदिर को खालिस्तानी अलगाववादियों से मुक्त कराने के लिए इंदिरा गांधी के पास सेना के अलावा दूसरा और कोई विकल्प नहीं बचा था। 1 जून 1984 को पंजाब को सेना के हवाले कर दिया गया। 2 जून 1984 की रात इंदिरा गांधी दूरदर्शन पर आई एक आखिरी अपील के साथ। पंजाब में निर्दोष सिख और हिन्दु मारे जा रहे हैं। अराजकता फैली हुई है। धार्मिक स्थल अपराधियों के आश्रयघर बन गए हैं। कोई संदेह है तो आइए हम बातचीत से इसे हल करने का प्रयास करेंगे। 1 जून 1984 को पंजाब को सेना के हवाले कर दिया गया। ये ऑपरेशन 10 जून दोपहर को समाप्त हुआ, जिसमें 83 जवान शहीद हुए थे और 493 खालिस्तानी आतंकवादी मारे गए थे, जिनमें जरनैल सिंह भिंडरावाले भी था। महज 4 महीने बाद ही 31 अक्टूबर 1984 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके ही 2 सिख सुरक्षाकर्मियों ने कर दी। ऑपरेशन ब्लू स्टार को लेकर हमने एक विस्तृत विश्लेषण पहले ही किया है जिसका लिंक आपको वीडियो के डिस्क्रिप्शन बॉक्स में मिल जाएगा।
ब्लू स्टार के बाद खालिस्तान मूवमेंट का क्या हुआ
खालिस्तान आंदोलन यहीं खत्म नहीं हुआ, इसके बाद से कई छोटे-बड़े संगठन बने। 23 जून 1985 को एक सिख राष्ट्रवादी ने एयर इंडिया के विमान में विस्फोट किया, 329 लोगों की मौत हुई थी। दोषी ने इसे भिंडरवाला की मौत का बदला बताया था। इसके बाद 10 अगस्त 1986 को पूर्व आर्मी चीफ जनरल एएस वैद्य की दो बाइक सवार बदमाशों ने हत्या कर दी। वैद्य ने ऑपरेशन ब्लूस्टार को लीड किया था. इस वारदात की जिम्मेदारी खालिस्तान कमांडो फोर्स नाम के एक संगठन ने ली। 31 अगस्‍त 1995 को पंजाब सिविल सचिवालय के पास हुए बम विस्फोट में पंजाब के तत्कालीन सीएम बेअंत सिंह की हत्‍या कर दी गई थी। ब्लास्ट में 15 से ज्यादा लोगों की मौत हुई। दूसरे देशों में बैठकर भी खालिस्तान समर्थक भारत में कट्टरवादी विचारधारा को हवा देते रहते हैं। पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और चंडीगढ़ में गुरुद्वारों का प्रबंधन करने वाली शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक कमेटी (एसजीपीसी) ने जून 2017 में स्वर्ण मंदिर परिसर में विवादास्पद ‘शहीद स्मारक’ में भिंडरांवाले का चित्र फिर से स्थापित करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया। इसे भाजपा के दबाव में हटाया गया था। पंजाब के जानकारों का मानना है कि खालिस्तान एक विचार है, और कोई विचार कभी नहीं मरता। किसान आंदोलन के दौरान भी बॉर्डर पर कथित तौर पर खालिस्तानी कट्टरपंथी जनरैल सिंह भिंडरावाले के फोटो नजर आने की बात मीडिया रिपोर्ट के माध्यम से सामने आई और खालिस्तान के पक्ष में नारेबाजी की गई। हालांकि ऐसी रिपोर्ट्स आने पर आंदोलनकारी किसानों ने प्रदर्शन के खालिस्तान से कोई संबंध न होने की बात की।

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