कहो कौन्तेय-३६

(अर्जुन का निवातकवच दानवों से युद्ध)

विपिन किशोर सिन्हा

मैंने उनकी आज्ञा शिरिधार्य की। मातलि दिव्य रथ के साथ उपस्थित हुआ। स्वयं देवराज ने मेरे मस्तक पर अत्यन्त प्रकाशमय मुकुट पहनाया, एक अभेद्य और सुन्दर कवच से मेरा वक्षस्थल आच्छादित किया, मेरे गांडीव पर अटूट प्रत्यंचा चढ़ाई, मुझे विजयी होने का आशिर्वाद दिया और प्रसन्न मन से युद्ध क्र लिए विदा किया।

पवन वेग से रथ-संचालन करते हुए मातलि मुझे समुद्रतट पर स्थित निवातकवचों की नगरी के समीप ले आया। अपना देवदत्त शंख फूंककर मैंने युद्ध का आह्वान किया। देखते-ही-देखते, अनेक प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों से सुसज्जित निवातकवच दैत्य नगर से बाहर आए। उन्होंने भीषण स्वर और वृहदाकार वाद्य-यंत्रों का वादन आरंभ कर दिया। एक भीषण संग्राम आरंभ हुआ। अब तक मैंने जितने भी युद्ध किए थे, यह उन सबमें सबसे कठिन और भयंकर था। अब तक मैंने सामान्य अस्त्र-शस्त्रों के प्रयोग से ही यिजय प्राप्त की थी लेकिन इस समर में परंपरागत अस्त्र-शस्त्रों का दैत्यों पर कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं हो रहा था। मैंने सीमित ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया, आंशिक सफलता प्राप्त हुई। शीघ्र ही दैत्यों ने मुझे चारो ओर से घेर लिया। एक-एक कर स्वर्ग में प्राप्त किए गए सभी दिव्यास्त्रों का प्रयोग मैंने किया। अन्त में मातलि के परामर्श पर वज्र का प्रयोग कर निर्णायक विजय प्राप्त की। ऐसा प्रतीत हुआ – दिव्यास्त्रों के परीक्षण हेतु ही यह महासमर आयोजित था। समस्त दिव्यास्त्रों का प्रयोग सफल रहा। युद्ध के प्रत्यक्षदर्शी देवर्षि, ब्रह्मर्षि और सिद्धजन पुष्प-वर्षा कर रहे थे, प्रश्स्तिगान गा रहे थे। दानवों का नाश कर, उनके नगर में शान्ति-स्थापना के बाद, मैंने पुनः देवलोक के लिए प्रस्थान किया।

मार्ग में मैंने एक अन्य दिव्य एवं विशाल नगर देखा जो सूर्य के समान प्रकाशित हो रहा था। मातलि ने मुझे बताया कि वह नगर पौलोम और कालकंज नामक दानवों ने बसाया था। ये दानव अत्यन्त पराक्रमी थे और युद्ध में कई बार देवराज इन्द्र को पराजित कर चुके थे। ब्रह्मा द्वारा प्राप्त वर के कारण वे देवता, नाग और असुरों द्वारा अवध्य थे। इसी का लाभ लेकर वे स्वेच्छाचारी, महान बलशाली दानव अपने आकाशचारी सुवर्णमय नगर के साथ, अपनी इच्छानुसार जहां चाहते थे – जा सकते थे, जो चाहते थे – कर सकते थे। उनका नगर हिरण्यपुर नगर के नाम से विख्यात था। इसमंम देवताओं का प्रवेश निषिद्ध था। मातलि ने देवराजद्रोहियों को समाप्त करने क आग्रह किया। नगर के समीप पहुंचकर मैंने आक्रमण कर दिया। सामान्य अस्त्रों के प्रयोग का उस नगर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ रहा था। वह दिव्य नगर कभी पृथ्वी पर आ जाता – कभी पाताल में चला जाता, कभी आकाश में उड जाता, कभी तिरछी दिशाओं में चलता तो कभी जल में गोते लगा देता। मैं उसका पीछा करते-करते थकान अनुभव करने लगा। अतः दिव्यास्त्रों को अभिमंत्रित कर बाणसमूहों की वृष्टि करते हुए दानवों समेत उस नगर को क्षत-विक्षत करना आरंभ किया। कुछ ही समय में दिव्य नगर तहस-नहस होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा लेकिन अमर्ष में भरे हुए उन दानवों के साठ हजार रथ, मेरे साथ युद्ध में लड़ने हेतु डट गए। वे दानव युद्ध के लिए इस प्रकार मेरी ओर च्ढ़े आ रहे थे, मनो समुद्र की लहरें ऊठ रही हों। उनके मायावी युद्ध के प्रतिकार हेतु मैंने दिव्यास्त्रों का प्रयोग आरंभ किया लेकिन उन्हें अपेक्षित क्षति नहीं पहुंचा सका। वे मेरे दिव्यास्त्रों के निवारण में दक्ष थे। मेरे सारे दिव्यास्त्रों को काट, उन्होंने एकसाथ आक्रमण कर मुझे गहरी चोट पहुंचाई। वे अस्त्रों के ज्ञाता और युद्ध-कुशल थे। उनकी संख्या भी तीव्र गति से बढ़ती जा रही थी। मैं चारो ओर से घिर गया। उस महान संग्राम में उन दानवों से पीड़ित होने पर मेरे मन में भय का संचार होने लगा। मेरे पास पाशुपतास्त्र के प्रयोग के अतिरिक्त कोई विकल्प शेष नहीं था।

“ऊँ नमः शिवाय” के उच्चारण के साथ एकाग्रचित्त हो मैंने सिर झुकाकर देवाधिदेव महादेव को प्रणाम किया और पाशुपतास्त्र का प्रयोग कर दिया। प्रयोग करते ही मुझे एक दिव्य पुरुष का दर्शन हुआ, जिसके तीन मस्तक, तीन मुख, नौ नेत्र तथा छः भुजाएं थीं। उनका स्वरूप अत्यन्त तेजस्वी था और केशराशि सूर्य के समान प्रज्ज्वलित हो रही थी। उनके दर्शन से मैं, क्षणांश में अभय हो गया। पाशुपतास्त्र का प्रयोग भी अकल्पनीय था। सृष्टि के समस्त जीव हाथों मे अस्त्र-शस्त्र ले दानवों का संहार कर रहे थे। दसों दिशाओं में प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया। दो ही घड़ी में पाश्पतास्त्र ने समस्त दैत्यों का संहार कर डाला। मैंने पुनः त्रिपुरनाशक भगवान शंकर के श्रीचरणों में अपना विनम्र प्राणाम निवेदित किया और पाशुपतास्त्र के प्रत्यावर्तन के लिए मन्त्रोच्चारण किया। पलभर में सबकुछ शान्त हो गया। देवराज इन्द्र के शत्रु पूर्ण विनाश को प्राप्त हो चुके थे। मातलि के हर्ष की सीमा नहीं थी। उसने तरह-तरह से मेरी स्तुति की।

देवराज इन्द्र द्वारा सौंपे गए कार्य को पूर्ण कर मैं पुणः अमरावती में देवेन्द्र के सम्मुख उपस्थित हुआ। मातलि ने उन्हें सारा वृतान्त विस्तारपूर्वक सुनाया। देवराज ने प्रसन्न हो मुझे हृदय से लगाया, मेरा मस्तक सूंघा और अभिनन्दन करते हुए मधुर वाणी में कहा –

“पार्थ! तुमने वह कार्य किया है, जो देवताओं और असुरों के लिए भी असंभव है। आज तुमने मेरे शत्रुओं का संहार करके गुरुदक्षिणा चुका दी है। धनंजय! जिस तरह कठिन इन दो युद्धों में तुमने अविचल और मोहशून्य रहकर अस्त्रों का प्रयोग किया है और विजय प्राप्त की है, भविष्य में भी इसी तरह दृढ़ इच्छाशक्ति और स्थितप्रज्ञता के साथ युद्ध में अविचल रह दिव्यास्त्रों का प्रयोग करना – कोई देवता, दनव, राक्षस, असुर, नाग, गंधर्व और मनुष्य तुम्हारा सामना नहीं कर सकता। तुम्हारे पास समस्त दिव्यास्त्र विद्यमान हैं। भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य, कर्ण तथा पृथ्वी के समस्त अधिपति सहित शकुनि – ये सब के सब तुम्हारी सोलहवीं कला के बराबर भी नहीं हो सकते। उपयुक्त समय आने पर, हे कुन्तीकुमार! धर्मराज युधिष्ठिर तुम्हारे बाहुबल से जीती हुई पृथ्वी के चक्रवर्ती सम्राट ब

 

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