औरों को दुःखी न करें, यह हिंसा से भी बढ़कर है

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डॉ. दीपक आचार्य 

download (2)हिंसा का यही मतलब नहीं है कि किसी की हत्या कर देना या हिंसक प्रवृत्तियों में लगे रहना। हिंसा का संबंध हिंसक मानसिकता और क्रूर व्यवहार से आरंभ होता है यही सूक्ष्म मानसिकता जब व्यवहार रूप में परिणत हो जाती है तब स्थूल आकार पाकर घृणित हो जाती है।

आजकल हिंसा अपनाने में हम पीछे नहीं हैं। यह जरूरी नहीं है कि जो अपने आपको शाकाहारी कहते हैं और जीवदया की बातें करते हैं वे पूरी तरह अहिंसक ही हों। हिंसा का सीधा संबंध मन-मस्तिष्क और व्यवहार से होता है।

वह हर इंसान हिंसक है जो अपने मन-कर्म और वचन से औरों को तंग करता है, दुःखी करता है। इस प्रकार की हिंसा किसी की प्रत्यक्ष हत्या कर देने से भी ज्यादा घातक और घृणित होती है क्योंकि इसमें सताये जाने वाला जीव हर क्षण अपने ऊपर अत्याचार व अन्याय का अनुभव करता है, चरम दुःखी होता है और जीते जी मरे हुए के समान रहने लगता है।

इस दृष्टि से यह अपने आप में सबसे बड़ी हिंसा है और जो लोग ऎसा करते हैं वे दुनिया के बड़े हिंसक लोगों में गिने जाने चाहिएं। आजकल इंसान अपने स्वार्थों और नंबर बढ़ाने, बड़े-बड़े लोगों के साथ रहने और साथ चलने का फितूर पूरा करने तथा अपने अहंकारों को परितृप्त करने के लिए ऎसे-ऎसे कारनामों, करतूतों और गोरखधंधों को अपनाने का आदी हो चुका है जो अपने आप में मानवीय गुणों से दूरी प्रकटाते हैं।

छोटे-मोटे स्वार्थों को पूरा करने तथा अपने दंभ को आकार देते हुए जमाने भर को किसी न किसी तरह भ्रमित करने और लोगों के भोलेपन का पूरा-पूरा फायदा उठाने वाले लोगों की संख्या निरन्तर बढ़ती ही जा रही है। खूब सारे खोखले और व्यक्तित्वहीन लोग आजकल कई सारे गलियारों में ऎसे पसरे हुए हैं जैसे कि वे ही दुनिया के सिकंदर हों।

फिर ऎसे लोगों को इनकी ही किस्म के ढेरों लोग मिल ही जाते हैं जो इनकी जी हुजूरी में लगे हुए ‘अहो रूपं अहो ध्वनि’ को गौरवान्वित करते रहते हैं। हमारे आस-पास और अपने इलाकों में भी ऎसे आत्ममुग्ध और पसरे हुए लोगों का भारी जमघट है जो अपने आस-पास रहने वालों और अपने से संपर्कितों पर हमेशा बेवजह रौब झाड़ने के लिए कुख्यात हैं।

ऎसे लोग न धीर-गंभीर होते हैं, न शालीन, बल्कि इनकी वाणी और व्यवहार के साथ ही बॉड़ी लैंग्वेज से ऎसा लगता है जैसे कि पूर्व जन्म के क्रूर श्वान या कोई हिंसक जानवर ही रहे हों।

इनके बोलने के अंदाज, व्यवहार और हमेशा रूखेपन को देख कर लगता है कि इनकी जिन्दगी से रंगों और रसों को बाहर निकाल दिया गया हो। इनकी संवेदनशीलता सिर्फ अपने तक सीमित होती है और दिन-रात ये लोग अपने गोरखधंधों के जाल बुनने में लगे रहते हैं।

जो लोग सामने वालों को किसी न किसी प्रकार से पीड़ा पहुँचाते हैं, अभद्र और दुःख भरे वाक्यों का प्रयोग करते हैं तथा उन्हें मानसिक रूप से प्रताड़ित करते रहते हैं वे सारे लोग हिंसक श्रेणी में माने गए हैं तथा इन सभी को हिंसा का पाप लगता है।

एक समय तक इन्हें अपनी इन घृणित हरकतों का कोई पता नहीं चलता क्योंकि वे अहंकार की खुमारी में जीते रहते हैं। लेकिन जिस समय पुण्य क्षीण होकर पापों का ग्राफ बढ़ जाता है उस समय इनकी ऎसी दुर्गति होने लगती है कि ये जीवन के सारे आनंद से दूर हो जाते हैं, इनके संगी-साथी भी पलायन कर जाते हैं और ऎसे लोगों का उत्तराद्र्ध दुःखभरा हो जाता है।

इन लोगों के लिए जिन्दगी भर की गई वाचिक और मानसिक हिंसा का कोई परिहार नहीं हो पाता। जो लोग मानसिक हिंसा के आदी हैं उन सभी को अपनी ही किस्म के प्रतीक रहे पुरानी पीढ़ी के लोगों की जिन्दगी को देखकर सबक लेना चाहिए।

1 COMMENT

  1. आचार्य जी वास्तव में आप जिस प्रकार मानव मानव से विमुख हो रहा है, रिशत,े घर परिवार बिखर रहे है, हम एक दूसरे को सिर्फ धर्म के नाम पर मारने काटने क्यो लगे ह आप का ये कहना बिल्कुल सही है कि वह हर इंसान हिंसक है जो अपने मन.कर्म और वचन से औरों को तंग करता हैए दुःखी करता है। इस प्रकार की हिंसा किसी की प्रत्यक्ष हत्या कर देने से भी ज्यादा घातक और घृणित होती है क्योंकि इसमें सताये जाने वाला जीव हर क्षण अपने ऊपर अत्याचार व अन्याय का अनुभव करता हैए चरम दुःखी होता है और जीते जी मरे हुए के समान रहने लगता है।

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