ऋषि दयानन्द की देन ज्ञान-विज्ञान का एक प्रमुख सिद्धान्त

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मनमोहन कुमार आर्य, देहरादून।

वर्तमान युग आधुनिक युग है जिसमें ज्ञान व विज्ञान ने प्रशंसनीय उन्नति की है। इस उन्नति में मनुष्य के जीवन को सुखी, सुविधापूर्ण व सम्पन्न बनाया है। मनुष्य जीवन का उद्देश्य भी दुःखों की निवृत्ति करना ही है। मनुष्य की आत्मा अनादि, अविनाशी, नित्य व अमर है। इसकी न कभी उन्नति हुई है और न कभी इसका नाश वा अभाव ही होना है। यह भी हम जानते हैं कि हमारी आत्मा सत्य चेतन है। चेतन का गुण ज्ञान, संवेदनयुक्त कर्म की क्षमता से युक्त होना है। आत्मा में कुछ स्वाभाविक ज्ञान होता है। यह स्वाभाविक अत्यन्त सीमित होता है। इस स्वाभाविक ज्ञान से बिना सिखाये तो वह कोई भाषा ही जान सकता है, बोल सकता है और ही वह किसी ग्रन्थ का अध्ययन उसे अपनी बुद्धि में स्थिर कर सकता है। ज्ञान को अपने माता, पिता, आचार्यों शास्त्रों से जानना होता है। जिस मनुष्य को जैसा परिवेश मिलता है जैसे उसके पूर्वजन्म के संस्कार प्रारब्ध होता है, उसी के अनुसार उसकी आत्मिक, बौद्धिक, मानसिक, सामाजिक जीवन की उन्नति होती है। अब प्रश्न यह है कि जिस ज्ञान को हम अपने माता-पिता व आचार्यों सहित शास्त्रों व ग्रन्थों के माध्यम से जानते हैं वह आया कहा से हैं? इस विषयक ऋषि दयानन्द ने एक सत्य व यथार्थ नियम दिया है। नियम है सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है’।

परमेश्वर क्या है? परमेश्वर वह है जिसने इस संसार को उत्पन्न किया है, जो इसका पालन कर रहा है और जो इस सृष्टि की अवधि वा आयु पूर्ण होने पर इसकी प्रलय करेगा। दूसरा प्रश्न यह भी हो सकता है कि वह परमात्मा जिसने इस संसार को उत्पन्न किया व धारण किया है, उसका स्वरूप व गुण आदि क्या हैं? इसका उत्तर ऋषि दयानन्द ने आर्यसमाज के दूसरे नियम, स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश, आर्याभिविनय, सत्यार्थप्रकाश तथा ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि अनेक ग्रन्थों में प्रस्तुत किया है। हम आर्यसमाज के दूसरे नियम को प्रस्तुत करते हैं। नियम है ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरुप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्ता (कर्ता, धर्ता और हर्ता) है। उसी की उपासना करनी योग्य है।’ ईश्वर सर्वज्ञ है, जीवों के कर्मों के फलों को देने वाला है तथा वेद ज्ञान का दाता सहित अनन्त गुणों से युक्त है। ऐसे ईश्वर की ज्ञान व कर्म रूपी सामर्थ्य से ही यह समस्त जगत बना है व इसका पालन हो रहा है। इस सृष्टि में जितना ज्ञान व विज्ञान है वह ईश्वर ने वेदों के द्वारा व इस सृष्टि की रचना के द्वारा और साथ ही मनुष्यों को मन व बुद्धि देकर प्रदान किया है। यदि ईश्वर न होता, या होता परन्तु इस सृष्टि को न बनाता, तो हमारे आज के वैज्ञानिकों व मनुष्यों, अन्य किसी प्राणी व सृष्टि का अस्तित्व ही न होता। तब किसी प्रकार के ज्ञान व विज्ञान होने व अनुसंधान व खोज का भी प्रश्न ही नहीं होता। ईश्वर ने अपने अनन्त ज्ञान एवं कर्म सामर्थ्य अर्थात् सर्वशक्तिमत्ता से इस सृष्टि को बना कर जीवों को उनके पूर्व सृष्टि व जन्मों के कर्मों के अनुसार उत्पन्न किया है। मनुष्य योनि में ही ज्ञान प्राप्ति, उस ज्ञान की वृद्धि विज्ञान की उन्नति करने की सामर्थ्य है। वैज्ञानिक ईश्वर की बनाई हुई सृष्टि को देख कर, उसका गहन अध्ययन कर, उसमें कार्यरत नियमों को समझ कर ही उन्हें प्रस्तुत करने का प्रयास करते हैं। आज विज्ञान ने जो उन्नति की है, वह समुद्र के कुल जल के समक्ष एक लोटे के जल के समान है। ईश्वर में अनन्त ज्ञान-विज्ञान है जिसे कोई मनुष्य कभी पूरा नहीं जान सकता। आज भी संसार में जितना ज्ञान है उसे कोई एक मनुष्य पूरा जान लेने व उसे अपनी आत्मा व बुद्धि में स्थिर करने की क्षमता नहीं रखता। यह समस्त ज्ञान ईश्वर ने ही मूल प्रकृति जो सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था है, उससे इस जगत को बना कर इसके माध्यम व वेद के माध्यम से प्रकट किया है। विद्वानों व वैज्ञानिकों ने जिन नियमों की खोज कर विज्ञान को आधुनिक रूप दिया है, उसका मूल कारण व आधार परमेश्वर ही है। इसे यदि ऋषि दयानन्द के शब्दों में संक्षिप्त रूप में कहना हो तो सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है’ को दोहरा कर प्रस्तुत किया जा सकता है।

               ऋषि दयानन्द ने सब सत्य विद्याओं और विद्यायुक्त पदार्थों व उनके ज्ञान का आदि मूल त्ववज ब्ंनेम ईश्वर को बताया है। हम नहीं समझते कि किसी मत का कोई विद्वान व वैज्ञानिक इस सत्य नियम का प्रतिवाद कर सकता है। यह नियम सर्वथा सत्य एवं सर्व-स्वीकार्य है, ऐसा हम अनुभव करते हैं। यदि कोई इसे न माने तो आर्यसमाज के विद्वान उस व्यक्ति से अनेक युक्ति व तर्कों के साथ शास्त्रार्थ कर सकते हैं। किसी मत या मनुष्य के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं है कि यह संसार बिना सर्वज्ञ, सर्वव्यापक व सर्वशक्तिमान ईश्वर के बनाये बन सकता है वा बना है। ईश्वर ने इसे बनाया है। यह भी विदित है कि यह संसार अत्यन्त सूक्ष्म कणों के द्वारा ही बनाया गया है। जिन कणों से यह संसार बना है वह सूक्ष्म कण परमाणु में विद्यमान कणों से भी सूक्ष्म होंगे। सांख्य दर्शन में बताया गया है कि यह संसार उपादान कारण मूल प्रकृति से अस्तित्व में आया है। वह मूल प्रकृति सत्व, रज व तम गुणों की साम्यावस्था होती है। इस मूल प्रकृति में सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी ईश्वर प्रेरणा रूपी क्रिया करके उससे महत्तव बुद्धि व अहंकार तत्व व पदार्थ जो कि भौतिक पदार्थ होते हैं, बनाते हैं। इनसे पांच तन्मात्रायें, पुथिव्यादि पांच भूत, 10 इन्द्रियां, मन, बुद्धि बनते हैं। ईश्वर व जीव इनसे पृथक सत्तायें हैं। यह न बनती हैं और न इनके स्वरूप में परिवर्तन होता है। यह सब रचनायें ईश्वर के द्वारा ज्ञानपूर्वक वा विज्ञानपूर्वक की गई हैं। इन समस्त क्रियाओं व रचनाओं का कर्ता अनादि, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापक व सर्वान्तर्यामी परमेश्वर ही है। उसका जो ज्ञान-विज्ञान है उसी का प्रकाश उसकी इन रचनाओं के द्वारा होता है। उन रचनाओं का अध्ययन कर ही हमारे विद्वान व वैज्ञानिक जड़ प्रकृति में कार्य करने वाले नियमों की खोज करके व उन नियमों को समझ कर उसे देश व समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं जिससे अन्य सभी वैज्ञानिक व विद्वान लाभ उठाते हैं। इस प्रकार से ईश्वर द्वारा सृष्टि में डाले गये व इस्तेमाल किये गये नियमों का वैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन, उनका प्रकटीकरण व उपयोग ही विज्ञान कहा जाता है। विज्ञान के इन सभी नियमों का प्रदाता व धारक परम पिता परमात्मा ही है। वही सबसे बड़ा विद्वान वैज्ञानिक है। उस ईश्वर को अनादि, अमर तथा जीवों का माता-पिता, आचार्य, राजा और न्यायाधीश कहा जाता है। वस्तुतः ईश्वर को ऐसा कहना व जानना सत्य ही है।

               अतः ईश्वर का विज्ञान से किसी प्रकार का विरोध व असमन्वय नहीं है। विज्ञान ईश्वर की ही देन है। धर्म व वेद भी उसी ईश्वर की देन हैं जिनमें परस्पर विरोध नहीं हो सकता। यदि कहीं विरोध है तो उन नियमों व सिद्धान्तों को उन मतों के आचार्यों के न समझने के कारण हैं। यूरोप के वैज्ञानिकों ने ईसाई मत की धर्म पुस्तक के स्थान पर यदि वेद और ऋषि दयानन्द की मान्यताओं को पढ़ा होता तो हमारा विचार है कि वह सभी आस्तिक होते और इससे ज्ञान व विज्ञान का अधिक भला होता। ईसाई मत की ईश्वर व विज्ञान के विपरीत कुछ मान्यताओं के कारण ही यूरोप के वैज्ञानिकों ने ईश्वर व धर्म से स्वयं को दूर रखा है। वेदों को जानने वाले भारत के कुछ वैज्ञानिक ईश्वर व वेद के सिद्धान्तों में विश्वास रखते हैं जिसका कारण ईश्वर, वेद व धर्म का विज्ञान के नियमों से कहीं होई विरोध नहीं है। वैज्ञानिक डॉ. सत्यप्रकाश सरस्वती व डॉ. रामप्रकाश जी आदि ईश्वर के अस्तित्व सहित वेद वर्णित सभी सिद्धान्तों में सच्ची आस्था रखते हैं और मत-मतान्तरों के ग्रन्थों को सत्य व असत्य मान्यताओं से युक्त ग्रन्थ स्वीकार करते हैं। आर्यसमाज के विद्वान पं. क्षितिज वेदालंकार द्वारा सम्पादित एक पुस्तक है वैज्ञानिकों की दृष्टि में ईश्वर’। इससे भी यह ज्ञात होता है कि अनेक वैज्ञानिक एक ज्ञानस्वरूप व अदृश्य शक्ति के रूप में एक अलौकिक सत्ता को मानते हैं।

               हम यह अनुभव करते हैं कि ज्ञान व विज्ञान का आधार आर्यसमाज का प्रथम नियम है। इसे हमने पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। यह नियम ज्ञान व विज्ञान के आदि स्रोत व उद्गम् के सत्यस्वरूप ईश्वर को प्रस्तुत करता है। हमें इस नियम का अधिकाधिक प्रचार करना चाहिये। विद्वानों को इस नियम की व्याख्या में हिन्दी व अंग्रेजी में ग्रन्थ भी लिखने चाहिये जिससे कि संसार के सभी वैज्ञानिक इस नियम को स्वीकार कर लें। इससे आर्यसमाज के प्रचार व प्रसार को बल मिलेगा। ओ३म् शम्।

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