अनूठे ऋषि भक्त एवं आर्यसमाज के एक मूक प्रचारक श्री राजेन्द्र आर्य, बरेली

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मनमोहन कुमार आर्य

आर्यसमाज एक संगठन है जो वैदिक धर्म और संस्कृति का विश्व में प्रचार व प्रसार करता है। प्रचार के मुख्य साधन ऋषि दयानन्द कृत सत्यार्थप्रकाश और उसके पूरक उनके व कुछ शीर्ष विद्वानों के ग्रन्थ हैं। इन ग्रन्थों के प्रकाशक, लेखक व इनके प्रचार में सहायक सभी बन्धु एक प्रकार से वैदिक धर्म के प्रचारक ही हैं परन्तु किन्हीं कारणों से उपदेशकों को ही प्रचारक माना जाता है। यह भी वास्तविकता है कि हमारे अधिकांश उपदेशक धन व यात्रा भत्तों के लिए यह कार्य करते हैं। उनका जीवन वस्तुतः आर्यसमाज की मान्यताओं के अनुकुल व अनुरूप है भी या नहीं, ज्ञात नहीं होता। ऋषि व अन्य विद्वानों के ग्रन्थों को लेखक व प्रकाशकों के बाद पाठकों तक पहुंचाना आसान काम नहीं है। जो भी यह काम करता है वह वस्तुतः धर्म प्रचार की उच्च व महान भावना को अपने हृदय में संयोए हुए होता है। आर्यसमाज के जिन प्रकाशकों ने अतीत में वैदिक साहित्य को प्रचार प्रसार का प्रमुख साधन जानकर इस प्रकाशन के कार्य को आरम्भ किया व जारी रखा, अब भी उनके उत्तराधिकारी कर रहे हैं, वह सभी आर्यजगत के धन्यवाद के पात्र हैं। आज आर्यसमाज में जो भी सन्तोषजनक स्थिति दिखाई देती हैं, उसमें इन प्रकाशकों का महत्वपूर्ण योगदान है।

 

किसी भी ग्रन्थ का प्रकाशन हो जाने के बाद उसे पाठक तक पहुंचाने के लिए उसे किसी खुदरा पुस्तक विक्रेता तक पहुंचाना होता है। अनुभव की बात है कि आर्यसमाज के अनेक महत्वपूर्ण ग्रन्थ पुस्तक विक्रेताओं के यहां वर्षों तक पड़े रहते हैं, उनके क्रेता ग्राहक ढूंढने पर भी नहीं मिलते। हम भी किसी नये उपयोगी व महत्वपूर्ण ग्रन्थ के प्रकाशित होने पर उसकी अनेक प्रतियां मंगाने के लिए तत्पर होते हैं परन्तु जब मंगा लेते हैं तो हमें अपने मित्रों को उसे सशुल्क देते हुए संकोच होता है। कई मित्र तो हमारी भावनायें समझते ही नहीं है। ऐसे समय व परिस्थिति में आर्यसमाज के साहित्य को नये पाठकों तक पहुंचाना बहुत कठिन व जटिल कार्य लगता है। यह कार्य हमारे एक ऋषिभक्त श्री राजेन्द्र आर्य, बरेली बखूबी कर रहे हैं। इस समय आपकी आयु 77 वर्ष है। देश में जहां भी पुस्तक मेला लगता है आप सभी विषयों की सैकड़ों की संख्या में सत्यार्थप्रकाश, अन्य ऋषिकृत ग्रन्थ व आर्यविद्वानों का साहित्य लेकर पहुंच जाते हैं। आजकल देहरादून में 9 दिवसीय राज्य स्तरीय पुस्तक मेला चल रहा है। आप दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली के प्रमुख युवा साहसी व निर्भीक विद्वान डा. विवेक आर्य की प्रेरणा व सहयोग से इस मेले में आये हैं और यहां भव्य स्टाल लगाया है। अगर यह स्टाल न लगता तो आर्यसमाज के लिए यह स्थिति अपमानजनक होती। यह हमारी निजी राय है। यह ऐसा स्टाल है कि जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। ऋषि के प्रायः सभी ग्रन्थों सहित अन्य आर्य विद्वानों का देश भक्ति, वैदिक व आर्य विचारधारा का साहित्य भी स्टाल पर उपलब्ध है। सारा स्टाल साहित्य से भरा है और अनेक पैकेट तो अभी खुले भी नहीं हैं। वह इतने अधिक साहित्य को कैसे पैक करके टांसर्पोट कराते हैं, फिर मेले व प्रदर्शनी स्थल पर पहुंचाते हैं और यहां से बचा हुआ साहित्य कैसे ले जायेंगे, यह सोच कर ही हमें घबराहट सी होने लगती है। भोजन व शारीरिक विश्राम का भी यह ध्यान नहीं रखते।

 

आज दयानन्द महिला प्रशिक्षण कालेज की कन्यायें देहरादून पुस्तक मेले में आईं। वह आर्यसमाज के स्टाल के सामने से गुजर रहीं थीं। आपने कुछ कन्याओं को बुलाया और उनके समूह से पूछा कि मुसलमानों का धर्म ग्रन्थ क्या है? वह बोलीं ‘कुरान’, उन्होंने फिर पूछा ईसाईयों का धर्म ग्रन्थ क्या है? वह बोली ‘बाइबिल’। इसके बाद उन्होंने उनसे पूछा कि हिन्दुओं का धर्म ग्रन्थ कौन सा है तो अधिकांश लड़कियां मौन हो गईं। एक ने कहा कि रामायण या महाभारत। इसका समाधान श्री राजेन्द्र आर्य जी ने करते हुए उन्हें बताया कि हिन्दुओं का धर्म ग्रन्थ ‘वेद’ है। उन बच्चों को वेद दिखाये भी गये और उनका महत्व भी बताया गया। सबने स्वाकारोक्ति में सिर हिलाये। राजेन्द्र जी ने उन सभी कन्याओं को वैदिक धर्म शिक्षा का एक ट्रैक्ट निःशुल्क भेंट किया। ऐसे अनेक उदाहरण हम समय समय पर मेले में देख रहे हैं। कोई सामने से जा रहा हो तो उसे बुलाकर वह सत्यार्थप्रकाश की पुस्तक उसके आगे कर कहते हैं कि मात्र बीस रूपये में ले जाईये। सत्यार्थ प्रकाश के महत्व पर कुछ और बोलते हैं और ग्राहक बीस रूपये आसानी से देकर जाता है। यह सत्यार्थप्रकाश आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली द्वारा प्रकाशित है। उन्हें थोक में 30 रूपये का मिलता है। देहरादून लाने का भाड़ा लगा है। ले जायेंगे तो भी भाड़ा लगेगा। 30$ मूल्य की पुस्तक वह 20 में देते हैं और कईयों को बिना मूल्य ही भेंट कर देते हैं। यह दृश्य देखकर हमें आर्यसमाज के बड़े बड़े विद्वानों के सत्संग से भी अधिक आह्लाद व रोमांच का अनुभव होता है। आज 31 अगस्त, 2017 को हमारे साथ वयोवृद्ध वैदिक विद्वान एवं कवि डा. ऋतुराज शर्मा जी भी थे। वह भी इतने उत्साहित हुए कि वह भी लोगों को रोक रोक कर सत्यार्थप्रकाश लेने का अनुग्रह करने लगे और लोगों ने लिये भी।

 

श्री राजेन्द्र आर्य जी का जन्म मुरादाबाद के कांठ कस्बे में 7 जुलाई, 1941 को हुआ था। आपके माता-पिता आर्यसमाजी थे। पिता आर्यसमाज कांठ, मुरादाबाद में जीवनपर्यन्त कोषाध्यक्ष पद पर रहे। आपकी माताजी का नाम श्रीमती रामदुलारी जी और पिता का नाम श्री प्यारेलाल था। व्यवसाय की दृष्टि पिता व्यापार किया करते थे। दो भाई और दो बहिनों में आयुक्रम के अनुसार आपका तीसरा स्थान है। एक भाई व बहिन का देहान्त हो चुका है। आपकी चार सन्तानें हैं जिनमें दो पुत्रियां और दो पुत्र हैं। सभी सन्तानें विवाहित एवं सम्पन्न हैं। आपकी दो धेवतियों के विवाह भी हो चुके हैं। आपके बाल्यकाल में आर्यसमाज कांठ में मास्टर फकीर चन्द जी संरक्षक के रूप में थे जो आपके पिता के मित्र थे। आप डीएसएम इण्टर कालेज में अध्यापक थे। आपके एक दामाद आरा, बिहार में भारतीय स्टेट बैंक में मैनेजर थे। राजेन्द्र जी इण्टर पास कर चुके थे। पिता ने फकीर चन्द जी से बात की तो आपने अपने दामाद से बात कर उन्हें आरा जाने के लिये कहा। आप आरा पहुंचे और श्री फकीर चन्द जी के दामाद से मिले। उन्हें वहां कैशियर के पद पर नियुक्ति मिल गई। इस समय आपकी वय 18 वर्ष थी। सन् 1959 से भारतीय स्टेट बैंक में कार्य करते हुए आपके लगभग 13-14 स्थानान्तरण हुए और सन् 2001 में बरेली की इन्दिरा-नगर शाखा के शाखा प्रबन्धक के पद से सेवानिवृत्त हुए। आरा में आप आर्यसमाज से जुड़े रहे और यहां आप सहायक मंत्री के रूप में कार्य करते हुए पुस्तकालय का कार्य देखते थे। सेवाकाल के दिनों में सन् 1982 में बरेली में आपने मकान बनवाया था। इन दिनों आप बरेली में ही सेवारत थे। अतः अब आपका निवास कांठ, मुरादाबाद न रहकर बरेली हो गया। अब भी आप बरेली में ही रहते हैं।

 

जिन दिनों आप आर्यसमाज, आरा के सदस्य व अधिकारी थे, स्वामी ध्रुवानन्द सरस्वती जी सार्वदेशिक सभा के प्रधान थे। आर्यसमाज आरा के प्रतिनिधि भी सार्वदेशिक सभा की साधारण सभा के सदस्य होते थे। प्रतिनिधियों विषयक कुछ विवाद हुआ तो स्वामी जी वहां जांच के लिए गये। राजेन्द्र जी को सर्वोच्च सभा के एक संन्यासी प्रधान का जांच के लिए वहां जाना अच्छा नहीं लगा। शायद आपको लगा कि यह कार्य संन्यास की मर्यादा के अनुकूल व अनुरूप नहीं है। आपने इस विषयक पत्र सभा को लिखा। श्री फकीर चन्द जी को इसकी जानकारी हुई। उन्हें आपका यह व्यवहार अच्छा नहीं लगा और उन्होंने इसकी शिकायत आपके पिता जी से की। हम समझते हैं कि युवावस्था में ऐसी ही सोच व व्यवहार होता है। यह सामान्य बात थी जो यहीं पर समाप्त हो गई।

 

आर्य साहित्य के प्रचार व प्रसार का कार्य आपने बरेली में घटी एक घटना की प्रेरणा से किया। किसी व्यक्ति को सत्यार्थप्रकाश चाहिये था। वह आर्यसमाज आया परन्तु वहां सत्यार्थप्रकाश उपलब्ध नहीं था। इस घटना ने आपको सत्यार्थप्रकाश प्राप्त कर उसे लोगों तक पहुंचाने की प्रेरणा दी और आपने आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट, दिल्ली से सत्यार्थप्रकाश मंगाकर सत्यार्थप्रकाश का प्रचार व विक्रय करना आरम्भ कर दिया। विगत लगभग 17 वर्षों से आपका यह कार्य उन्नति कर रहा है। पुस्तकों का प्रचार व वितरण करते हुए आपने सन् 2011 के लखनऊ के 10 दिवसीय एक पुस्तक मेले में व्यक्तिगत स्तर पर अपना एक स्टाल लगाया था। इस मेले में आपने 50 हजार रूपयों का आर्य साहित्य बेचा। 10 दिनों में खुदरा रूप से इतना साहित्य वितरण करना एक सन्तोष एवं प्रसन्नता की बात थी और यह एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है। इस कार्य में आपको आर्यबन्धु श्री रमेश चन्द्र त्रिपाठी, सेवानिवृत सहायक आयुक्त, आवास विकास परिषद, लखनऊ से भरपूर सहयोग मिला। सन् 2015 में आप डा. विवेक आर्य जी के माध्यम से दिल्ली आर्य प्रतिनिधि सभा, नई दिल्ली से जुड़ गये। दिल्ली के प्रगति मैदान में प्रत्येक वर्ष जनवरी के महीने में विश्व पुस्तक मेला लगता है। यहां आपने डा. विवेक आर्य की प्रेरणा और सहयोग से पुस्तकों का स्टाल लगाया था। इसके बाद से आप वहां निरन्तर स्टाल लगाते हैं।

 

दो वर्ष पहले सन् 2015 में आपने अनेक पुस्तक मेलों में आर्य साहित्य के स्टाल लगाये। यह मेले कलकत्ता, जयपुर, लखनऊ (3 बार), गोरखपुर, कानपुर और सहारनपुर आदि में लगे और इन स्थानों पर आपने लगभग 10 लाख से कुछ अधिक मूल्य का साहित्य एक वर्ष की अवधि में प्रसारित, वितरित अथवा विक्रय किया। आप जिन प्रकाशकों से मुख्यतः साहित्य खरीदते हैं वह हैं विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द, दिल्ली, श्री घूड़मल प्रहलादकुमार आर्य धर्मार्थ न्यास, हिण्डोन सिटी, आर्यसमाज विधानसरणी, कोलकत्ता, राजपाल एंड संस, दिल्ली, रामलाल कपूर न्यास, रेवली, वैदिक पुस्तकालय अजमेर, आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक प्रकाशन, रोहतक, आर्य प्रकाशन, दिल्ली, सार्वदेशिक प्रकाशन, दिल्ली, मोतीलाल बनारसी दास दिल्ली आदि। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि आपने अब तक राजपाल एण्ड संस, दिल्ली द्वारा प्रकाशित पं. दामोदर सातवलेकर कृत ‘संस्कृत स्वयं शिक्षक’ की 500 प्रतियां बेची वा प्रसारित की हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि आप साहित्य खरीद व बिक्री में हानि व लाभ का आंकलन नहीं करते। आपको नहीं पता कि आपने साहित्य क्रय में कितना लगाया और उससे क्या प्राप्त हुआ। हमने भी जो पुस्तकें ली वह आप हमें स्वयं के लागत मूल्य पर ही दे रहे थे। हमारे मना करने पर भी आप माने नहीं। यह भी महत्वपूर्ण है कि आपने पुस्तकों को क्रय करने व उनका भण्डार करने पर लाखों रूपये का निवेश कर रखा है। इसका आपने कभी कोई रिकार्ड नहीं रखा।

 

वर्तमान में श्री राजेन्द्र आर्य जी बरेली के कुतुबखाना आर्यसमाज से जुड़े हैं। उस समाज व उसके अंगीभूत आर्य अनाथालय की व्यवस्थाओं को भी देखते हैं। आप बताते हैं कि वहां आप किसी पद पर नहीं हैं। आर्यसमाज में जो उपदेशक व विद्वान आते हैं उनके आतिथ्य, निवास व भोजन आदि की व्यवस्था का कार्य भी आप ही देखते हैं। आपने अपने आर्यसमाज में सन् 2016 के वार्षिक उत्सव में स्वामी केवलानन्द सरस्वती जी, वानप्रस्थ एवं संन्यास आश्रम, ज्वालापुर को आमंत्रित किया था। आपने उनके व्यवहार की प्रशंसा की। स्वामी जी कहीं भी जाते है ंतो दक्षिणा नहीं लेते। स्वामी जी का मुख्य निवास देहरादून है। हम भी एक बार स्वामी जी से अपने एक मित्र के साथ मिले थे। स्वामी जी कट्टर ऋषि भक्त हैं। आप 4 घंटे सोने के अतिरिक्त रात दिन ईश्वर चिन्तन व ध्यान में ही व्यतीत करते हैं। हमारा अनुमान है कि स्वामी केवलानन्द सरस्वती जैसा साधक आर्यसमाज में अपवादस्वरूप ही हो सकता है। हमारे जानकार मित्रों का अनुमान है कि आप ईश्वर प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार कर चुके हैं। हमने भी ऐसा ही अनुभव किया। ऋषि भक्तों को इस महात्मा के एक बार दर्शन अवश्य करने चाहिये जिससे वह भी लाभान्वित हो सकें। स्वामी केवलानन्द जी जहां जाते हैं वहां उन्हीं परिवारों में भोजन करते हैं जहां उस दिन यज्ञ हुआ हो अन्यथा भोजन कराने से पूर्व उन्हें यज्ञ कराना होता है। श्री राजेन्द्र आर्य जी ने स्वामी केवलानन्द जी विषयक हमारे सभी विचारों का समर्थन किया।

 

श्री राजेन्द्र जी ने अनुभव की एक बात यह बताई कि जिस व्यक्ति को परमात्मा ने जिस योग्यता का बनाया है वह उसके अनुरूप ही कार्य करता है व उसे करना भी चाहिये। आप कहते हैं कि मैं विद्वान नहीं हूं। मैं जो कर रहा हूं मैं उसी के योग्य हूं। मुझे इस बात का सन्तोष है। वह बड़े अन्दाज व विनम्रता से यह भी कहते हैं कि मेंरे हृदय में ऋषि के कार्य के लिए दर्द है। आपने 25 वर्ष पूर्व रामपुर के विलासपुर इलाके में एक विद्यालय की नींव रखी थी। यह डीएवी स्कूल है जो सुचारू रूप से चल रहा है। हम अनुभव करते हैं कि हमने श्री राजेन्द्र आर्य जी के विषय में जो कुछ लिखा है वह उनके व्यक्तित्व का 25 प्रतिशत से भी कम भाग है। अतिश्योक्ति कहीं नहीं की गई है। उनके बारे में बहुत कुछ लिखा जा सकता है। वह वस्तुतः निष्ठावान ऋषि भक्त है और 77 वर्ष की अवस्था में जितना तप कर रहे हैं वह प्रशंसनीय एवं स्तुत्य है। हम उनके स्वस्थ जीवन व दीर्घायु की कामना करते हैं और उनके व्यक्तित्व को सादर नमन करते हैं।

 

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  1. जिस अस्पताल में पत्नी ने तोड़ा था दम, उसी अस्पताल की छत से लगाई मौत की छलांग
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