डॉ. वेदप्रताप वैदिक
भारत और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों की जो बैठक इस सप्ताह न्यूयार्क में होनी थी, वह भारत ने रद्द कर दी है। उसके तीन कारण बताए गए हैं। पहला, एक भारतीय जवान की पाकिस्तानी फौज द्वारा नृशंस हत्या। दूसरा, कश्मीर के तीन पुलिसवालों का उनके घर से अपहरण और हत्या। तीसरा, पाकिस्तान द्वारा अपनी आतंकवादियों की स्मृति में डाक-टिकिट जारी करना। इन कारणों से जैसे ही वार्ता रद्द करने की घोषणा नई दिल्ली से हुई, पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान खान ने जरुरत से ज्यादा सख्त प्रतिक्रिया कर दी। उन्हें यह कहने की क्या जरुरत थी कि छोटे दिमाग के लोग बड़ी-बड़ी कुर्सियों में बैठ जाते हैं। क्या यह बात ज्यादातर नेताओं और खुद उन पर भी लागू नहीं की जा सकती ? भारतीय नेताओं याने नरेंद्र मोदी पर उन्होंने अहंकारी और निषेधात्मक होने का आरोप भी लगाया। हो सकता है कि उनकी इस खिसियाहट का कारण यह रहा हो कि उन्हें मोदी से बहुत अधिक आशाएं रही हों लेकिन उन्हें मोदी की मजबूरी भी समझनी चाहिए। मोदी इस समय चुनावी दौर में है। यदि वे पाकिस्तान के प्रति नरम दिखाई पड़े तो अगले साल चुनाव में उनका 56 इंच का सीना सिकुड़कर 6 इंच का रह जाएगा। भारत के अखबारों और टीवी चैनलों में सीमांत के हत्याकांडों का इतना प्रचार हुआ है कि हिंदुस्तान की आम जनता का पारा गर्म हो गया है। सरकार उसकी उपेक्षा कैसे कर सकती है ? उससे भी बड़ी बात यह कि इमरान सरकार ने उक्त तीनों घटनाओं के घावों पर मरहम रखने की कोशिश भी नहीं की। लेकिन जैसी सख्त प्रतिक्रिया इमरान ने की है, वैसी मोदी ने भी की है। चार साल हो गए लेकिन मोदी को अभी तक विदेश नीति-संचालन का क ख ग भी पता नहीं। जैसे बिना तैयारी किए वे नवाज शरीफ के यहां शादी में चले गए, वैसे ही उन्होंने सुषमा स्वराज और शाह महमूद कुरैशी की भेंट भी रद्द कर दी। भेंट की घोषणा हमारे फौजी जवान की नृशंस हत्या के बाद की गई। क्यों की गई ? नहीं की जानी चाहिए थी। आतंकवादियों के डाक-टिकिट तो पाकिस्तानी सरकार ने इमरान की शपथ के दो हफ्ते पहले जारी किए थे। उसमें इमरान का क्या दोष ? जहां तक कश्मीरी पुलिसवालों का सवाल है, उन आतंकवादियों के पीछे पाकिस्तानी फौज का हाथ हो सकता है और नहीं भी हो सकता है। ऐसी संदेहात्मक स्थिति में उस भेंट को रद्द करना अस्थिर चित्त का परिचायक मालूम पड़ता है। इन घटनाओं के बावजूद यदि न्यूयार्क में वह भेंट होती तो सुषमाजी इन सब मामलों को जमकर उठातीं और इमरान सरकार को प्रेरित करतीं कि वह फौज के प्रभाव से मुक्त होकर मजबूती से काम करती। अब दोनों तरफ के खंजर तन गए हैं। वे कश्मीर का राग अलापेंगे और हम आतंकवाद का ! मोदी और इमरान दोनों जरा संभलकर चलें।
पश्चिम में देखा सुना गया है कि अच्छे लेखक लिखते हैं क्योंकि उनके पास दूसरों द्वारा पढ़ने योग्य कुछ है अथवा वे स्वयं कोई ऐसा काम करते हैं जो लिखने योग्य है| प्रधान मंत्री तथा उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय राजनैतिक दल बीजेपी की आये दिन खिल्ली उड़ाने के अतिरिक्त यह लेखक महाशय का स्वभाव स्वामी विवेकानंद द्वारा कहे कथन, “हर कार्य को इन चरणों से गुजरना होता है, उपहास, विरोध, ओर फिर स्वीकृति| जो समय से आगे की सोचते हैं उन्हें गलत समझा जाना निश्चित है|” को चरितार्थ करने में सहायक है|
तथाकथित भारतीय विदेश नीति परिषद के अध्यक्ष द्वारा प्रस्तुत विभिन्न लेख पढ़ मुझ बूड़े पंजाबी का कांग्रेस-राज के हिंदी-भाषी राजनीतिक लेखकों में अविश्वास प्रबल होता जा रहा है| भारतीय राजनैतिक क्षितिज पर युगपुरुष मोदी के आने से पूर्व कांग्रेस-राज में पले बड़े इन तथाकथित लेखकों के कारण ही देश के बहुसंख्यक नागरिक गरीबी और गंदगी में मूलभूत उपलब्धियों से वंचित केंद्र में सहस्त्रों वर्षों उपरान्त पहली बार स्थापित राष्ट्रीय शासन की समस्या बने हुए हैं| लाल किले की प्राचीर से १२५ करोड़ भारतीयों को संबोधित कर प्रधान मंत्री द्वारा भारत पुनर्निर्माण में उनके योगदान का आवाहन इन लेखकों को सुनाई नहीं दे पाया है|