मनोज ज्वाला
लम्बे समय से चलते आ रहे आन्दोलनों, राजनीतिक अटकलों तथा नेताओं के
परस्पर-विरोधी बयानों और न्यायालय की अटकलबाजियों के बीच अयोध्या में
रामजन्मभूमि पर मन्दिर निर्माण का मामला लटका ही हुआ है । लोगबाग अब यह
मानने लगे हैं कि इसी मुद्दे को ले कर अपनी राजनीतिक जमीन तैयार कर चुनाव
लडते रहने वाली जिस भाजपा को रामजी पूरे भारत का राज-पाट दिला दिए , उसकी
सरकार अयोध्या में राम-मन्दिर का निर्माण कराने के प्रति उदासीन है ।
रामजी के सहारे भाजपा तो सत्तासीन हो गई, किन्तु रामजी अबतक बेघर ही हैं,
मानो उनके वनवास की अवधि इस कलयुग में बढती ही जा रही है । सच भी यही है,
किन्तु यह सच वास्तव में द्वीअर्थी और द्वीआयामी व दूरगामी है । इसका एक
अर्थ और एक आयाम तो यही है, जो आम तौर पर सबको दृष्टिगोचर हो रहा है ;
किन्तु इसका दूसरा अर्थ और दूसरा आयाम बहुत गहरा व बहुत व्यापक है , जिसे
राजनीति की दूरदृष्टि से सम्पन्न कम ही लोग समझ रहे हैं । ऐसे
दूरदृष्टि-सम्पन्न लोगों में कदाचित राम को ले कर राजनीति की दिशाधारा
बदल देने वाले निष्णात राजनीतिज्ञ लालकृष्ण आडवाणी एवं
राम-मन्दिर-विरोधियों को धूल चटा कर सत्तासीन हो जाने वाले नरेन्द्र मोदी
भी हों, इससे इंकार नहीं किया जा सकता है । तो अब आते हैं इस मामले के
उस अदृश्य सच और अदृश्य आयाम पर , जिसे कदाचित राष्ट्रीय स्वयंसेवक
संघ-परिवार का वह शीर्ष-नेतृत्व भी समझ रहा है, जिसने इस मुद्दे को
वैचारिक पोषण देते रहने और जन-मानस को समय-समय पर आन्दोलित करने रहने का
काम किया है ।
इस वर्तमान कलयुग में राम अयोध्या से बेघर हैं, अर्थात वनवास में
हैं और वनवास की अवधि बढती जा रही है । यह एक दृश्य तथ्य है । जबकि,
अदृश्य तथ्य यह है कि वनवास में ही राम का अटूट संकल्प और प्रचण्ड
पुरुषार्थ प्रकट होता है, जिसकी पराकाष्ठा असुरों के संहार से प्रदर्शित
होती हुई रामराज्य की स्थापना में परिवर्तित होती है । वनवास के दौरान ही
राम ने भारतीय सनातन धर्म-संस्कृति पर अभारतीय अधार्मिक या यों कहिए
धर्मनिरपेक्ष आसुरी सत्ता के आतंक से पीडित मुनि-समाज के बीच अस्थियों की
ढेर देख कर और सरभंग ऋषि के आत्मदाह से द्रवित हो कर धरती को निशिचरहीन
करने का संकल्प लिया था, जिसे तुलसीदास ने इन शब्दों में उकेरा है- “
निशिचरहीन करउं महि, भुज उठाई प्रण किन्ह ; सकल मुनिन्ह के आश्रमहीं
जाई-जाई सुख दिन्ह” । आगे की पूरी रामकहानी धरती को निशिचरहीन अर्थात
असुरविहीन करने की रामनीतिक-राजनीतिक-रणनीतिक-दैविक गाथाओं की परिणति है
। आसुरी शक्तियों के संहार के दौरान राम द्वारा अपनायी गई रणनीति के तहत
पहले सुग्रीव का और फिर बाद में विभीषण का राज्यारोहण होता है । अन्ततः
असुराधिपति रावण की सम्पूर्ण पराजय के बाद ही अयोध्या लौटने पर राम
राज्यारुढ होते हैं । त्रेता युग के उस पूरे आख्यान का सूक्ष्मता से
अवलोकन करें तो आप पाएंगे कि राम के वनगमन और सीता के अपहरण की घटना
वास्तव में असुरों के उन्मूलन की पूर्व-पीठिका थी, जो सुनियोजित ही नहीं
, किसी न किसी रुप में प्रायोजित भी थी । भूतकाल की किसी भी घटना का फल
भविष्य में ही फलित होता है , अर्थात भविष्य की चाबी इतिहास के गर्भ में
सुरक्षित होती है । यह तथ्य सदैव सत्य प्रमाणित होता रहा है । त्रेता युग
में भी और इस कलयुग में भी ।
आज भी स्थिति कमोबेस वही, त्रेता युग जैसी नहीं , तो वैसी ही
जरूर है । मुगलिया शासन-काल से ही सनातनधर्म पददलित किया जाता रहा है ।
अंग्रेजी शासनसे सृजित संविधान के द्वारा सनातन धर्म की परम्परायें
मिटायी जाती रही हैं और अभारतीय आसुरी परम्परायें स्थापित की जाती रही
हैं । धर्मनिरपेक्षता के नाम पर कायम राजनीति की कोख से जन्में अनेकानेक
असुर-दल भारत राष्ट्र से न केवल भारतीय संस्कृति व भारतीय अस्मिता को
मिटाने पर तुली हुई हैं, बल्कि इस राष्ट्र को खण्डित-विखण्डित करने में
भी संलग्न हैं । जाहिर है, ऐसे आपातकाल में राम किसी भव्य भवन तो क्या,
अयोध्या में भी नहीं रह सकते ; बल्कि तापस वेश धारण कर
वनवासियों-गिरिवासियों के बीच राष्ट्रीयता का जागरण करना और असुर
शक्तियों के विरूद्ध सुग्रीव-जामवन्त-हनुमान को जाग्रत करते रहना ही उनकी
स्वाभाविकता है । राम तो उसी दिन से अयोध्या से बाहर हैं, जिस दिन भारत
का पहला व्यक्ति सनातन धर्म त्याग कर आसुरी-मजहबी-अब्राहमी अधर्म को अपना
लिया, तभी तो उनका महल मस्जीद में तब्दील हो गया । राम १६वीं शताब्दी से
ही भारत भर में जन-जागरण करते फिर रहे हैं । किन्तु एकदम जडवत हो चुका इस
देश का सनातन समाज अब आ कर जाग्रत हुआ है, जब कंग्रेस, कम्युनिष्ट , सपा
, बसपा, राजद-जदयु, तृमूकां, तेदेपा, आआपा नामक अनेकानेक असुर दलों की
असुरता लोगों के सिर चढ कर बोलने लगी और धर्मनिरपेक्षता नामक आसुरी माया
अनावृत हो कर सनातनधर्म-विरोधी अधार्मिकता के असली रुप में लोगों को
दृष्टिगत होने लगी । भारत के ये तमाम राजनीतिक दल असुर-दल ही हैं,
क्योंकि इनकी मान्यतायें वेद-विरोधी हैं और भारतीय दृष्टि में
वेद-विरोधियों व गौ-भक्षकों को ही असुर कहा गया है , जबकि वेदों को
प्रतिष्ठा देने वाले ‘देव’ कहे गए हैं । इस कलयुग की असुरता चूंकि रावण
की असुरता से कई गुणी ज्यादा बढी-चढी हुई है और इसका रुप स्थूल शारीरिक
नहीं, बल्कि सूक्ष्म बौद्धिक है ; इस कारण इसके संहार की तैयारी में राम
का वनवास लम्बे समय से जारी है । एक मुगल आक्रान्ता द्वारा अयोध्या में
राम-मन्दिर तोड कर उस पर मस्जीद बना देने तथा कालान्तर बाद की सरकार
द्वारा उसमें ताला लगा देने और फिर सन १९४७ के बाद की सरकारों व राजनीतिक
दलों द्वारा उस पर एक अब्राहमी मजहब की दावेदारी पेश किये जाने तथा भाजपा
द्वारा मन्दिर-निर्माण को ले कर राजनीति किये जाते रहने की भूतकालीन
घटनाओं के जो परिणाम बाद के भविष्य में निकलने थे , सो निकलने लगे हैं ।
अर्थात, उस अवधेश वनवासी का पुरुषार्थ सन २०१४ से प्रत्यक्षतः फलित होने
लगा है । लोकतांन्त्रिक राजनीति का देवासुर-संग्राम छिड चुका है, जिसमें
असुर-दल सत्ता से बेदखल हो एक-एक कर धराशायी होते जा रहे हैं । धराशायी
ही हुए हैं अभी तक , मिट्टी में नहीं मिले हैं अभी सभी । अब वे सब के सब
असुर-दल परस्पर महागठबन्धन बना कर सनातन धर्म के विरूद्ध संगठित रुप में
खडा होने की चेष्टा कर रहे हैं, जिससे देवासुर-संग्राम अब और ज्यादा
रोमांचक व निर्णायक होने जा रहा है, तब ऐसे में मैदान छोड कर राम का
मन्दिर बनाने में प्रवृत हो जाना, उस राम का साथ छोड देना होगा, जिनका
प्रण है- “निशिचरहीन करउं महि” । कदाचित यही कारण है कि तमाम
परिस्थितियां अनुकूल होने के बावजूद भाजपा-सरकार मन्दिर-निर्माण-कार्य की
ओर प्रवृत नहीं हो पा रही है । शायद इस विडम्बना का कारण यही है कि भारत
की अक्षुण्णता व राष्ट्रीयता अर्थात सनातन धर्म को संरक्षित करते रहने
वाले राम को ही मन्दिर-निर्माण अभी स्वीकार नहीं है ; क्योंकि सत्ता से
बाहर ही सही , धर्मनिरपेक्षतावादी, अर्थात सनातनधर्म-द्रोही इन असुर-दलों
के रहते मन्दिर निर्माण कर भी लिया जाए और बाद में ये असुर-दल सत्तासीन
हो जाएं , तब ये मन्दिर को अगर तोड न भी पाएं , तो सनातन धर्म को पददलित
न करते रहें , इसकी क्या गारण्टी ? इसलिए ऐसा मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि
भारतीय राष्ट्रीयता, जो महर्षि अरविन्द के शब्दों में ‘सनातन धर्म’ ही है
, उसकी पुनर्प्रतिष्ठा हेतु भारत की राजनीति को निशिचरहीन-असुरविहीन किये
बिना आयोध्या में राम के मन्दिर का निर्माण राम को ही नहीं है स्वीकार ।
कदाचित इसी कारण राम का वनवास अभी जारी है । समस्त असुर-दलों का सफाया हो
जाने के बाद जब अयोध्या लौट आयेंगे श्रीराम ; तब जाहिर है, वे किसी
तिरपाल में नहीं रहेंगे , बल्कि चक्रवर्ती राजा की गरिमा के अनुरुप भव्य
राजमहल में ही बिराजेंगे, और जो राम समुद्र पर सेतु बनवा सकते हैं , वे
‘इण्डिया दैट इज भारत’ की संसद से पारित किसी कानून या न्यायालय से
निर्गत किसी निर्णय के बिना भी अपनी जन्मभूमि पर अपना महल तो रातों-रात
बनवा ही सकते हैं । किन्तु धर्मनिरपेक्षतावादियों-असुरों के गिरोह जब तक
अस्तित्व में हैं, तब तक राम अयोध्या नहीं लौटेंगे… क्योंकि उनका प्रण
है- “निशिचरहीन करउं महि……..”॥ अतएव , राम-मन्दिर के निर्माण और राम
की महिमा पर सवाल खडा करते रहने वाले भक्तों व बुद्धिबाजों को यह तथ्य
जान-समझ लेना चाहिए ।
• मनोज ज्वाला
धन्यवाद मनोज जी आप का दीर्घ दृष्टि – दृष्टिकोण पाठकों के सामने लाने के लिए.
इसी प्रकार लिखते रहिए.
कुछ शीघ्रता से ही पढा…. बाद में समय लेकर पढूँगा.
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हमें मन्दिर तो चाहिए साथ सांस्कृतिक विजय भी.