यूं ही कोई आदमखोर नहीं बनता

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बिपिन जोशी

 

नौ साल  का लड़का अपने आंगन में खेल रहा है। ढलते सूरज की किरणें सामने हिमालय पर पड़ रही हैं बालक हिमालय के बदलते रंगों को निहार रहा है,  हिमालय के बदलते रंग उस लड़के को रोमांचित कर रहे हैं वह ध्यानमग्न हैं। अभी तो चांदी के समान चमक रहा था, अभी यह लाल हो गया, लड़का कह रहा है अरे यह तो अब पीला होने लगा। वह कल्पानलोक में डूबता है, फिर अगले ही पल यथार्त में आ खड़ा होता है। लड़का अपने सपनो के साथ खेल ही रहा है कि अचानक आदमखोर गुलदार (तेंदुआ)  उसे दबोच कर दूर खेतों की ओर ले जाता है। उसके जूते रास्ते में दूर छिटक जाते हैं, कपड़े फट जाते हैं, दीवार से सिर टकराता है और निकलती है एक दर्दनाक चीख। लड़के की चीख सुन चारों ओर कोहराम मच जाता है। हल्ला मचाते लोग गुलदार के पीछे भागते हैं, लड़के की खोज शुरू होती है और देर रात लड़के की लाश  बरामद होती है। शोक में डूबे परिवार के आस-पास लोग आपस में बतिया रहे हैं,  घर का आंगन भी सुरक्षित नहीं अब तो। किसी ने चुपके से कह दिया कि कसूर तो उस मैनईटर का भी नहीं था ? कुछ तो वजह रही होगी उसके मैनईटर होने की, यूं ही कोई आदमखोर नहीं बनता।

उत्तराखंड में इन दिनों गुलदार का आतंक फैला हुआ है। बीते एक दशक में सैकड़ों लोग खासकर मासूम बच्चे गुलदार का निवाला बने हैं। जन आक्रोश भी धीमे से फैल रहा है। सरकार की नीतियों पर प्रश्न चिन्ह भी लगे हैं। बाघ हमारी खाद्य श्रृंखला का महत्वपूर्ण घटक है। भारत सरकार ने 1973 में वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ फन्ड  (डब्लयूडब्लयूएफ) इंटरनेशनल के सहयोग से प्रोजेक्ट टाइगर शुरू किया था। इस महत्वपूर्ण परियोजना का उद्देश्य था टाइगर की प्रजाति और उसके आवास को सुरक्षित करना। इसके लिए देश में9 बाघ अभ्यारण बनाये गये जो 16,339 वर्ग किमी में फैले थे। 1997 तक अभयारण्य बढ़कर 27 हो गये और बाघों की संख्या 1500 हो गई जो 1997 में 268 थी। एक डेटा कहता है कि आज विज्ञान को पौधों और प्राणियों की लगभग 1.8 मिलियन प्रजातियों की जानकारी है। इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि प्राणियों और वनस्पतियों की यह संख्या कई गुना अधिक हो। यदि मानव जीवन शैली न बदली तो अगले 30 वर्षो में दुनिया की 25 फीसदी प्रजातियां खत्म हो जाएंगी। अतः पर्यावरण के महत्व को समझने के लिए एक-एक घटक को जानना समझना, उसके प्रति संवेदनशील होना एकमात्र विकल्प है। इसके अलावा हम कुछ नहीं कर सकते। किसी ने ठीक ही कहा है “जब धरा ही नहीं रहेगी तो सब कुछ धरा का धरा रह जायेगा”। इसलिए भी पर्यावरण को बचाना आवश्यक है।

यह धरती हमें क्या नहीं देती ? हम इससे जितना ले रहे हैं क्या वह उचित है ?  आज धरती की कुल आबादी लगभग 8 अरब है। संसाधनों पर दबाव बड़ रहा है। बढ़ती जनसंख्या पहली और दूसरी चुनौती है- जलवायु परिवर्तन के असर को कम करना।

उपरोक्त तमाम परेशानियों का समाधान अधिकांश जनता स्वयं ही खोज रही है। संघर्ष कर रही है। यह बड़ी चिन्ताप्रद बात है कि मानव और प्रकृति का सम्बन्ध विध्वंसात्मक हो रहा है, इस सम्बन्ध को कैसे परस्पर बनाए यह सबसे महत्पूर्ण सवाल है। पहाड़ों में अप्रैल से जून मध्य तक बड़ा फायर सीजन होता है। लोग घास के मैदानों में आग लगा देते हैं, यह आग जंगल में फैल जाती है। इससे जंगली जानवरों के आशियाने खत्म हो जाते हैं। उनको भोजन और आग से बचने के लिए जंगल से आबादी की ओर रूख करना होता है। आबादी क्षेत्र में उनको भोजन और सुरक्षा दोनों मिल जाती है। पहाड़ की आधी जनता खेती में जंगली जानवरों के दखल से परेशान है। रोज कहीं न कहीं विरोध के स्वर बुलंद हो रहे हैं। लोगों की मांग है जानवरों का कुछ इंतजाम किया जाए, उनको आबादी क्षेत्र से हटाया जाए। लेकिन यही बड़ी आबादी जंगलों में लगने वाली आग का विरोध नहीं करती। इस आबादी के बड़े हिस्से को गुलदार, जंगली सुअर, बन्दर, भालू, आदि से परेशानी है परन्तु अपने क्षेत्र में प्रस्तावित आल वेदर रोड से इसे कोई आपत्ति नहीं होती। उत्तराखंड में ऑल वेदर रोड के निर्माण में हजारों की संख्या में पेड़ काटे जा रहे हैं। यदि जनता का एक बड़ा वर्ग पर्यावरण के प्रति संवेदनशील नहीं होगा तो क्या होगा ?

9 साल के उस बालक को अपने जबड़े में दबाये आदमखोर ने कभी नहीं सोचा होगा कि उसे एक दिन आदमी के बच्चे का शिकार करना होगा। । जंगल के अपने नियम- कायदे होते हैं। उन नियमों पर जंगल कितने ही जीवों को पनाह देता है। जितना घना जंगल उतनी ही हरियाली, नमी, पानी की इफरात। सभी वन वासी एक दूसरे पर निर्भर रहने की प्रतिबद्धता लिए हुए खुश रहते थे। वह कौन था जिसने जंगल की शांत वादियों में विकास की अराजक चहलकदमी शुरू कर दी ? वहां मशीने पहंचा दी, सड़कें बना दी, खदानें बना ली, जानवरों की प्रदर्शनी लगा दी। मदमस्त बहती नदी को कैद कर लिया। विकास कार्यो में दखल देने की ऐवज में वनवासियों पर जुल्म ढाये गये। इंसानों पर तो आफत बरसी साथ में मासूम जानवरों पर भयंकर मुसीबतें आने लगी।

तब क्या करें ? समाधान की बात करें या दो-चार समस्याओं पर और गौर करें ? मौजूदा हालात में तो समाधान की बात ज्यादा सार्थक लगती है। समाधान भी कई स्तरों में होगा। सरकार प्रदत समाधान जिसमें तमाम तरह की विकास नीतियां और सम्बन्धित प्रशासकीय इंतजाम शामिल हैं। सतत विकास के लक्ष्य 13 का उद्देश्य भी इन्ही प्रयासों की ओर इशारा करता है जिसके अनुसार जलवायु परिवर्तन और उसके प्रभावों का मुकाबला करने से लेकर राष्ट्रीय नीतियों, योजनाओं में जलवायु परिवर्तन के सभी कारणों और उसे दूर करने के उपायों पर ज़ोर दिया गया हैं तथा उस समस्या से निपटने के लिए सभी स्तरों पर शिक्षा तथा अन्य माध्यमों से जागरुकता फैलाकर पर्यावरण को संरक्षित करने का प्रयास निंरतर किया जाए ताकि जलवायु परिवर्तन की समस्या से जूझ रहे संपूर्ण संसार को समय रहते काल के गाल में समाने से बचाया जा सके।

दूसरे स्तर में सामुदायिक प्रयास होते हैं, जब सरकारें असफल होती हैं विकास करने में तो लोग रचनात्मक विकास की ओर रूख करते हैं। जैसे आपसी सहयोग से स्वैच्छिक प्रयासों से गांव में रास्तों का निर्माण, सड़क निर्माण, पीने के लिए पेयजल का इंतजाम करना आदि। वनों को समृद्ध करने के लिए सिर्फ बायोस्फेयर पार्क बना देने से काम नहीं चलेगा। जिन लोगों का जीवन वनों पर आश्रित है, जो वनो के हितैषी भी हैं उनके लिए नियमों में कुछ नरमी बरती जानी चाहिए। जंगल प्राकृतिक तौर पर पनपते हैं। लेकिन पूर्ण रूप से उजड़ चुकी या धीरे-धीरे समाप्त हो रही जैव विविधता को पुनः सरसब्ज करने के लिए जंगलों को दुबारा समृद्ध करना होगा। ताकी जंगली जानवरों को जंगल में ही खुराक मिल जाए, भोजन और जीवन की तलाश में जानवरों को जंगल से बाहर नहीं जाना पड़ेगा और एक तरह का संतुलन बना रहेगा। इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए बेहतर समझ के साथ नीतियां बनानी होंगी और जनता तक उन नीतियों को ले जाना होगा। जंगल सिर्फ कमाई का साधन नहीं है वह जीवन का पर्याय भी हैं इसे समझना होगा।?  आदमी बनाम जानवर की जंग सदियों पुरानी रही है। अब उसका रूप व्यावसायिक हो चला है। ऐसा नहीं कि जानवरों पर हमला करने वालों को सजा नहीं मिली है, पर उनको त्वरित प्रभाव से राहत भी मिल जाती है। सरकार अपनी योजनाओं में वन्यजीव संरक्षण को कैसे लाए कि परस्परता भी बनी रहे, जंगलों और समाजों की विविधता भी कायम रहे यह एक चुनौती है।

क्या हम इस बात-चीत को शिक्षा में निहित प्रयासों की ओर ले जा सकते हैं ? जैसे- सप्ताह में एक दिन पर्यावरण की किसी थीम पर बात-चीत के लिए रखें। उस दिन का दीवार पत्र भी उसी मुद्दे पर आधारित हो। बच्चों से बात-चीत की जाएगी तो पूरा गांव उतर आयेगा उनकी चर्चाओं में। गांव के पेड़-पौधे, गांव के लोग उनसे जुड़ी बातें, पानी के स्रोत-पानी से जुड़ा संघर्ष, जंगल की कहानियां उन कहानियों में फिर से गुलदार या किसी अन्य जानवर की कहानी, किस्से खेती के, खेती से जुड़े गीतों के और भी कई बातें जो अक्सर रह जाती हैं अनकही सी। इन सब बातों को करने की एक तय प्रक्रिया होगी, जिसका जुड़ाव बच्चों के सीखने से होगा। इसी चर्चा में उनके कई सारे हुनर निखरेंगे, कौशलों का विकास होगा, समझ बनेगी। जब इस अभ्यास में बच्चे और शिक्षक अभ्यस्त हो जाए तो स्कूल और उसके आस-पास के लिए एक योजना बनाई जा सकती है। जिस योजना में स्कूल की पेयजल व्यवस्था, आसपास के पेड़ पौधों पर बात की जा सकती है। गांव में विभिन्न समुदाय के कार्यो और उनकी स्थिति पर शोध हो सकता है। लोग गीतों पर कार्य हो सकता है, बदलते पर्यावरण पर काम हो सकता है। पर्यावरण के जन जीवन में व्यापक प्रभाव कैसे हो रहे हैं इस बारे में भी शोध हो सकता है। शिक्षा मूल्यों का विकास करने में सहायक होती है। शिक्षा के माध्यम से ही समाज बदलाव के लिए काम करने वाले संवेदनशील नागरिक तैयार होते हैं। जो सवाल उठाते हैं, विरोध करते हैं, सिर्फ हंगामा करना जिनका मकसद नहीं होता जो एक कदम आगे बढ़कर अहिंसक समाधान की बात भी करते हैं।

हमें नही भूलना चाहिए कि सदियों पहले मानव जीवन की शुरुआत जंगलों से ही हुई और जंगलों से ही हमने जीवन की गहराई को समझा परंतु बाद में अपने ही हाथों जंगलों को उजाड़कर आज हम जलवायु परिवर्तन जैसी अन्य कई समस्याओं को झेल रहे हैं। पेड़- पौधे इस धरती के महत्वपूर्ण घटक हैं और पूरा पर्यावरणीय चक्र इसी के इर्द- गिर्द घुमता हैं ऐसे में इससे निपटने के लिए इस महत्वपूर्ण घटक को बचाने के लिए हमें कई स्तरों पर इसे बचाने के लिए प्रयासरत होना होगा तभी न सिर्फ सतत विकास का लक्ष्य पूरा हो सकता है बल्कि धरती पर जीवन चक्र का क्रम प्राकृतिक रुप से चलता रहेगा।

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