अमेरिकी वर्चस्ववाद के अविष्कार डोनाल्ड ट्रंप

संदर्भः अमेरिका का ईरान से हुए परमाणु समझौते से अलग होना-
अमेरिकी वर्चस्ववाद के अविष्कार डोनाल्ड ट्रंप
प्रमोद भार्गव
आखिरकार अमेरिका ईरान के साथ हुए ऐतिहासिक परमाणु समझौते से अलग हो ही गया। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने इस अलगाव की घोषणा भी कर दी। हालांकि यह आशंका  ट्रंप  के राष्ट्रपति बनने के बाद से ही बनी हुई थी। ट्रंप ने चुनाव प्रचार के दौरान इस समझौते का खूब मखौल भी उड़ाया था। ट्रंप को हमेशा  यह संदेह होता रहा है कि ईरान समझौते की शर्तो का उल्लंघन कर रहा है। इस बार  ट्रंप का कहना है कि ईरान सीरिया के राष्ट्रपति बसर अल असद का समर्थन कर रहा है, उसने गैर परमाणु बैलिस्टिक मिसाइलों का भी परीक्षण किया है। ट्रंप के ये तर्क सही भी हो सकते हैं, किंतु फिलहाल तर्क से कहीं ज्यादा इस फैसले को लेकर उनकी जिद नजर आ रही है। इसी करण इस फैसले का विरोध अमेरिका में हो रहा है। पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा ने तो इस निर्णय को बड़ी गलती तक कहा है। दरअसल ओबामा को भरोसा है कि समझौते के बाद ईरान ने अपने परमाणु कार्यक्रम में कटौती की थी, लेकिन ट्रंप अंध-राष्ट्रवाद और अमेरिकी वर्चस्व को लेकर इतने पूर्वाग्रही हैं कि उन्हें न तो अमेरिकी विदेश  नीति की फिक्र है और न ही विश्व शांति  के प्रति उनकी कोई प्रतिबद्धता दिखाई देती है। इसीलिए यह आशंका जताई जा रही है कि इस करार का टूटना, कहीं विश्व शक्तियों  के संतुलन को न बिगाड़ दे ?
ईरान पर लगे प्रतिबंध हटने के साथ ही विश्वस्तरीय  कूटनीति में नए दौर की शुरुआत  होने लगी थी। ईरान, अमेरिका, यूरोपीय संघ और छह बड़ी परमाणु शक्तियों  के बीच हुए समझौते ने एक नया अध्याय खोला था। इसे ‘संयुक्त व्यापक कार्रवाई योजना‘ नाम दिया गया था। इसकी  शर्तों  के पालन में ईरान ने अपना विवादित परमाणु कार्यक्रम बंद करने की घोशणा की थी। बदले में इन देशों  ने ईरान पर लगाए गए व्यावसायिक प्रतिबंध हटाने का  विश्वास  जताया था। प्रतिबंधों के बाद से ईरान अलग-थलग पड़ गया था। इसी दौर में ईरान और ईराक के बीच युद्ध भी चला,जिससे वह बरबाद होता चला गया। यही वह दौर रहा जब ईरान में कट्टरपंथी नेतृत्व में उभार आया और उसने परमाणु हथियार निर्माण की मुहिम शुरू  कर दी थी। हालांकि ईरान इस मुहिम को असैन्य ऊर्जा व स्वास्थ्य जरूरतों की पूर्ति के लिए जरूरी बताता रहा था, लेकिन उस पर विश्वास  नहीं किया गया। प्रतिबंध लगाने वाले राष्ट्रों  के पर्यवेक्षक समय-समय पर ईरान के परमाणु कार्यक्रम का निरीक्षण करते रहे थे, लेकिन उन्हें वहां संदिग्ध स्थिति का कभी सामना नहीं करना पड़ा। अंत में आशंकाओं से भरे इस अध्याय का पटाक्षेप तब हुआ जब अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी ने निगरानी के बाद यह कहा कि ईरान ऐसे किसी परमाणु कार्यक्रम का विकास नहीं कर रहा है,जिससे दुनिया का विनाश  संभव हो। ओबामा ने इस समझौते में अहम् भूमिका निभाई थी। किंतु ट्रंप को यह अहसास होता रहा जा रहा है कि इस समझौते में अमेरिका ज्यादा झुका है, बावजूद उसके कोई हित नहीं सध रहे हैं। शायद  ट्रंप की मंशा थी कि ईरान प्रतिबंधों से पूरी तरह बर्बाद हो जाए और अमेरिका के आगे घुटने टेक दे। लेकिन ऐसे परिणाम नहीं निकले।  पश्चिमी एशियाई  की राजनीति में ईरान की हसन रूहानी सरकार का वर्चस्व कायम रहा। उसने रूस, चीन और भारत के साथ मजबूत द्विपक्षीय संबंध बनाए, जो ट्रंप को कभी रास नहीं आए। ट्रंप की वजह से ही कोरिया प्रायद्वीप में अमेरिका की जगहंसाई हुई। ट्रंप ने राष्ट्रवाद के चलते समझौता तो तोड़ा ही है, गैर-अमेरिकियों को वीजा देने के नियम भी कठोर कर दिए। इन उपायों से अमेरिकियों और गैर-अमेरिकियों के बीच विशमता भी बढ़ रही है।
ट्रंप के राष्टीय  सुरक्षा सलाहकार जाॅन बाॅल्टन ने तो कहा भी है कि अमेरिका अपनी शक्ति  की नींव पर ही कोई संधि करता है। साफ है कि अमेरिका ईरान से करार तोड़कर ऐसे प्रतिबंधों की मंशा  रखता है, कि ईरान उसकी ताकत के आगे नतमस्तक तो हो ही और यदि भविष्य  में समझौता हो तो पूरी तरह एकपक्षीय हो। हालांकि समझौते से जुड़े अन्य देश  फिलहाल ईरान से अलग नहीं हो रहे हैं। जर्मनी के विदेश  मंत्री गाब्रिएल ने तो अपने बयान में कहा है कि ईरान के साथ हुए समझौते को तोड़ने से यूरोप और अमेरिका के बीच दूरियां बढ़ सकती हैं। उन्होंने यूरोप को इस मुद्दे पर एकजुट होने का आगाह भी किया है। इससे लगता है कि ट्रंप का यह फैसला कूटनीति के स्तर पर ठहरे पानी में उबाल लाएगा। यह निर्णय इस्लाम और ईसाईयत में टकराव का कारण भी बन सकता है। ईरानी राष्ट्रपति  हसन रूहानी कह भी चुके हैं कि इस्लामिक देशों  को अमेरिका के विरुद्ध एकजुट हो जाना चाहिए। जबकि ओबामा के कार्यकाल में अमेरिकी सेना ने पाकिस्तान की सरजमीं पर उतरकर ओसामा बिन लादेन का काम तमाम कर दिया था, लेकिन किसी भी इस्लामिक देश  ने इस कार्यवाही पर विरोध नहीं जताया था। यह स्थिति ओबामा की सफल कूटनीति का ही परिणाम थी।
इस फैसले के बाद तेल के दाम बढ़ सकते हैं। प्रतिबंध की शर्तों से मुक्त होने के बाद ईरान तेल और गैस बेचने लग गया था। भारत ने भी ईरान से बड़ी मात्रा में तेल खरीदना शूरू कर दिया था। यदि भविष्य में यूरोपीय संघ भी अमेरिकी दबाव के चलते समझौते से बाहर हो जाता है तो ईरान से कच्चे तेल के आयात पर असर पड़ेगा। तेल की कमी आएगी तो तेल महंगा होगा। ऐसा होता है तो भारत में महंगाई बढ़ेगी। समझौते के बाद हालात बदलने के कारण भारत बिना किसी बाधा के ईरान से कच्चा तेल खरीदने लगा है। भारत को अपनी खपत का लगभग 80 फीसदी तेल खरीदना पड़ता है। एक अनुमान के मुताबिक भारत बीते वित्त वर्श में करीब 100 लाख टन तेल खरीदा है। ईरान से तेल खरीदा जाना सस्ता पड़ता है, इसलिए भारत को करीब हजारों करोड़ रूपए की बचत होती है। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह भी है कि भारत के तेल शोधक संयंत्र ईरान से आयातित कच्चे तेल को परिघोषित करने के लिहाज से ही तैयार किए गए हैं। गोया, ईरान के तेल की गुणवत्ता श्रेष्ठ नहीं होने के बावजूद भारत के लिए यह लाभदायी है। भारत और ईरान के बीच गैस सौदा भी लंबित है। भारत से ईरान तक रेल पटरी बिछाई जाने की योजना पर काम चल रहा है। हालांकि इन दोनों परियोजनाओं के पूरे होने की उम्मीद कम ही है,क्योंकि भारत ईरान के बीच बिछाई जाने वाली गैस पाइपलाइन पाकिस्तान होकर गुजरनी है,किंतु पाक में लगातार बढ़ते आतंकवाद के चलते ईरान अब इस पाइपलाइन संधि को आगे बढ़ाने के पक्ष में नहीं है। ईरान भारत से बासमती चावल, सोयाबीन, शक्कर, मांस, हस्तशिल्प और दवाईयां बड़ी मात्रा में खरीदता है। भारत को इस निर्यात से सबसे बड़ा लाभ है कि सभी वस्तुएं तय मूल्य से 20 फीसदी अधिक मूल्य में निर्यात की जाती हैं। 2016-17 में यह निर्यात साढ़े पांच अरब डाॅलर का था। किंतु अब करार टूटने के बाद निर्यात की मात्रा घट भी सकती है। गोया, अमेरिका की तरह यूरोपीय संघ भी इस फैसले का समर्थक हो जाता है तो भारत के लिए इस समझौते का टूटना हानिकारक रहेगा।

 

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