राहुल के निशाने पर दागी

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rahul1प्रमोद भार्गव

कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी के बयान के बाद डा मनमोहन सिंह के नेतृत्व में दिन गिन रही सप्रंग सरकार एकाएक सांप-छंछूदर की गति को प्राप्त हो गर्इ है। दांगी सांसद विधायकों को संरक्षण देने वाला अध्यादेशी अजगर उसके हलक में अटक गया है। जल्दबाजी में उठाया गया यह नादानी भरा कदम था। क्योंकि इसका लाभ तो भाजपा समेत सभी राजनीतिक दल उठाते, लेकिन फजीहत संप्रग नेतृत्व वाली कांग्रेस की होती। हालांकि भाजपा और वामपंथी दल इसके खिलाफ में थे। भाजपा तो लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी से मुलाकात कर इसे नामंजूर करने की मांग तक कर आर्इ थी। दूसरी तरफ, जब अध्यादेश राष्ट्रपति की निगरानी में आया तो उस पर उन्होंने दस्तखत करने की बजाए सरकार से जवाब तलब किया। बाद में तीन केंद्रीय मंत्री उनसे मिले भी। लेकिन अब राहुल के बयान ने न केवल अध्यादेश को सिरे से नकार दिया है, बलिक इस बयान के बाद सरकार ने अध्यादेश के बाबत जिस तरह से पलटी खार्इ है, उससे सरकार की साख और मनमोहन सिंह के पद पर बने रहने के औचित्य पर भी सवाल उठ रहे हैं। इतना जरुर है कि राहुल एकाएक सत्ता के तीसरे केंद्र के रुप में राष्ट्रीय पटल पर उभर आए हैं।

दिल्ली के प्रेस क्लब में कांग्रेस प्रवक्ता अजय माकन पत्रकारों से बातचीत कर रहे थे कि अप्रत्याशित ढंग से राहुल अवतरित हो गए। उन्होंने बेहद नाटकीय अंदाज में पत्रकारों से सीधे मुखातिब होते हुए अब तक का सबसे विवादित बयान दे डाला। बोले, ‘दागी सांसदों-विधायकों को बचाने की दृशिट से लाया गया अध्यादेश बकवास है। इसे फाड़कर फेंक देना चाहिए। राहुल आंधी की तरह आए और महज तीन मिनट में अपनी बात कहकर तूफान की तरह चले गए। बाद में पत्रकारों द्वारा पूछे जाने पर मकान ने कहा, ‘जो राहुल की लाइन है, वही पार्टी लाइन है। इन बयानों के खबर बनते ही कांग्रेस के सभी मंत्रियों और प्रवक्ताओं के सुर बदल गए। यह संकेत मध्ययुगीन सामंती मानसिकता का प्रतीक है, जो लोकतांत्रिक परंपराओं के लिए ठीक नहीं है।

यहां सवाल उठता है कि जब अध्यादेश कैबिनेट मंजूर कर रही थी तब क्या इन मंत्रियों की जुबान पर ताले पड़े थे ? कैबिनेट आंख मूंद कर ऐसे अध्यादेश को क्यों मंजूर कर सीधे राष्ट्रपति के पास भेज दिया, जिसे अब गैर संवैधानिक और बकवास बताकर प्रधानमंत्री समेत कैबिनेट की फजीहत हो रही है ? संवैधानिक वैधानिकता तो यह थी कि इसे संसद की स्थायी समिति के पास भेजा जाता। वहां विचार-विमर्श के बाद कैबिनेट इस पर मोहर लगाती, तब इसे राष्ट्रपति के अनुमोदन के लिए भेजा जाना उचित होता ? वैसे भी देश में कोर्इ ऐसी आपात स्थिति नहीं थी कि अध्यादेश लाना सरकार की तात्कालिक मजबूरी बन गर्इ हो ? फौरी लाभ तो चंद दागी सांसद व विधायकों को मिलना है, जिनमें चारा घोटाले में फंसे लालू यादव और राज्यसभा सदस्य रसीद मसूद शामिल हैं। मसूद को सीबीआर्इ अदालत ने स्वास्थ्य मंत्री रहते हुए एमबीबीएस सीटों के घोटाले का दोषी पाया है। एक अक्टूबर को सजा संबंधी फैसला आना है। इसका त्वरित लाभ गुजरात के मंत्री बाबूलाल बुखारिया को भी मिलता, जिन्हें अदालत ने 53 करोड़ के एक घोटाले में तीन साल की सजा सुनार्इ है। पर वे मंत्री पद पर बने हुए हैं। नैतिकता और र्इमानदारी की दुहार्इ देने वाली भाजपा का अपराधियों को संरक्षण देने वाला एक चेहरा यह भी है, जो लोकतंत्र की शर्मनाक स्थिति है।

हालांकि इस अध्यादेश की वास्तविक तसबीर प्रधानमंत्री के अमेरिका से लौटने के बाद साफ होगी। वैसे उन्होंने अपनी पहली प्रतिकि्रया में कहा है कि ‘वापस आने के बाद इस मुददे पर कैबिनेट में चर्चा की जाएगी। सिंह ने इस बाबत राहुल की चिटठी मिलने की बात भी स्वीकारी है। किंतु उन्होंने फिलहाल अध्यादेश वापस लेने की बात नहीं कही। अलबत्ता, राहुल के बयान के बाद पूरे कैबिनेट का सुर जरुर बदल गया है। ऐसे में सोनिया गांधी की मेहरबानी पर प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाल रहे, बेचारे मनमोहन सिंह की क्या बिसात की वे सरकार पर अपनी मर्जी थोप पाएं ? वे तो बेबस हैं। सत्ता की केंद्रीय धुरी सोनिया और राहुल हैं। राहुल के सुर में जिस तरह से केंद्रीय कैबिनेट ने सुर मिलाया है, उससे साफ होता है कि लोकतंत्र में कैबिनेट अपनी न्यूनतम मर्यादा भी सुरक्षित नहीं रख पार्इ है। प्रधानमंत्री का वजूद खत्म होने जैसा लगता है। इस बयान ने राहुल का कद एकाएक बड़ा दिया है, जबकि मनमोहन सिंह का कद घटा है। वे राहुल के बरक्ष बौने साबित हुए हैं। एक स्वाभिमानी व्यक्ति की तो ऐसे में नैतिक विवशता हो जाती है कि वह इस्तीफा देकर दुविधा से मुक्त हो जाए। किंतु मनमोहन सिंह के चरित्र में नायकत्व की इस उत्कृश्ठता के गुण का सर्वथा अभाव है। लिहाजा वे लौटते ही सोनिया व राहुल के प्रति अपनी वफादारी जताएंगे और कैबिनेट की औपचारिकता पूरी कर अध्यादेश वापस ले लेंगे ?

यह सारा विवाद सर्वोच्च न्यायालय की ओर से 10 जुलार्इ को आए उस आदेश के बाद पैदा हुआ, जिसमें उसने जनप्रतिनिधित्व कानून की धारा 8(4) को अंसवैधानिक करार देते हुए रदद कर दिया था। इस आदेश के मुताबिक अदालत द्वारा दोषी ठहराते ही जनप्रतिनिधि की सदस्यता समाप्त हो जाएगी। अदालत ने यह भी साफ किया था संविधान के अनुच्छेद 173 और 326 के अनुसार दोषी करार दिए लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल ही नहीं किए जा सकते हैं। इसके उलट जनप्रतिनिधित्क कानून की धारा 8(4) के अनुसार सजायाफता जनप्रतिनिधियों को निर्वाचन में भागीदारी के सभी अधिकार हासिल हैं। अदालत ने महज इसी धारा को विलोपित किया है। जिसे सरकार ने पहले तो पुनर्विचार याचिका के जरिए  बदलवाने की कोशिश की, लेकिन अदालत ने बिना सुने ही याचिका खारिज कर दी। इसी वजह से अदालत का फैसला यथावत बना हुआ है।

इसी यथास्थिति को बदलने के नजरिए से सरकार ने प्रस्तावित अध्यादेश में जनप्रतिनिधित्व कानून ;संशोधन एवं विधिमान्यकरणद्ध विधेयक-2013 में धारा 8(4) का वजूद बनाए रखने के उपाय किए हैं। जिससे 2 साल या इससे अधिक की सजा मिल जाने के बावजूद सांसद-विधायकों की सदस्यता सदनों में बहाल रहे। किंतु सदन में प्रतिनिधि न तो मतदान का अधिकारी होगा और न ही उसे वेतन-भत्ते मिलेंगे। इस बाबत विधि विशेषज्ञों का मानना है कि सांसद व विधायकों को वोट डालने का अधिकार संविधान ने दिया है न कि अध्यादेश अथवा किसी अन्य कानून ? गोया यह अधिकार अस्थायी कानूनी उपायों से नहीं छीना जा सकता है ? प्रतिनिधियों को वेतन – भत्ते भी ‘वेतन – भत्ता एवं पेंशन कानून-1954 के मार्फत मिलते हैं, न कि किसी इतर कानून के जरिए ? लिहाजा इस लाभ से सजायाफता प्रतिनिधियों को वैकलिपक कानून से वंचित नहीं किया जा सकता है। यहां महत्वपूर्ण सवाल यह भी खड़ा होता है कि जब सदस्य मतदान का ही अधिकार खो देंगे तो सदन को संरक्षण देने का उददेष्य कैसे पूरा होगा ? इस लिहाज से यदि राहुल गांधी ने इस अध्यादेश को बकवास करार दिया है तो उनके इस सरकार विरोधी साहसिक रवैये की तारीफ करने की जरुरत है।

इस मसले पर यह सवाल जरुर बनता है कि राहुल गांधी ने कैबिनेट की मंजूरी के तीन दिन बाद अचानक यह कदम क्यों उठाया ? उन्होंने अपनी असहमति संसद में क्यों नहीं जतार्इ ? जबकि राहुल ने खुद लोकसभा में संशोधित विधेयक के पक्ष में वोट देकर सर्वसम्मति से विधेयक पारित होने में मदद की थी। उनके विरोध के पहले केंद्र सरकार व राजय मंत्री मिलिंद निदोड़ा, दिगिवजय सिंह और शीला दीक्षित भी अध्यादेश का विरोध जता चुके थे। राज्यसभा में इसे भाजपा व वामपंथी दलों ने पास नहीं होने दिया। इसी कारण मनमोहन सिंह को अध्यादेश लाकर दागियों के बचाव की पहल करनी पड़ी। लेकिन एक र्इमानदार प्रधानमंत्री को ऐसा करने को क्यों मजबूर होना पड़ा, यह रहस्य अभी अनसुलझा है ? बहरहाल राहुल का बयान यदि वाकर्इ पार्टी लाइन है तो कांग्रेस ने भीतर ही भीतर निर्णय ले लिया है कि आगामी लोकसभा चुनाव राहुल को बतौर प्रधानमंत्री का दावेदार घोषित करके लड़ा जाए। साथ ही सरकार और कांग्रेस संगठन के बीच एक स्पष्ट विभाजक रेखा खिंच दी जाए, जिससे संप्रग के दूसरे कालखण्ड में जो भी जनविरोधी फैसले हुए हैं उनका आसानी से ठींकरा मनमोहन सिंह के सिर फोड़ा जाता रहे।

 

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  1. बिलकुल सही आकलन कर दिया आपने घुड़दौड़ में एक पिछड़े घोड़े के असफल होने को देखकर पार्टी ने श्री सिंह की छवि भी दांव पर लगा दी है.इस जल्दबाजी में वे यह भी भूल गए की यह निर्णय उनकी पार्टी की सरकार,व उसके कोर ग्रुप का ही निर्णय है.राहुल को हीरो बनाने के चक्कर में पार्टी का दस साल का कटा बीना भी कपास न हो जाये? पहले घोटालों ने भी जनता के दिलो दिमाग को अभी छोडा नहीं है.अब देश की जनता इतनी नासमझ भी न रही है कि सिंह के इन कार्यों को अलग से रख कर पार्टी के काम काज का मूल्यांकन करे.व मन मोहन सिंह के सर ठीकरा फोड़े कामका अलग आधार पर.अब तो पिछला हिसाब किताब बताना ही पड़ेगा.

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