अति पिछड़ी जातियों की राजनीतिक सहभागिता का उमड़ता सवाल

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nitish and modi देवेन्द्र कुमार,

बिहार की राजनीति में काफी सम्मान के साथ याद किये जाने वाले स्व. कर्पूरी ठाकुर ने पहली बार पिछड़ी जातियों को वर्गीकृत करते हुए अतिपिछड़ी जाति की अवधारणा को राजनीतिक स्वीकृति दी थी । यह वह सामाजिक समूह था जो अपनी राजनीतिक- सामाजिक -र्आर्थिक एवं शैक्षणिक वंचना से मुक्ति के लिए तत्कालीन सत्तासीन समूहों से संघर्ष में पुरी शिद्दत के साथ  पिछड़ों  का साथ देता रहा  था  । पर सच्चार्इ यह भी थी कि आर्थिक -सामाजिक और शैक्षणिक दृष्टि से बेहद कमजोर  और जातीय रुप से छोटे- छोटे  टूकड़े में बंटा इन समूहों का जमीनी स्तर पर पहला टकराव दबंग पिछड़ों से भी था । और इस बात की पूरी आशंका थी कि यदि इनके लिए अलग से सुरक्षात्मक उपाय नहीं किये गए तो सत्तासीन समूहों से संघर्ष में निकला अमृत दबंग पिछड़े ही गटक जायेगें ।

स्व. कर्पूरी ठाकुर ने सरकारी नौकरीयों में पिछड़ों के आरक्षण को दो भागों में वर्गीकृत कर अति पिछड़ों की हिस्सेदारी को सुनिश्चित तो कर दिया। पर 1991 के बाद चली उदारीकरण के दौर ने सरकारी नौकरियों की संख्या ही सीमित कर दी ।उपर से अपने को स्व. ठाकुर का शिष्य बताने वाले लालू यादव ने राजनीति तो पिछड़ों  एवं वंचितों  के सामाजिक- सम्मान के नाम पर की । पर यह सामाजिक सम्मान की लड़ार्इ एक सीमा के बाद गतिरोघ का शिकार हो गया । सामाजिक टोटको और राजनीतिक प्रतीकों से आगे बढ़कर इन समूहों के आर्थिक सशक्तीकरण की कोर्इ योजना नहीं बनी । और  खुद पिछड़ों में अंर्तद्वंद्ध पैदा हो गया । कानून -व्यवस्था एक जाति विषेष के दबंगों के हाथ का खिलौना बन कर रह गया। बिहार की पहचान एक अराजक राज्य और समाज  के रुप में तो पहले से बनी ही हुर्इ थी, उसमें और भी  आक्रमकता आ गर्इ और बिहारी जो एक गाली के रुप में पूर्व से ही स्थापित हो चुका था का प्रकटीकरण और भी तीव्रता के साथ हुआ ।

इसी सामाजिक -राजनीतिक परिपे्रक्ष्य में अतिपिछड़ा और दलित जातियों का धुर्वीकरण तथाकथित उच्च जातियों के साथ हुआ । यद्धपि यह दो नितान्त विपरीत धाराओं का मिलन था और इसके केन्द्रबिन्दु थे बिहार के सुबेदार नितीश कुमार । पिछड़ी जातियों ने नितीश कुमार में अपना चेहरा देखा तो कथित उच्ची जातियों ने कुमार को लालू से मुक्ति का उपकरण माना ।सत्ता मिलते ही कुमार को यह एहसास हो गया कि एक लम्बी राजनीतिक पारी के लिए इस सामाजिक समीकरण को अपनी ओर बनाये रखने के लिए ठोस उपाय करने होगें ।

इस क्रम में महादलित की अवधारणा का सामने आर्इ । पर महादलित का विस्तार होते -होते हालात यह हो गया कि सिर्फ एक जाति पासवान को छोड़ सारी दलित जातियां महादलित में शामिल कर ली गर्इ। यद्धपि महादलित की अवधारणा अच्छी थी ,यह एक सच्चार्इ है कि अनुसूचित जाति को दिया  जा रहा आरक्षण व अन्य लाभ महज  दो -तीन अनुसूचित  जातियों तक ही सीमित हो गर्इ है । परन्तु महादलित की अवघारणा को उसके जन्मदाताओं ने ही अपने चुनावी हवस या राजनीतिक  विवषता में एक खूबसुरत मजाक बना दिया  ।

कहा जा सकता है कि अपने जनाधार को स्थार्इ बनने हेतु ही पंचायत चुनाव में अति पिछड़ों एवमं दलित -महादलितों को आरक्षण प्रदान किया गया । पर यह है एक युगान्तकारी घटना । अति पिछड़ी जातियो और महादलितों के लिए चुनाव लड़ना ही एक अफसाना था और इस अफसाने को हकीकत में बदलने की प्रक्रिया की शुरुआत नितीश कुमार ने की  । कल का मंगरुआ और डोमना आज  चुनावी दगंल में दो – दो हाथ करने को तैयार है । इतिहास में पहली बार उसे  नियन्ता बनने की छुट मिली । ग्रास रुट पर ही सही सत्ता में भागीदारी तो मिली । कथित लोकतंत्र में सहभागिता और समभागिता  का अवसर  मिला । सच माना जाय तो लोकतंत्र की जीवंतता को भी बल मिला। एक अमुक और क्रांतिकारी बदलाव की सरजमीन तैयार कर दी गर्इ। जिसकी सकारात्मकता आने वाले एक – दो दशकों में साफ- साफ दिखेगा । यह एक एैसी पौधशाला है जहां भविष्य के नेतृत्व तैयार हो रहा हैं । अब सवाल यह है कि ग्रासरुट डेमोक्रेसी से शिक्षित -प्रशिक्षित हो कर निकले इन  युवाओं का आगे का सफर क्या होगा । क्या उन्हे पंचायत की सीमाओं से आगे निकल राज्य और राष्ट्र का प्रतिनिधित्व का अवसर भी मिलेगा । अनुसूचित जातियों को तो लोक सभा और विधान सभा में प्रतिनिधित्व की व्यवस्था की गर्इ है। परंतु अति पिछड़ों की बेबसी का क्या होगा ?

इसे  देश में सैकड़ों एैसी जातियां हैं जिनकी जनसंख्या बेहद न्युन है। यद्धपि  यदि इन्हे एक साथ जोड़ा जाय तो एक बड़ी आबादी बनती है । इनकी आर्थिक -सामाजिक और शैक्षणिक स्तर बेहद गंभीर हैं । बल्कि  अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर है । विधायिका में इनकी उपस्थिती लगभग शून्य है । एक सफल और जीवंत लोकतंत्र के लिए यह घातक है। आज समय की मांग है , लोक सभा और विधान सभा में इन वंचित जातियों के समुचित प्रतिनिधित्व के लिए, लोकतंत्र की जीवंतता और वैघानिकता के लिए  वैधानिक उपबंध बनाये जाय । और यही वह सवाल है जहां सारी राजनीतिक पार्टियां चुप है। अति पिछड़ों के कथित चैमिपयन नितीश कुमार इस मुददे पर कुछ ज्यादा बोलने को तैयार नहीं, तर्क है अति पिछड़ों को राष्ट्रीय स्तर पर चयनित करना और वैधानिक उपवंघ बनाना केन्द्र का दायित्व है। तर्क दुरुस्त है पर सच्चार्इ यह है कि अनुसूचित जाति और जनजाति की तरह अतिपिछड़ों के लिए भी विधायिका में आरक्षण की मांग पुरानी हैं । चुंकि राष्ट्रीय स्तर पर अति पिछड़ों की कोर्इ पहचान नहीं है इसलिए  उनका कोर्इ नेतृत्व नहीं है । उनकी आवाज नक्कारखाने में तूती की आवाज बन कर खो जाती है । पर कशमकश हर जगह बरकरार है।  यदि कोर्इ सक्षम नेतृत्व जोखीम ले कर इस मुद्दे को उठाता है तो निश्चित रुप से उसे एक राष्ट्रीय पहचान और  व्यापक पकड़ मिलेगी ।

जरुरत है कि राष्ट्रीय स्तर पर अति पिछड़ों को चिन्हित करने के लिए आयोग का गठन  किया जाय और इसका पैमाना  आर्थिक, शैक्षणिक और सामाजिक स्तर  के साथ ही विधायिका में लोक सभा , राज्य सभा और संबधित राज्य का विधान सभा में, उसकी उपसिथति को भी बनाया जाय । क्या नितीश कुमार जो खुद को अति पिछ़डों  का चैमिपयन मान बैठे हैं, यह जोखीम उठाने को तैयार होगें ? या नरेन्द्र मोदी जो खुद  एक अति पिछड़ी जाति से आते हैं, अति पिछड़ों की आवाज बनना पसंद करेगें । लगता है कि मोदी पहल करने की तैयारी में हैं ।अति पिछड़ा -पसमांदा मुसलमान को भाजपा से जोड़ने की तैयारी इसी का हिस्सा हो सकता है।

देवेन्द्र कुमार

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  1. क्या नितीश कुमार जो खुद को अति पिछ़डों का चैमिपयन मान बैठे हैं, यह जोखीम उठाने को तैयार होगें ? या नरेन्द्र मोदी जो खुद एक अति पिछड़ी जाति से आते हैं, अति पिछड़ों की आवाज बनना पसंद करेगें ?
    राजनीति के उद्देश्य के संदर्भ में भारत पूरी तरह महात्मा गांधी के विचारों की अवहेलना कर चुका है, जिसका परिणाम है कि आज तरह-तरह की समस्याएं मुंह बाए खड़ी हैं A /keZ] tkfy] fiNMks vkSj vfr fiNMks dk lehdj.k dks lkeus ykdj eksnhth vkSj furh’k dqekj lEiUu oxZ ds izcq() ukxfjd gSA vk’kk gS os foHkktu dh jktuhfr }kjk viuk voewY;u ugha djsaxsA nksuks Hkkjr ds loksZPp in ds nkosnkj gS!

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