अपने स्वतन्त्रता सैनानियों को हमने बना दिया आदिवासी व जनजाति इत्यादि

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sanskritगतांक से आगे…

भारतीय इतिहास को विकृतीकरण से उबारने का आवाहन करते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि अब यह हमारे लिए है कि (इतिहास की) शोध का हम अपना व्यक्तिगत स्वतंत्र मार्ग अपनावें और वेदों, पुराणों और अन्य प्राचीन ऐतिहासिक गं्रथों का अध्ययन करें, और जीवन की साधना बना देश का भारत भूमि का एक पूर्णत: आत्मप्रेरक इतिहास सृजन करें। यह भारतीयों का दायित्व है, कि वे भारत का इतिहास लिखें।

आर्य द्रविड़ संघर्ष की काल्पनिक कथा

भारत के इतिहास को विकृत करने के लिए भारत में आर्य-द्रविड़ संघर्ष की काल्पनिक कथा रची गयी। इस काल्पनिक कथा के साथ सुरासुर संग्राम को भी जोड़कर स्थापित किया गया। भारत में कई प्रकार की नस्लों के लोगों के होने की बात कही गयी। ‘संस्कृति के चार अध्याय” नामक अपनी पुस्तक में रामधारी सिंह दिनकर जी ने इन नस्लों के लोगों की पहचान विभिन्न विद्वानों के निष्कर्षों के आधार पर इस प्रकार की है :-

एक प्रकार के लोग वे हैं जिनका कद छोटा रंग काला, नाक चौड़ी और बाल घुंघराले होते हैं। इस जाति के लोग अकसर जंगलों में बसते हैं। ये ही लोग उन आदिवासियों की संतानें हैं, जो आर्यों और द्रविड़ों के आगमन के पूर्व इस देश में आकर बसे थे…. दूसरे प्रकार के लोग वे हैं जिनका कद छोटा, रंग काला, मस्तक लंबा, सिर के बाल घने और नाक खड़ी व चौड़ी होती है।…विन्ध्याचल के नीचे सारे दक्षिण भारत में इन्हीं लोगों की प्रधानता है। ये द्रविड़ जाति के लोग हैं, जिनके पूर्वज आर्यों से भी पूर्व इस देश में आये थे….तीसरी जाति के लोगों का कद लंबा, वर्ण गेंहुंआ या गोरा, दाढ़ी मूंछ घनी, मस्तक लंबा तथा नाक पतली और नुकीली होती है। ये आर्य जाति के लोग हैं….द्रविड़ों और आदिवासियों के साथ उनका जो वैवाहिक मिश्रण हुआ है उसके चलते ही आर्यों का पहले का रंग अब फीका पड़ गया है। एक चौथे प्रकार के लोग बर्मा, आसाम, भूटान और नेपाल में तथा उत्तर प्रदेश, पंजाब, उत्तरी बंगाल और कश्मीर के उत्तरी किनारे पर पाए जाते हैं। इनका मस्तक चौड़ा, रंग काला, पीला, आकृति चिपटी, तथा नाक चौड़ी और पसरी हुई होती है।

जब भारत के विषय में ऐसा अतार्किक वर्णन किया जाता है तो कहीं भाषा विज्ञान की कसौटी तो कहीं जनविज्ञान की कसौटी का सहारा लिया जाता है। ये सारी बातें नितांत भ्रामक हैं, और ये केवल इसलिए प्रसारित की गयी हैं जिससे आर्यावर्त्त जैसे विशाल भूखण्ड को आर्यों का आदि देश और संस्कृत को उनकी आदि भाषा घोषित होने से रेाका जा सके। आर्यों का और आर्यभाषा संस्कृत का आर्यावर्त्त पर दावा ढीला पड़ते ही विदेशी शत्रु लेखकों का उद्देश्य पूर्ण हो जाना था इसलिए उन्होंने आर्यों से भी पूर्व द्रविड़ों का तथा द्रविड़ों से भी पूर्व आदिवासियों का आगमन भारत में दिखाया। ना आर्य यहां के और ना द्रविड़ यहां के इसलिए संघर्ष तो होना ही है। इस संघर्ष को उन्होंने अत्यंत प्राचीन काल से दिखलाना आरंभ किया, जिससे कलह कटुता की जड़ें अत्यंत गहरी दिखाई दें। इस पर स्वामी विवेकानंद ने कहा था–‘अब यह सिद्घांत निकला है कि मनुष्यों की एक विशिष्टï प्रजाति थी, जिसका नाम द्रविड़ था और जो दक्षिण भारत में रहती थी और वह उत्तर भारत में रहने वाली आर्य नामक प्रजाति से सर्वथा भिन्न थी। यह भी कहा जाता है कि दक्षिण भारत में जो ब्राह्मïण है, केवल वे ही थोड़े से आर्य हैं, जो उत्तर से दक्षिण को गये थे। दक्षिण भारत में जितने लोग हैं उनकी जाति और प्रजाति ब्राह्मïणों की जाति और प्रजाति से भिन्न हैं। श्रीमान, भाषा शास्त्री जी आप क्षमा करेंगे, ये सारी बातें निराधार हैं।”

(द फ्यूचर ऑफ इण्डिया : स्वामी विवेकानंद)

स्वामी विवेकानंद की यह लताड़ सर्वथा उचित ही है। भारत को बाहरी लोगों की सैरगाह और शरणस्थली बनाते बनाते यहां लोगों में परस्पर द्वेष की भावना को प्रोत्साहित किया गया और इस पावन भू को लोगों की रणस्थली बनाने का प्रयास किया गया। विश्व के विभिन्न देशों में किसी भी प्रकार से यदि कहीं के लोगों का रंग, रूप आकृति आदि भारतीयों से मिलती हैं तो उसे ही भारत में रहने वाले किसी आंचल के लोगों से जोड़कर देखा जाता है। सामान्यत: हमें यह बताया जाता है कि विश्व के अमुक आंचलों से या अमुक देश में से लोग यहां आए और उन आने वालों के वंशज अब अमुक-2 जातियां या किसी विशेष आंचल के लोग हैं। पता नही यह क्यों नही बताया जाता कि विश्व के अमुक अमुक स्थानों पर रहने वाले लोगों का रंग, रूप आकृति आदि भारत के अमुक आंचल के निवासियों से मिलते हैं, इसलिए संभव है कि वो लोग भारत से ही गये हों? लेकिन ऐसा बताने से तो बात बिगड़ जाएगी, इसलिए अतार्किक ही सही पहली बात ही प्रचारित प्रसारित की जाए तो ही अच्छा है।

विदेशी क्या कहते हैं

बी.एस गुहा की पुस्तक ‘रेस एफीनिटीज ऑफ द पीपुल्स ऑफ इण्डिया” की समीक्षा करते हुए सर आर्थर कीथ ने 1936 में लिखा था-‘सभी विद्वान यही कहते जा रहे हैं कि भारत में प्रजातिगत जो भिन्नताएं हैं वे इस कारण कि भारत के सभी लोग भारत के बाहर से आये हैं यह देखने की किसी ने कोशिश ही नही की कि भारत की वे जातियां कौन कौन हैं जिनका उदभव और विकास भारत में ही हुआ है?”

इस प्रश्नचिन्ह को समाप्त किया 1939 में जूलियन हक्सले ने अपनी पुस्तक ‘रेस इन यूरोप” में ये कहकर कि प्रजातिवाद का सिद्घांत झूठा भी है और भयानक भी। हिटलर ने भी कहा कि आर्यों को प्रजाति मानने का सिद्घांत खतरनाक है। भारत को भी यह नही मानना चाहिए कि आर्य और द्रविड़ नाम दो प्रजातियों के हैं।

हमारे यहां प्रचलन है….

भारत में अपने विषय में दूसरे अच्छी धारणा बनायें तो उसका अनुकरण करने का प्रचलन नही है, अपितु यहां के विषय में वो मिथ्या धारणाएं फैलाएं या मान्यताएं स्थापित करें तो उसे पत्थर की लकीर मानकर तुरंत स्वीकृति प्रदान की जाती हैं। अब एक उदाहरण लें। भारत पर मौहम्मद बिन कासिम से लेकर गोरी तक या उनके बाद किसी अन्य मुस्लिम आक्रांता ने जिस किसी भी काल में आक्रमण किया, वही भारत से हजारों लाखों की संख्या में दास दासियां लेकर गया। हमें मौहम्मद बिन कासिम के इतिहास ‘चचनामा” का लेखक अलकूफी ही बताता है कि खेवार की विजय में कासिम 30 हजार भारतीयों को दास बनाकर ले गया था। इसी प्रकार देवालयपुर (करांची) से तीस हजार औरतों को ब्राह्मïणाबाद से एक लाख काफिरों को दास बनाकर ले गया। महमूद गजनवी के इतिहास का लेखक अलउत्बी हमें बताता है कि वह पुरूषपुर (पेशावर) से मथुरा, कन्नौज, बुलंदशहर, महावन, आसन से साढे सात लाख लोगों को, 5 लाख लोगों को नंदना से व अन्य स्थानों से असंख्य दासों को तथा सिरासवा से इतने अधिक दासों को लेकर गया कि एक दास की कीमत बाजार में दो से दस दिरहम हो गयी थी।

विषय विस्तार के भय से हम यहां आगे के अन्य आक्रांताओं के विषय में नही लिख रहे हैं। हमारा कहने का अभिप्राय केवल ये है कि इन दो मुस्लिम आक्रांताओं के समय में ही भारत से लगभग बीस लाख लोग गाजर मूली की भांति दास बनाकर बेचे गये और वो अरब देशों में फैला दिये गये। ये ठीक है कि हिंदू पुरूषों को नपुंसक बना दिया जाता रहा हो, परंतु महिलाओं से तो संतानें हुई होंगी, तो कोई भी इतिहासकार हमें ये क्यों नही बताता कि अरब देशों में अमुक अमुक आंचलों में रहने वाले लोग भारतीयों की संतानें हैं, और यह भी कि ईरान ईराक अफगानिस्तान आदि में हिंदुओं के ही वंशज मुसलमान बनकर रह रहे हैं? पता नही भाषा और विज्ञान का वो सिद्घांत इन लोगों के मूल स्थान का निर्धारण करने में कहां चला जाता है, जो भारत पर लागू किया जाता है?

भारतीय मुसलमानों के बारे में विचारणीय तथ्य

दूसरी बात यह भी विचारणीय है कि भारत में भी मुस्लिम कभी लाखों की संख्या में बाहर से आकर एक साथ एक स्थान पर नही बसे। धीरे धीरे उनका आगमन हुआ और वह भी बहुत थोड़ी संख्या में। अधिकांश भारतीय मुसलमानों के पूर्वज हिंदू हैं। जब भारतवर्ष के विषय में यह बताया जाता है कि अमुक आंचल के लोग अमुक देश से आये तो यह भी तो बताया जाना चाहिए कि अमुक आंचल के मुसलमान अमुक समय में हिंदू से मुसलमान बने और इसलिए वह गजनवी, बाबर आदि की संतान न होकर भारतीय हिंदू पूर्वजों की संतानें हैं।

आदिवासी, जनजातियों का सत्य

लगता है कि प्रजातियों में विभाजन करने का खेल केवल और केवल हिंदुओं के लिए अपनाया गया है। आजकल की आदिवासी और जनजातियां भी हिंदुओं को विभाजित करने के लिए ही मिथ्या आधार पर बनायी गयी हैं। हम इन्हें जितना ही अधिक आदिवासी या जनजातियां कहते हैं उतना ही हम इनका अपमान करते हैं। वास्तव में ये वो महान लोग हैं जिन्होंने विदेशी आक्रांताओं के समय अपनी राष्ट्रीय भावनाओं को विदेशी शक्तियों के सामने पराजित नही होने दिया और मां भारती की स्वतंत्रता के लिए अपना धन, वैभव आदि सभी कुछ गंवा दिया। उनकी उस सेवा का पुरस्कार हमने उन्हें यदि आदिवासी आदि कहकर दिया तो इसमें उनका क्या दोष है? हमें तथ्य बताते हैं कि हमने इन महान लोगों को हेय दृष्टिï से देखकर कितना बड़ा पाप किया है? जैसे—–

मध्यकालीन इतिहास के प्रसिद्घ इतिहासकार श्री के.एस. लाल का कथन है-वर्तमान भारत में बहुत बड़ी संख्या में अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियां और अन्य पिछड़ी जातियां विद्यमान हैं। इनमें से पिछड़ी जातियां तो अत्यंत प्राचीन काल अथवा प्रागैतिहासिक काल से चली आ रही थीं। किंतु इनमें मध्यकालीन लगभग एक हजार वर्षों के अंतराल में अनेक और जुड़ गयीं हैं। उनकी संख्या मुस्लिम शासकों की नीतियों से उत्पन्न संघर्षों के कारण निरंतर बढ़ती चली गयीं। ऐसा कहना उचित होगा, जैसा कि हम देखते हैं कि प्रशिक्षित और पारंपरिक योद्घाओं के छोटे छोटे बिखरे हुए वर्ग थे जिनमें अधिकांश राजपूत थे। वे मुगल आक्रमणों तक थक चुके थे जो पिछले विदेशी आक्रमणकारियों के विरूद्घ विगत आठ सौ वर्षों से यानि कि सातवीं शताब्दी से पंद्रहवीं शदी से आज तक लगातार पग-2 पर लड़ते रहते थे। उसके पश्चात मुस्लिम शासकों के विरूद्घ हिंदू प्रतिरोध का नेतृत्व उन लोगों ने किया जिन्हें भारत में आजकल पिछड़ी जातियां या दलित वर्ग कहा जाता है। किंतु बाद में संघर्ष के मोर्चे का नेतृत्व उन्होंने स्वयं संभाल लिया था और मुगल शासकों से युद्घ किया था। ये लोग भी अठारहवीं सदी के मध्य तक पूरी तरह नष्टï हो गये थे। एक दूसरी बात ये है कि इस संघर्ष में पिछड़ी जातियों और दलितों को भारी हानि उठानी पड़ी और वे अत्याचारी इस्लामी राज्य के अंत होते समय तक अत्यंत दयनीय अवस्था में पहुंच गये थे। (ग्रोथ ऑफ शेडूल्ड ट्राइव्स एण्ड कास्ट्स इन मेडीवल इण्डिया प्रीफेस) श्री लाल जिस ओर संकेत कर रहे हैं, यह हमारे लिए बहुत भारी क्षति थी। हमारे योद्घा अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान के भाव के कारण विदेशी आक्रांताओं से लड़ते रहे और जब थक गये या किसी कारण से पराजित हो गये तो उन्होंने अपना राज-पाट, सारा ऐश्वर्य एवं वैभव त्यागकर मां भारती की सेवा के लिए गुरिल्ला युद्घ करने हेतु जंगलों की शरण ली। सारा कुछ खोकर मां की सेवा में लगा देने का पुरस्कार उन्हें ये मिला कि वे प्रगति और विकास की दौड़ में पिछड़ गये और विदेशी लोगों ने उन्हें आदिवासी आदि-आदि का खिताब दे दिया। तब से वो एक अभिशाप से ग्रस्त हैं और हम उन्हें उस अभिशाप से उबरने भी नही दे रहे हैं। वर्तमान इतिहास ने निस्संदेह इन साहसी और देश भक्त लोगों को कड़ा दण्ड दिया है। इसलिए इतिहास का पुनर्लेखन आवश्यक है, क्योंकि इसकी मान्यताएं राष्ट्रीय भावनाओं के विपरीत हंै।

बदायूंनी बड़ा स्पष्टï लिखता है-‘जो लोग जंगलों में जाकर टिक गये उन्होंने वहां जंगली फलफूल वृक्षों की जड़ें व घास के दाने जो भी मिला उसी से गुजारा किया और अपनी स्वतंत्रता को सुरक्षित रखा। समय बीतता गया और वे जनजाति में परिणत हो गये तथा जनजाति से जंगली जानवर की स्थिति में पहुंच गये।” भारत में अनुसूचित जाति जनजाति आयोग मानवाधिकार आयोग शिक्षा आयोग और सामाजिक संगठनों या आदिवासियों व अनुसूचित जातियों के लिए कार्य करने वाले सामाजिक कार्यकर्ताओं व राजनीतिज्ञों को भारतवर्ष का तथ्यात्मक इतिहास लिखाने में सहायता करनी चाहिए। मिथ्या धारणाओं और भ्रामक तथ्यों से इतिहास को जितनी शीघ्रता से हटा दिया जाए, उतना ही राष्ट्रहित में होगा।

इब्बनतूता ने लिखा है :-‘मुसलमानों ने मूर्ति पूजकों पर अधिकार कर लिया लेकिन उन्होंने अपने को पहाड़ों, बीहड़ क्षेत्रों व बांस के झुरमुटों में सुरक्षित कर लिया। इसलिए वे जीते नही जा सकें।” जो लोग भारत में राष्ट्रवाद की भावना को प्राचीन काल से नही मानते वो तनिक ध्यान दें इन तथ्यों पर, और प्रमाणों पर जो इस बात का पग पग पर डिण्डिम घोष कर रहे हैं कि यहां के जैसा राष्ट्रवाद कहीं नही था। मौलाना अहमद व फरिश्ता लिखते हैं कि ‘महमूद गजनवी के बेटे इब्राहीम ने जब भारत पर हमला किया तो अधिकांश जनता मारी गयी…..जो बचे वे जंगलों में भाग गये। लोग (निरंतर) प्रतिकार करते थे। जिसमें कभी शत्रु को मार भागते कभी अपने लोगों को छुड़ा लेते और जंगलों में भाग जाते।”

इसी प्रकार मिनहाज लिखता है कि-‘जब सुल्तान मुईजुद्दीन ने दुबारा भारत की ओर कूच किया तो ऐबक उससे मिलने पेशावर आया। दोनों ने मिलकर खोखरों के शक्ति केन्द्र साल्टरेंज पर हमला किया। हिंदू ऊंचे पहाड़ों की ओर भागे। उनका पीछा किया गया। जो पकड़े गये वे मार डाले गये या गुलाम बना लिये गये। शेष घने जंगलों में जाकर छिप गये।…..फिर भी खोखरों ने हार नही मानी और वे समस्या बने रहे व हमला करते रहे।”

हिंदुओं की निरंतर हमला करते रहने की भावना को (व्यंग्य में ही सही) एक बार अलाउद्दीन ने भी सराहा था, उसने अपने काजी मौघी से कहा था-शताब्दियों से हम हिंदुओं को मारते आ रहे हैं किंतु उनके सरदार तीरंदाजी में कुशल हैं। यदि उनकी भावनाओं को ठेस पहुंचती है तो वे विरोध में तलवार उठाने में जरा भी नही हिचकते।

जनसंख्या विस्थान होता रहा

इतिहास हमें बताता है कि ऐसा एक बार नही अपितु अनेकों बार हुआ कि विदेशी आक्रांता के सामने घुटने टेकने के स्थान पर हमारे शासकों ने अपनी सेना और कभी कभी तो प्रजा के साथ भी जंगलों की शरण ली और वहीं से अपना स्वतंत्रता आंदोलन जारी रखा। भारत के मध्यकालीन इतिहास के विषय में यह तथ्य बहुत ही विचारणीय है कि इस काल में हमारे देश के लोगों ने शीघ्र अति शीघ्र स्थान परिवर्तन किया। राजस्थान से कितने ही लोग देश के दूसरे भागों में गये। इसी प्रकार अन्य प्रांतों से भी जनसंख्या विस्थापन होता रहा। उसका कारण यही था कि जैसे ही लोगों को एक स्थान पर अपना अस्तित्व संकट में दीखता था, तो वे अपना धर्म परिवर्तन करने के स्थान पर स्थान परिवर्तन कर डालते थे। अगले स्थान पर जाकर भी वह शासक वर्ग के लिए समस्याएं खड़ी करते रहते थे। मुस्लिम काल से लेकर अंग्रेजों के काल तक यही क्रम अनवरत चलता रहा। तब अंग्रेजों ने प्रतिशोध की भावना से काम लिया। क्योंकि देश के आदिवासियों, वनवासियों जनजातियों और पिछड़े वर्ग के लोगों ने 1778 से लेकर 1945 तक लगभग 75 बार विद्रोह अंग्रेजों के विरूद्घ किया। 1757 में प्लासी का युद्घ अंग्रेजों के लिए निर्णायक रहा था, परंतु इस युद्घ के बीस वर्ष बाद ही लोगों ने अंग्रेजों को चुनौती देनी आरंभ कर दी, और 1945 में अण्डमान में जापानी सेना के विरूद्घ वनवासी संघर्ष के रूप में अंग्रेजों या विदेशी शक्तियों को किसी न किसी प्रकार चुनौती देते रहे। वनवासियों, आदिवासियों और जनजाति या पिछड़े वर्गों के बलिदान और संघर्ष आज इतिहास से लुप्त हैं। दुर्भाग्य है इस देश का कि लेखनी के साथ छल किया गया और आत्मा को गिरवी रखकर आत्माहीन इतिहास लिखकर हमें दे दिया गया, अन्यथा हम उस गौरवमयी इतिहास परंपरा के अमृतमयी उत्तराधिकारी हैं जिसके लिए अल इदरीसी नामक मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा है:- ‘न्याय करना उनका (हिंदुओं का) स्वभाव है। वह न्याय से कभी परामुख नही होते। इनकी विश्वसनीयता ईमानदारी और अपनी वचनबद्घता को हर स्थिति में निभाने की इनकी प्रवृत्ति विश्व विख्यात है। उनके इन गुणों की ख्याति के कारण संपूर्ण विश्व के व्यापारी उनसे व्यापार करने आते हैं। (संदर्भ इलियट एण्ड डासन खण्ड-1-पृष्ठ 88) अपने इतिहास के साथ छल करके हमने अपनी विश्वसनीयता, ईमानदारी और अपनी वचनबद्घता को स्वयं ही संदेहास्पद बना लिया।

अंग्रेजों ने 1930 के दशक में हमें विभाजित करने के लिए विभिन्न वर्गों आदिवासी, एस.सी., एस.टी. आदि का निर्माण कर दिया। यहां तक कि अंग्रेज गांधीजी को भी हिंदुओं का नेता न मानकर सवर्णों का नेता मानते थे। एस.सी., एस.टी., ओ.बी.सी. अगड़ा-पिछड़ा आदि का ये काल्पनिक विभाजन अंग्रेजों ने भारतीय समाज में अपने औपनिवेशिक हितों को साधने के लिए किया था। जिसे स्वतंत्रता के उपरांत हमारे नेताओं ने अपने लिए ‘वोट बैंक” का सस्ता साधन बना लिया। इस प्रकार स्वतंत्रता की दुल्हन का रास्ते में ही अपहरण हो गया। इसीलिए देश में दूसरी आजादी की बातें रह रहकर उठती हैं। इतिहास परिवर्तन की बाट जोह रहा है और वह करवट लेना चाहता है। क्रमश:

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