लेकिन जनता को हमेशा रहती है ‘आप’ की तलाश…!!

1
139

aapभारतीय राजनीति की नई पार्टी आप ने दिल्ली में जबरदस्त सफलता हासिल कर पूरे देश को चौंका दिया। बेशक इस सफलता के लिए पार्टी के  मुखिया अरविंद केजरीवाल और उनकी पूरी टीम बधाई की पात्र है। लेकिन सच्चाई यह है कि दिल्ली ही नहीं बल्कि समूचे देश की जनता की निगाहें हमेशा आप जैसे राजनैतिक विकल्प तलाशती रहती है। बशर्ते उसमें परंपरागत पार्टियों की कमजोरियों का लाभ उठाने का माद्दा हो। दिल्ली चुनाव में यही हुआ। कांग्रेस के खिलाफ विकल्पों के अभाव में जनता ने आप पर मुहर लगाई। अतीत में तेलगू देशम, जनता पार्टी और जनता दल जैसे कई राजनैतिक संगठन आनन – फानन में बने, और देखते ही देखते छा गए। इसकी वजह तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियां तो थी ही, इसके संस्थापकों की दूरदर्शिता व उनमें उस समय के सत्तारूढ़  राजनेताओं की कमजोरियों का लाभ उठाने का माद्दा भी रहा। मसलन 2011 में पश्चिम बंगाल समेत देश के कुछ राज्यों में करीब  800 विधानसभा सीटों पर चुनाव हुए। इसमें से एक भी सीट पर भाजपा को सफलता नहीं मिल पाई। पश्चिम बंगाल में अब तक भाजपा अस्वीकार्य जैसी स्थिति में ही है। लेकिन अतीत पर नजर डालें, तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के कार्य़काल में जब भाजपा बुलंदी पर थी, तब राज्य के दो संसदीय क्षेत्रों में इसके उम्मीदवारों ने जीत हासिल की थी। हालांकि कालांतर में पार्टी अपना दबदबा कायम नहीं रख सकी, और दोनों ही सीटें भाजपा के हाथ से निकल गई। पश्चिम बंगाल में ही लगातार 34 साल तक राज करने वाली माकपा के कार्यकाल का ही आकलन करें, तो पता चलता है कि इसके पीछे वाममोर्चा की सांगठनिक दक्षता कम , और तत्कालीन एकमात्र विपक्षी पार्टी  कांग्रेस की कमजोरियां प्रमुख कारण रही। कुछ  विशेष परिस्थितियों के चलते कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व ने पश्चिम बंगाल से माकपा को उखाड़ फेंकने में कभी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। ऐसे में इसके प्रदेश स्तरीय नेता और शहरी क्षेत्रों से चुने जाने वाले गिने – चुने विधायक भी कोलकाता केंद्रित होते गए। साल में दो – एक कार्यक्रमों की औपचारिकता पूरी कर व राजधानी के एसी कमरों में बैठ कर मीडिया के समक्ष बयानबाजी करके ही कांग्रेसी नेता समय काटते रहे। ऐसी स्थिति में राज्य की वर्तमान मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जब समझ गई कि वे कांग्रेस में रहते माकपा को कभी सत्ता से बेदखल नहीं कर पाएंगी, तो 1998 में उन्होंने तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। 2006 के सिंगुर आंदोलन तक इस नई पार्टी को कोई खास सफलता नहीं मिल पाई। लेकिन 2007 के नंदीग्राम भूमि आंदोलन के बाद हुए पंचायत चुनाव में पार्टी ने संबंद्ध जिले के पंचायत चुनाव में जबरदस्त सफलता हासिल की, तो माहौल दिन ब दिन इसके पक्ष में बनता गया। जगह – जगह क्षत्रपों के खड़े होने और तत्कालीन माकपा सरकार के खिलाफ लगातार  सक्रिय आंदोलन के चलते लोगों को तृणमूल कांग्रेस में माकपा का विकल्प दिखाई देने लगा। लिहाजा 2009 के लोकसभा चुनाव से पार्टी लगातार सफलता की सीढि़यां चढ़ती गई। कहना गलत नहीं होगा कि ऐसी परिस्थितयां यदि पहले हुई होती, तो माकपा बहुत पहले ही सत्ता से बेदखल हो चुकी होती। आप की सफलता भी कुछ ऐसी ही है। क्योंकि जनता को हमेशा अरविंद केजरीवाल और आप जैसे राजनैतिक विकल्पों की तलाश रहती है। विकल्प मौजूद न होने की स्थिति में ही जनता मजबूरी  में परंपरागत दलों को सत्ता सौंपती है।

1 COMMENT

  1. आपका कहना सही है,पर ‘आप ‘ के लिएएक बहुत बड़ी चुनौती भी है.वह अपने को क्षेत्रीय नहीं बल्कि राष्ट्रीय पार्टी के रूप में विकशित करना चाहती है,पर उसके लिए ‘आप’ के पास बहुत कम समय उपलब्ध है.इसी समय का अधिकतम सदुपयोग करके उसे जनता के उन्माद पर खरा उतरना है. मुझे आश्चर्य नहीं होगा ,अगर वह अगले चुनाव में सम्पूर्ण भारत में दिल्ली वाली स्थिति में पहुँच जाती है.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here